Sunday, September 27, 2015

क्या सिर्फ फ्री बिजली -पानी से होगा 'मेक इन इंडिया'?

नई दिल्लीः प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका में दिग्गज कंपनियों के साथ मुलाकात कर उन्हें भारत में निवेश के लिए आमंत्रित कर रहे हैं. लेकिन दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को ये रास नहीं आया. उन्होंने कहा, ''पीएम विदेश में गिड़गिड़ा रहे हैं पहले उन्हें मेक इंडिया करना होगा.''
सवाल उठता है कि क्या लोगों को मुफ्त बिजली और पानी देकर देश के लिए अच्छे दिन लाए जा सकते हैं ? और अगर नहीं तो मेक इंडिया पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं . माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्य नडेला, एपल कंपनी के सीईओ टिम कुक, गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई, एडोबी के सीईओ शांतनु नारायण और टेस्ला कंपनी के सीईओ एलॉन मस्क के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हैंड सेक देश के लिए अच्छे दिन लाने में बड़ा अहम साबित हो सकता है .और शायद इसका आगाज भी हो चुका है .


गूगल के सहयोग से देश के 500 रेलवे स्टेशनों पर फ्री वाई फाई लाने का एलान हुआ, माइक्रोसॉफ्ट ने भारत के 5 लाख गांवों में सस्ती दर ब्रॉडबैंड सेवा देने में सहयोग का वादा किया, तो टेस्ला मोटर्स ने भी भारत में निवेश के लिए अपनी हामी भर दी.
एक ओर प्रधानमंत्री अच्छे दिन वाया अमेरिका लाने के लिए सिलिकॉन वैली में डटे हुए हैं तो दूसरी ओर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पीएम की कोशिश को विदेश में जाकर गिड़गिड़ाना करार दिया है.

केजरीवाल कह रहे हैं कि ''मेक इन इंडिया'' से पहले मेक इंडिया यानी भारत को बनाना होगा. केजरीवाल जिस भारत को बनाने की बात कर रहे हैं क्या बगैर ब्रांडिंग ऐसा भारत बनाना संभव है.

जिस देश में चपरासी के 368 पोस्ट के लिए 23 लाख से ज्यादा लोग आवेदन कर देते हैं, उस देश में बिना फैक्ट्री लगाए और विदेशी कंपनियों को निवेश के लिए आमंत्रित किए बिना लाखों-करोड़ युवाओं को  रोजगार कैसे दिया जा सकता है ?

आर्थिक और सामाजिक मामलों में भारत की तुलना जिस चीन से अक्सर से की जाती है, वही चीन अपनी ब्रांडिंग की बदौलत ही भारतीय बाजारों में छाया हुआ है. इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान हों या फिर होली, दीवाली जैसे त्योहार made in china लिखे सामान ज्यादा नजर आते हैं. क्यों? क्योंकि चीन ने अपने देश में उद्योगों को इतनी सहूलियतें दी हैं कि विदेशी कंपनियां चीन के नियमों के मुताबिक काम करने को तैयार रहती हैं. ऐसे में भारत भले ही सबसे ज्यादा युवाओं वाला देश हो लेकिन जब तक देश की ब्रांडिंग नहीं होगी शायद तब तक विदेशी कंपनियों को आकर्षित करना बेहद मुश्किल होगा.
एबीपी न्यूज

Saturday, September 26, 2015

मुस्लिम लॉ बोर्ड की खुली चिट्ठी, ब्राह्मण धर्म इस्लाम के लिए खतरा

लखनऊ। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अब एक खुली चिट्ठी लिखकर ब्राह्मण धर्म और वैदिक संस्कृति को इस्लाम के लिए खतरा बताया। एआईएमपीएलबी मुसलमानों की वह संस्था है जो मुस्लिम कानून और शरीयत से संबंधित मामले देखता है। मौलाना वली रहमानी इसके महासचिव हैं।
इस चिट्ठी में लिखा गया है कि शुक्रवार को जुमे की नमाज के दौरान इमामों को बाकी लोगों के साथ इस बारे में विचार कर आंदोलन के लिए तैयार करना चाहिए।
लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना वली रहमानी की ओर से जारी चिटी में योग के साथ ही मुसलमानों को सूर्य नमस्कार करने से भी मना किया गया है। चिट्ठी में लिखा है कि सूर्य नमस्कार सूर्य की पूजा करना है, यह वैदिक सभ्यता और ब्रा±मण धर्म का हिस्सा है। ऎसे में यह हमारे धार्मिक विश्वास के साथ मेल नहीं खाता।
रहमानी ने संगठनों और पदाधिकारियों को लिखे लेटर में कहा है कि उन्हें इस्लाम की शिक्षाओं के बारे में अपने समुदाय के लोगों को जागरूक करते रहना चाहिए। बोर्ड ने योग, सूर्य नमस्कार और वंदे मातरम को प्रमोट करने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए कहा है कि यह मुस्लिम विचारधारा के खिलाफ है।
रहमानी की चिटी में दावा किया गया है 21 जून को योग दिवस मनाया गया, क्योंकि उस दिन आरएसएस के आइकन रह चुके कुशु बाली राम हेगड़े का निधन हुआ था। चिटी में लिखा है कि संविधान हमें न सिर्फ अपनी इच्छा से धर्म अपनाने की स्वतंत्रता देता है बल्कि धर्मनिरपेक्ष सरकार की भी बात कहता है।

Friday, September 25, 2015

पंडित दीनदयाल उपाध्याय: मातृभूमि का सच्चा सपूत

ये 1942 की बात है, जब एल. टी. की परीक्षा उतीर्ण करने के पश्चात एक मेधावी युवा ने अपने परिवारीजनों की विवाह करने और नौकरी करने की इच्छाओं को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करने के बाद स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उत्तर प्रदेश में संगठन करने में जुटे भाउराव देवरस के समक्ष प्रस्तुत किया और कहा कि मैंने संघ कार्य हेतु पूरा जीवन देने का निश्चय किया है और मैं कहीं भी भेजे जाने हेतु प्रस्तुत हूँ।
उस युवा को प्रचारक के रूप में सबसे पहले उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले के गोल गोकर्णनाथ भेजा गया। यहाँ पहुंचकर उस युवा को बहुत कसाले झेलने पड़े। ना रहने का ठिकाना, ना खाने की व्यवस्था। एक भड़भूजे के यहाँ से दो चार पैसे के चने लेकर और लोटा भर पानी पीकर किसी प्रकार पेट की ज्वाला शांत की जाती। यह क्रम कई दिन तक चलता रहा।

संयोगवश कसबे का एक धनीमानी व्यक्ति अपने कार्यालय से इस होनहार युवा की ये दिनचर्या लगातार देख रहा था। इस युवक की चमकीली आँखों में एक विलक्षण सपना पलते देख उस धनाढ्य वकील ने एक दिन कौतुहलवश उससे पूछा कि उसके यहाँ आने और इस प्रकार कष्ट सहते रहने का क्या कारण है।
उस युवा ने जब संघ का महान ध्येय और हिन्दू संगठन की व्यवहारिक कल्पना उन सज्जन के सामने रखी तो उनकी आँखें छलछला आयीं। वो उस युवा को तुरंत अपने घर ले गए, भोजन कराया और आगे हमेशा के लिए अपना घर और भोजनालय ही नहीं, अपितु हृदय भी उस युवा और संघ के लिए खोल दिया।
वो सज्जन थे गोला गोकर्णनाथ के प्रसिद्द वकील श्री कुंजबिहारीलाल राठी, जो आगे चलकर भारतीय जनसंघ उत्तर प्रदेश के मंत्री बने और आजीवन उस युवा और संगठन दोनों से पूर्ण समर्पित भाव से जुड़े रहे। पर कष्टों में तप कर भी संगठन को गति देने वाला वो युवा कौन था?
वो थे अजातशत्रु पंडित दीनदयाल उपाध्याय, जो आगे चलकर भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष पद तक पहुंचे और जिनके द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद आज भी विद्वानों को विश्व की समस्यायों को पूंजीवाद और साम्यवाद की विदेशी जमीनों पर पनपी विचारधाराओं से भिन्न एक अलग ही दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित करता है।
'राजनीति में अनेक नेता आयेंगे, पर यह अभागा राष्ट्र दीनदयाल के लिए तरसेगा|'
दीनदयाल जी की आकस्मिक मृत्यु के बाद दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादक श्री रतनलाल जोशी द्वारा उनके प्रति श्रद्धांजलि स्वरुप कहे गए ये शब्द आज भी कितने सटीक हैं| समय बढ़ता गया, अनेक नेता आये और चले गए पर कोई भी सादा जीवन उच्च विचार के प्रतीक, भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करने वाले एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा के प्रणेता, प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता , समाजसेवक, साहित्यकार पंडित दीनदयाल उपाध्याय का स्थान नहीं ले सका|
25 सितंबर, 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में भगवती प्रसाद उपाध्याय और रामप्यारी के घर जन्में दीनदयाल जी ७ वर्ष की आयु तक आते आते माता पिता दोनों के स्नेह से वंचित हो गए और उनका लालन पालन उनके मामा ने किया| प्रारंभ से ही मेधावी छात्र रहे पंडित जी ने बी.एस-सी., बी.टी. करने के बाद भी नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गए थे, अत: कालेज छोड़ने के तुरंत बाद वे संघ के प्रति पूर्ण रूप से गए और एकनिष्ठ भाव से संगठन का कार्य करने लगे।
राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन हेतु उन्होंने लखनऊ में ''राष्ट्र धर्म प्रकाशन'' नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका ''राष्ट्र धर्म'' शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरूआत की।
सन् 1950 में नेहरु मंत्रिमंडल में मंत्री डा0 श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डा0 मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में संघ के तत्कालीन सरसंघचालाक श्री गुरूजी से मदद मांगी। श्री गुरुजी ने अत्यंत सोच विचार कर जो युवा डाक्टर मुखर्जी को दिए , उसमें पंडित दीनदयालजी अग्रगण्य हैं|
उन्होंने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और इसमें एक नए दल भारतीय जनसंघ की राज्य इकाई की नींव डाली गयी। प्रारंभ में वे दल के प्रदेश मंत्री बनाये गए और दो वर्ष बाद सन्‌ १९५३ ई. में वे अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग १५ वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। कालीकट अधिवेशन (दिसंबर, १९६७ ई.) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
वे इतने कुशल संगठनकर्ता थे कि डा. श्यामप्रसाद मुखर्जी उनके लिए कहा करते थे कि अगर भारत के पास दो दीनदयाल होते तो भारत का राजनैतिक परिदृश्य ही अलग होता| अजातशत्रु दीनदयाल प्रसिद्धि की नयी ऊंचाइयों को छू ही रहे थे कि 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनका मृत शरीर मिलने से सारे देश में शोक की लहर दौड़ गई|
उनकी इस तरह हुई मृत्यु सदैव संदेह के घेरे में रही और आज तक हम घटना की वास्तविकता से परिचित नहीं हो सके हैं| भले ही उनका पार्थिव शरीर बरसों पहले हमसे दूर हो गया हो पर वो आज भी हर उस व्यक्ति के हृदय में जीवित हैं जिसकी आँखों में भारतमाता को परम वैभव पर पहुंचाने का सपना पलता है| इस महामानव को उनके जन्मदिवस पर कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|
नवयुग के चाणक्य, तुम्हारा इच्छित भारत
अभिनव चन्द्रगुप्त की आँखों का सपना है |
जिन आदर्शों के हित थे तुम देव समर्पित,
लक्षाधिक प्राणों को, उनके हित तपना है

Tuesday, September 22, 2015

विचार, प्रचार और राष्ट्रवादी बौद्धिक असफलताएँ : कारण और निवारण


विषय प्रवेश
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किसी भी समाज में विचार बरसों बरस के लिए कैसे स्थापित होते हैं इसको समझना है तो भारत में वामपंथ को समझिए , आज गंभीर "राष्ट्रवादियों" का एक बहुत बड़ा तबका वामपंथियों को कोसने में अपना समय खर्च करता है , क्यों ? क्या वामपंथी एक दो राज्य छोड़कर कहीं सत्ता में हैं ? क्या उनका कोई व्यापक जनाधार है ? क्या उनका काडर बेस है ? क्या यूवा उनके विचार की तरफ तरफ आकर्षित हैं ? नहीं , सबका जवाब नहीं में ही आएगा ऐसा कुछ भी नहीं है फिर भी देश के केंद्र में और आधे राज्यों में राज करने वाली विचारधारा के लोग वामपंथ से भयाक्रांत हैं ? क्यों ? जवाब है  उस विचार को जीने वाले और उसके लिए माहौल बनाने वाले विचारक / प्रचारकों का  "बौद्धिक विमर्श" (intellectual discourse) और सूचना की व्याख्या (interpretation of information ) करने वाली लगभग सभी प्रकार की संस्थाओं पर प्रभुत्व !! आगे बढ़ने से पहले ये भी बताना ज़रूरी है की एक प्रबुद्ध विचारक एक अच्छा प्रचारक भी सिद्ध हो ये ज़रूरी नहीं , खासकर वह जो समकालिक (contemporary ) विचारों को स्वीकारते हुए भी अपनी विचारधारा को समझा और फैला सके !!

दरअसल जब जब भी मैं वामपंथ को इस लेख में संदर्भित करूँ तब तब आप उसे समाजवाद , नेहरुवाद , जिहादवाद के साथ ही समझियेगा क्योंकि ये सब चचेरे ममेरे भाई हैं , सब एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे को बचाने समय समय पर आगे आते रहे हैं , यही पूरी बहस का सबसे रोचक पहलु भी है और सबसे दुःखद भी , क्योंकि राष्ट्रवाद इतना सहज और पवित्र विचार होते हुए भी अलग थलग दिखाई देता है  , संघ परिवार के उद्भव के सौ साल बाद तक भी राष्ट्रवाद अकेला चल रहा है , लाखों करोड़ों की पैदल सेना है , पर प्रचारक रुपी किले नहीं है !! मैं बचपन से संघ के वातावरण में ही पला बढ़ा हूँ , सैकड़ों संत रुपी विचारनिष्ठ तपस्वियों और मनीषियों को बहुत करीब से देखा है , इसलिए ये कहना की संघ परिवार के पास विचारक ही नहीं है ये उस महान संगठन के ऊपर मेरे जैसे अल्पज्ञानी का दिया हुआ लांछन होगा !! पर याद रखें आप जनता का दिल जीत लें , पर राज्य तो किले जीतने वाले का ही कहलाता है , "राज्य" के संदर्भ यहाँ उस  बौद्धिक विमर्श से है जिसमे हम हमेशा हारते आये हैं , पैदल की सेना रवीश कुमार पर गालियों की बौछार कर सकती है पर उसे हरा नहीं सकती रवीश कुमार को हराने के लिए रवीश कुमार जैसे ही चाहिए ,रवीश कुमार महान भाषायी छलावे बाज हो , प्रोपगेंडिस्ट हो , पर लोग उसे सुनते हैं , सुनना चाहते हैं , और यही हमारी कुंठा का भी कारण है की हम उसे वैचारिक रूप से परास्त क्यों नहीं कर पा रहे ? उसी कुंठा से गालियां पैदा होती हैं !! 

बहस को थोड़ा सा अलग मोडते हुए ,  रवीश कुमार और उनके सोशल मीडिया छोड़ने की बहस के और भी पहलु हैं जिन्हे यहाँ बताना जरूरी है , उदाहरणतः , 2011  की कोई बहस हाल ही में यूट्यब पर देख रहा था जिसमे विनोद दुआ नरेंद्र मोदी के लिए ये शब्द इस्तेमाल करते हैं की " दस साल से ये आदमी गुजरात की जनता को टोपी पहना रहा है" , उसी दौर की ऐसी ही किसी बहस का मुझे याद है जिसमे रवीश कुमार मोदी के लिए कहते हैं " मजमा लगाकर चूरन बेचने और देश के लिए जान देने में फर्क है " , अब आप मुझसे इसपर बहस मत कीजियेगा की ये वाक्य किसी राज्य के निर्वाचित मुख्यमंत्री के लिए  "अपशब्द" या गाली की श्रेणी में नहीं आते !! अब इन स्टूडियो मठाधीशों के अहंकार में खलल इसलिए पड़ गया की जो जनता इनके ऐसे कथन सुनकर घर के ड्राइंग रूम में गालियां देती थी वो अब टेक्नोलॉजी के माध्यम से इतनी सक्षम हो गयी है की आपकी फेसबुक वॉल पर आकर आपको गालियां दे सके  और उसी से आपके अहम को चोट पहुँच रही है !! खैर ,  रवीश कुमार को हराना है तो गाली गलौच नहीं बल्कि अपनी तरफ के  "रवीश कुमार" खड़े करने होंगे आइये ये समझते हैं की इस विचारधारा की लड़ाई में ऐसे प्रचारक क्यों जरूरी हैं !! 


प्रचारक रुपी किले क्यों जरूरी  ?
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आप में से कई बी पी सिंघल साहब को जानते होंगे , अब स्वर्गीय हैं , भगवान उनकी आत्मा को शांति दे , 2010 से 2012 -13 तक लगातार भाजपा , संघ की तरफ से सांस्कृतिक मुद्दों की पैरवी करने टीवी चैनलों पर आते थे , पैरवी क्या करते थे एक तरफा जीता जिताया मुद्दा हरवा कर आ जाते थे आप में से कोई आज भी उनकी बहसें देखेगा तो सोचेगा की ये वैचारिक आत्महत्या जैसा काम भाजपा इतने सालों तक कैसे करती रही कैसे इतनी आत्म मुग्ध बनी रही की जनता ऐसे प्रवक्ताओं के बारे में क्या सोच रही है उसे पता ही नहीं चला आपको बता दूँ सिंघल साहब यूपी के रिटायर्ड डायरेक्टर जनरल थे , मतलब उनकी वैचारिक क्षमता पर टिप्पणी शायद नहीं की जा सकती , तो फिर कमी कहाँ थी इसका व्यतिरेक (contrast ) समझना हो तो आज राकेश सिन्हा जी को सुनिए , कितनी बुद्धिमत्ता और अकाट्य ऐतिहासिक सन्दर्भों से समकालिक होते हुए अपनी बात को रखते हैं , शायद रवीश कुमार का असली "तोड़" गाली गलौच नहीं बल्कि राकेश सिन्हा जैसे हज़ारों प्रभावी विचारक / प्रचारक इस देश में पैदा करना है !! इसके एक दूसरे पर बड़े पहलु पर जाते हैं , इस देश में JNU जैसी कई संस्थाएं हैं जहाँ संपादकों , पत्रकारों और साहित्यकारों का सृजन होता है , यही सब "बुद्धिजीवी" मिलकर जनमानस का सृजन करते हैं ,  ऐसी संस्थाओं पर अपनी विचारधारा का प्रभुत्व कैसे हो इस पर भी सोचना होगा , क्योंकि ये प्रभुत्व ही आपके विचारों की छाप नीचले पायदानों तक ले जाने का काम करेगा !! 


प्रभावी प्रचारकों की कमी क्यों ?
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शीर्षक गलत है दरअसल , प्रभावी प्रचारकों की कमी नहीं बल्कि उन्हें मौके देने की कमी महसूस होती है , संघ जैसे अनुशासित संगठन में ऐसा होना प्राकृतिक सा लगता है , ऐसा होता है की "आधिकारिक लाइन" एक होती है और उसे भी व्यक्त करने वाले बहुत चुनिंदा लोग होते हैं इसलिए विचारों की उन्निस्सी बीसी संभव ही नहीं होती , सेना की तरह स्वयंसेवक "विचारवान" होते हुए भी उस लाइन से अलग नहीं जाते , और जब लगातार पालन करते हुए ये एक परम्परा बन गयी तो लाइन से अलग बोलने लिखने वालों को अनुशासनहीन माना जाने लगा और छिठक दिया गया, गोविंदाचार्य जैसे उदाहरण हमारे पास हैं !! तो होता ये है की जब शीर्ष स्तर पर विचारों का तरलीकरण (dilution) सम्भव नहीं होता तो नीचे की पैदल सेना तक भी वही बात निर्मित होती है जिसमे लीक से एक प्रतिशत हटकर बात करने की भी कोई गुंजाईश ही नहीं होती , और यहीं से शुरू होता है "राष्ट्रवाद" का एकाकीपन , अब ये तो सब ही मानते हैं की संघ ही भारत में राष्ट्रवाद का ध्वजवाहक या ब्रांड एम्बेसेडर है , इसीलिये राष्ट्रवाद के चिंतन में सबसे ज्यादा अपेक्षाएं भी संघ से ही होनी चाहिए , एक उदाहरण देता हूँ , किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर हमारा स्वर सबसे ऊंचा और प्रभावी तो होता है पर इकलौता होता है पर "सुर से सुर" मिलाने वाली ना प्रवृत्ति होती है ना ऐसे लोग हमारे साथ होते हैं  , वो आवश्यक वृंदगान (chorus ) नहीं बनता जिससे उस मुद्दे पर जनभावना और जनजागृती और तीव्र हो उठे !! जैसे वामपंथी और नेहरूवादी विचारकों का उदाहरण लेते हैं , इस्लामिक आतंकवाद या वोटबैंक की राजनीती के मुद्दे पर मौलवियों को या इस्लामिक बुद्धिजीवियों को अकेले अपनी पैरवी नहीं करनी पड़ती  , ये स्टूडियो में आस पास बैठे , अख़बारों में स्तम्भ लिखने वाले तथाकथित विचारक उस वृंदगान का निर्माण कर देते हैं जिससे उस मुद्दे के खिलाफ प्रभावी तरीके से लड़ा जा सके इधर हम अकेले थे और पूरे देश पर सत्तासीन होते हुए भी अकेले ही हैं !! तो ये वृंदगान कैसे बने , कैसे हमारे विचारों के करीब वाले लोग (दस बीस प्रतिशत इधर या उधर वाले या कहें उन्नीसे बीसे ) हम से जुड़ें और हमारे विचार को और मजबूत बनायें इसको हम नीचे समझेंगे , पर उससे पहले ये शंका दूर करना जरूरी है की सरकार बन जाना ही विचारधारा की जीत है क्या !!


क्या सरकार बन जाना ही विचारधारा की जीत है
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कई लोगों को ये भ्रान्ति है की सरकार में निर्वाचित होना उस विचारधारा का जनता द्वारा अनुमोदन है , ये उतना ही गलत है जितना ये सोचना की दिल्ली के लोगों ने केजरीवाल को इसलिए चुना क्योंकि उन्होंने भ्र्ष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी !! 2014 के लोकसभा चुनाव में दरअसल कांग्रेस हारी है और एक व्यक्ति जीता है जिसका नाम है नरेंद्र मोदी।  विचारधारा ने उस व्यक्ति के लिए संघर्ष किया होगा , कहीं कहीं उत्प्रेरक का काम भी किया होगा पर इसे  ब्रांड "हिंदुत्व" को  भारतीय जनमानस का अनुमोदन समझने की भूल ना करें , कहीं अंतर्मन में उसके लिए सहानुभूति और प्रेम हो पर अनुमोदन तो कतई नहीं है ,  यही घर वापसी जैसे मुद्दों पर जनता की प्रतिक्रिया के रूप में हम देख भी चुके हैं !! इसके उलट, इतिहास में केंद्र और राज्यों की भाजपा शासित सरकारों ने भी ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे ये लगे की वे इसे जनता का अनुमोदन मानकर काम कर रहे हैं , उन्होंने ठीक वैसे काम किया जैसे राजनीतिक दल सामान्यतः काम करते हैं , अंग्रेजी में कहें तो performative या symbolic aspect अलग (की हाँ हम भी इस विचारधारा के लिए कटिबद्ध हैं ) और कार्यशैली निरीह सामान्य , हाँ थोड़ी बहुत ईमानदारी वाला प्रशासन जरूर दिखता रहा है !! इस विषय पर भी जिम्मेदार लोग दो तरह की बातें करते हैं , एक तरफ तो कहते हैं की सरकार बन जाने  से विचारधारा जीती है और दूसरी और चुनाव के वक्त सुनाई पड़ता है की " हमारे लिए विधायक या सांसद सिर्फ एक हाथ है जो संसद में वोटिंग के समय बटन दबायेगा , इसलिए हम इसकी ज्यादा चिंता नहीं करते" , कहीं सुनाई पड़ता है की " राजनीती में जीतना किसी भी हाल में जरूरी है" और उसी तर्क पर कांग्रेस से आये दलबदलूओं को लगे हाथ सत्ता की चाबी दी जाती है , आश्चर्य नही की फिर यही "हाथ" जब स्मार्टफोन पकडे विधानसभा में पोर्न फिल्म देखते हैं तो बिचारी विचारधारा ओंधे मुह धड़ाम गिरती सी दिखती है !! इसलिए एक विचार पर सहमत होना जरूरी है , सरकार बनने से विचारधारा की जीत है या नहीं है ?

भाजपा ने विचारधारा को मजबूत करने के लिए क्या काम किया इसकी भी बात करेंगे पर पहले समझते हैं की हमारे विचार से निकटता रखने वालों को कैसे जोड़ा जाए !! (जो आपके ना होकर भी आपके मुद्दे पर सहमती का माहौल बनायें )


वृंदगान कैसे बने 
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मेरे पाठक ज्यादातर सोशल मीडिया से हैं , उन्हें राजीव मल्होत्रा जी का नाम बताने की ज़रुरत नहीं है , इस एक मनीषी ने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की जितनी सेवा है उसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं , पढ़े लिखे शहरी युवा या कहें बुद्धिजीवी वर्ग को एक मुख्यधारा (मुख्यधारा है मानवतावाद , धर्म निरपेक्षता ) से अलग विचार के लिए संतुष्ट करना बहुत टेढ़ी खीर होती है , मल्होत्रा जी ने ये जटिल काम एक बहुत बड़ी सफलता के साथ पूरा किया है !! एक बार किसी पत्रकार ने उनसे विश्व हिन्दू परिषद या संघ से जुड़ा कोई प्रश्न पूछा , उन्होंने सीधे कहा " उनसे जुड़े प्रश्न उनसे ही पूछिये " , इतना कहना समझने वालों के लिए काफी होगा की दूरियां किस कदर हैं , वृंदगान बनाना तो दूर की बात यहाँ लोग मौन स्वीकृति भी देना नहीं चाहते !! इसमें दोनों और के अहम को मैं दोष देना चाहूंगा , एक तरफ एक संगठन है जो सोचता है की हमारे विचार से उन्नीसे व्यक्ति से हमें कोई लेना देना नहीं , दूसरी और व्यक्ति हैं जिनका अपना "हठ" है , ये सब करीब आना तो दूर एक हॉल में एक साथ किसी मिलन समारोह में भी साथ नहीं बैठना चाहते !! पर ये बात याद रखी जानी चाहिए की वैचारिक लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती , खासकर तब जब आप को शत्रु के केम्प में कौन कौन है और किस किस भेस में बैठा है उसका भी ज्यादा भेद नहीं हो , आज पत्रकार , साहित्यकार , संपादक , यहाँ तक की फिल्म डाइरेक्टर और कलाकार तक भी किसी न किसी विचारधारा को आगे बढ़ाने एक "एजेंट" की भूमिका में है , सामान्य जनता ये न कभी समझी थी ना कभी समझेगी , इसलिए उन्हें लगातार बेनकाब करने के कुचक्र में फंसकर अपनी जगहंसाई और अपना समय और ऊर्जा बर्बाद करने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं !! बुद्धिमत्ता इसमें है की आप भी ऐसे प्रचारक विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित कीजिये जो समय समय पर अलग अलग मुद्दों पर तटस्थ आवाज़ के तौर पर आपके साथ वृंदगान कर सकें !! इसके तीन उदाहरण देता हूँ , राम सेतु के मुद्दे पर हम सब भावनात्मक बचाव करते रहे , जबकि पर्यावरणविदों का एक बहुत बड़ा समूह भी राम सेतु को बचाने के पक्ष में था , पर दिक्कत ये थी की ना वे हमारे साथ खड़े होना चाहते थे ना हम उनके साथ , इसलिए वृंद बनने की सारी संभावनाएं होते हुए भी नहीं बन पाया , सोचिये अगर पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्र में जुड़े और हमारे विचार के निकट लोगों को हमने जोड़ने की कोशिश की होती तो माहौल क्या और अच्छा नहीं बनता ? दूसरा उदाहरण , साध्वी प्रज्ञा को कैंसर है , हमारे सारे संगठनों को जैसे लकवा मारा हुआ है , कोई कुछ बोलता ही नहीं , इस डर में की लांछन उनपर भी ना लग जाए , क्या कुछ मानवाधिकार संगठनों में हमारी पैठ होती या पांच दस हमारे पैसे से खड़े हुए संगठन होते तो हमें भी बोलने की ज़रुरत नहीं पड़ती और काम ज्यादा प्रभावी ढंग से सध जाता !! तीसरा उदाहरण , समान नागरिक संहिता की बात हम करते हैं तो वो सांप्रदायिक रंग ले लेती है , क्यों ना ये आवाज़ लोकतान्त्रिक नागरिक अधिकारों की बात करने वाला कोई एनजीओ उठाये ? क्या फर्क नहीं पड़ेगा ? क्या असर ज्यादा नहीं होगा ?  सोचिये अगर ऐसा गैर राजनीतिक वृंदगान जनता में समान नागरिक संहिता के लिए लहर पैदा कर दे तो सरकार के लिए ये निर्णय लेना तो चुटकियों का काम हो जाये , पर सरकार भी किस किस्म की निठल्ली हैं इसको आगे समझते हैं , देखते हैं भाजपा की सरकारों ने आजतक विचारधारा के लिए  क्या किया -  


भाजपा का वैचारिक दामन 
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इस पूरी बहस में सबसे ज्यादा निराश भाजपा ने किया है , अगर आप किसी भाजपा शासित प्रदेश में रहते हैं और रोज़ अख़बार पढ़ते हैं तो आप देखते होंगे की मुख्यमंत्री के लिए हमेशा वहां के संपादकों और पत्रकारों की भाषा में एक नरम रुख रहेगा , कई बार तो उनका महिमामंडन और यश गान ही देखा जायेगा , पर हिंदुत्व , राष्ट्रवाद या फिर संघ के लिए वही जहर उगलू और प्रोपेगेंडा वाली भाषा रहेगी , समझने वाले समझ ही जाते हैं की पैसा कहाँ और किसके लिए लगा है  !! इसका थोड़ा थोड़ा असर तो अब दिल्ली के मीडिया हाउसों में भी देखने को मिल रहा है , जहाँ प्रधानमंत्री का यश गान तो हो रहा है पर राष्ट्रवाद का ? क्या पता !! विचारधारा की रीढ़ तो दूर की कौड़ी है , किसी ज़माने में जब इस दल के शीर्षस्थ नेताओं के मुख्य सलाहकार बृजेश मिश्र और सुधींद्र कुलकर्णी जैसे राष्ट्रवाद से नफरत करने वाले लोग हों तो सोचना पड़ेगा की सत्ता में आने के बाद ये वैचारिक नपुंसकता का कारण क्या होता होगा !! वैसे हमें ये भी समझना होगा की बिना विचारकों और प्रचारकों की रीढ़ तैयार किये , बिना उनके सृजन केन्द्रों (जो हमने पहले खडं में समझा ) पर प्रभुत्व स्थापित किये विचारधारा का गुणगान इन कॉर्पोरेट दलालों से करवाना लगभग असंभव ही है !! एक उदाहरण देता हूँ आपके राज में एक सरस्वती शिशु मंदिर का आचार्य अरबपति खनन कारोबारी बन गया , और ये तो सिर्फ एक उदाहरण है , ऐसे सेकड़ो व्यापारी , बिल्डर , उद्योगपति आपसे लाभान्वित होते हैं , क्या ऐसे धन्ना सेठ कोई अख़बार , कोई न्यूज़ चैनल खड़े नहीं कर सकते जिनका स्तर इन एनडीटीवी और टाइम्स नाउ से बेहतर हो और जो राष्ट्रवाद की अलख भी जगाये

इसका व्यतिरेक देखना हो तो पश्चिम बंगाल के अख़बार उठाइये , ममता बेनर्जी के सत्ता में आने के इतने साल बाद भी वहां के लेख और ख़बरों में वामपंथ की बू आती है , बंगाल की आधी आबादी बिना कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बने वामपंथ की तरह सोचती समझती और सांस लेती है , आप आज जो ये हिंदुत्व पर विष वमन करते मुख्यधारा के पत्रकार , संपादक , फिल्म निर्देशक देखते हैं उनका अतीत टटोलियेगा , कहीं न कहीं बंगाल उनके बायोडाटा में होगा ही ,इसे अंग्रेजी में कहते हैं "ब्रेनवाश" या डीएनए मेनिपुलेशन  !! 

ये कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी की भाजपा तो विचारकों और प्रचारकों की ऐसी रीढ़ बनाना ही नहीं चाहती क्योंकि ऐसा हो गया तो ये रीढ़ और ये वैचारिक प्रचारक किले उनके ऑडिटर या ombudsmen की तरह हो जायेंगे जो ये सुनिश्चित करेंगे की पार्टी या सरकार विचारधारा से भटके नहीं और कोई एक सत्तारूढ़ व्यक्ति जो चाहे मन मुताबिक शासन कर सके और वही "परम सत्य" कहलाने लगे !! आजकल तो संघ का मार्गदर्शन भी कईयों को नागवार गुज़रता है , तभी तो वे दिन रात हिंदुत्व को गरियाने वाले राजदीप सरदेसाई की पुस्तक का विमोचन करने बेझिझक पहुँच पाते हैं , तभी तो वादे "जुमले" हो जाते हैं , तभी तो गजेन्द्र चौहान जैसे Yes Man से अच्छा व्यक्ति पूरे फिल्म जगत में उन्हें कोई मिल ही नहीं पाता , तभी तो नेताजी की फाइलें खुल ही नहीं पाती , तभी तो संघ के हस्तक्षेप से पहले तक वन रेंक वन पेंशन के वादे को डकारने का मूड बन जाता है ,तभी तो तरुण विजय , शेषाद्री चारी , अरुण शौरी जैसे विचारवान लोग हाशिये पर चले जाते हैं , तभी तो !! 

अंत में
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हिंदुत्व कह लीजिये , राष्ट्रवाद कह लीजिये या भारतीयता कह लीजिये , इस विचार में अनंत संभावनाएं हैं , इस विचार में मानवता की सेवा की , विश्व कल्याण करने की अपार शक्ति है , आज के पाखंड से भरे मानवतावाद और सेक्युलरवाद धीरे धीरे फेल हो रहे हैं , लोग दूसरे विचारों की और देख रहे हैं , इसी के लिए आने वाले दिनों में समकालिक होते हुए , यूवा और आधुनिक सोच को आत्मसात किये हुए राष्ट्रवाद का प्रबल और प्रभावी प्रस्तुतीकरण करने वाले हज़ारों विचारक - प्रचारक हमें चाहिए होंगे, उनका बड़े पैमाने पर सृजन कैसे हो उसकी चिंता हमें करनी होगी , हम पहले से ही देरी से चल रहे हैं वृंद गान के लिए हज़ारों लोग सैकड़ों संगठनों से चाहिए होंगे जिनका हमारे संगठन से कोई सम्बन्ध न हो फिर भी वैचारिक रूप से हम और वे एक साथ खड़े दिखें , हम अकेले नहीं चल सकते , अगर चलते हैं तो ये हमारा अहंकार है ,  हम इस विचारधारा के ध्वजवाहक हैं , हमारे पीछे चल रहे लोग हमारे साथ वैचारिक तारतम्य में है की नहीं ये देखना भी हमारा कर्तव्य है !! जब तक ये नहीं होगा तब तक रिमोट चालित पैदल सेना ऐसे ही गाली गलौच से किले फतह करने की कोशिश करती रहेगी और चुनिंदा सत्तासीन अपने ड्राइंग रूम से इस नज़ारे के चटकारे उड़ाते रहेंगे !! लड़ाई बहुत भीषण है , लड़ाई सभ्यताओं की है , मोदी या राहुल या केजरीवाल की नहीं !! तैयार रहें !!

(बंगलौर निवासी भाई गौरव शर्मा द्वारा लिखित एक उम्दा लेख जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगा)