Thursday, June 18, 2015

हल्दी घाटी का युद्ध-18 जून 1576

18 जून 1576 
----हल्दी घाटी का युद्ध -----
***मेवाड़ की हल्दीघाटी में हिंदुत्व और स्वधर्म -स्वदेश के स्वाभिमान के तेज की रक्षा करने के लिए जिन्होंने मातृभूमि को अपना रक्त प्रदान किया था ,,उन समस्त बलिदानियों के चरणों में शत शत नमन ---भावभीनी श्रद्धांजली !!!!!***********
437 वर्ष पूर्व ,आज ही के दिन विश्व साक्षी बना था, हल्दी घाटी के भयंकर युद्ध का .....एक और थे देश और धर्म के सम्मान के लिए सर्वस्व लुटाने वाले "" हिन्दू स्वाभिमान के प्रचंड मार्तंड -महाराणा प्रताप """और उनका साथ दे रहे थे वनवासी भील ..झाला - मन्ना जैसे आत्म बलिदानी और ...घोड़ा होकर भी ..मनुष्यों को स्वामिभक्ति का पाठ पढ़ाने वाला चेतक ......दूसरी और थे बड़े बड़े राज्यों के तथा कथित --राजा -महाराजा राजपूत ,,जिन्होंने अपने राज्य की गुलाबी चमक बनाये रखने के लिए अपने घर की बेटियों और बहनों के डोले अकबर के हरम में भेज कर स्वाभिमान और इज्जत को त्याग दिया था ....ये धर्म द्रोही और गद्दार अपनी सेना के साथ ,,इस्लामी दरिन्दे ..अय्याश और व्याभिचारी अकबर को विजय दिलाने के लिए लड़ने आये थे .......इनके साथ थे लाखों सैनिक ...बड़े तोपखाने और बन्दूखें ...दूसरी और था महाराणा प्रताप का सूर्य के तेज को लजाता भाला और भीलों के साधारण धनुष बाण ................. 

बलिदान भूमि


हल्दीघाटी राजपूताने की वह पावन बलिदान भूमि है, जिसके शौर्य एवं तेज़ की भव्य गाथा से इतिहास के पृष्ठ रंगे हैं। भीलों का अपने देश और नरेश के लिये वह अमर बलिदान, राजपूत वीरों की वह तेजस्विता और महाराणा का वह लोकोत्तर पराक्रम इतिहास में प्रसिद्ध है। यह सभी तथ्य वीरकाव्य के परम उपजीव्य है। मेवाड़के उष्ण रक्त ने श्रावण संवत 1633 वि. में हल्दीघाटी का कण-कण लाल कर दिया। अपार शत्रु सेना के सम्मुख थोड़े-से राजपूत और भील सैनिक कब तक टिकते? महाराणा को पीछे हटना पड़ा और उनका प्रिय अश्व चेतक, उसने उन्हें निरापद पहुँचाने में इतना श्रम किया कि अन्त में वह सदा के लिये अपने स्वामी के चरणों में गिर पड़ा।
उदयसिंह वर्ष 1541 ई. में मेवाड़ के राणा हुए थे, जब कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानीचित्तौड़ पर चढ़ाई की। मुग़ल सेना ने आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया था, लेकिन राणा उदयसिंह ने अकबर अधीनता स्वीकार नहीं की। हज़ारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब उन्हें लगा कि चित्तौड़गढ़ अब नहीं बचेगा, तब उदयसिंह ने चित्तौड़ को 'जयमल' और 'पत्ता' आदि वीरों के हाथ में छोड़ दिया और स्व्यं अरावली के घने जंगलों में चले गए। वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक 'उदयसागर' नामक सरोवर का निर्माण किया था। वहीं उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई। चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद ही उदयसिंह का देहांत हो गया। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी युद्ध जारी रखा और मुग़ल अधीनता स्वीकार नहीं की।

युद्धभूमि पर महाराणा प्रताप के चेतक (घोड़े) की मौत
युद्ध

'हल्दीघाटी का युद्ध' भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी।अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए 18 जून, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़लसेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के मध्य युद्ध हुआ। हल्दीघाटी का युद्ध अनिर्णीत रहा था और नैतिक विजय महाराणा की इसलिए मानी जाती है क्योंकि अपनी सदा स्मरणीय वीरता, युद्ध कौशल और समर् नीति के बल पर उनके थोड़ी सेना ने एक बहुत बड़ी सेना को छका दिया था । यदि स्वयं अकबर के आने की अफवाह न उड़ाई जाती तो मुग़ल सेना के पैर तो युद्धक्षेत्र से दोपहर बाद ही उखड चुके थे । इस युद्ध के बाद अकबर का महाराणा से सामना करने का कभी साहस नहीं हुआ । वास्तव में हल्दीघाटी के अनिर्णीत युद्ध ने भी राजपुताना में हिंदुत्व को सदा के लिए बचा लिया ।खुला युद्ध समाप्त हो गया था, किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए प्रताप एवं उसकी सेना युद्ध स्थल से हट कर पहाड़ी प्रदेश में आ गयी थी। मुग़लों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति अधिक थी।

राजपूतों की वीरता

युद्ध में 'सलीम' (बाद में जहाँगीर) पर राणा प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे। प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था। इसलिए मुग़ल सैनिक उसी को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। राजपूत सैनिक भी राणा को बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसते ही चले जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को परखकर झाला सरदार मन्नाजीने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों की बाजी लगा दी।

मन्नाजी का बलिदान

मान सिंह पर हमला करते हुए महाराणा प्रताप औरचेतक
झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और उसने राणा प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया। वह तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े। राणा प्रताप जो कि इस समय तक बहुत बुरी तरह घायल हो चुके थे, उन्हें युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उनका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्ध भूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा।

इस प्रकार हल्दीघाटी के इस भयंकर युद्ध में बड़ी सादड़ी के जुझारू झाला सरदार मान या मन्नाजी ने राणा की पाग (पगड़ी) लेकर उनका शीश बचाया। राणा अपने बहादुर सरदार का जुझारूपन कभी नहीं भूल सके। इसी युद्ध में राणा का प्राणप्रिय घोड़ा चेतक अपने स्वामी की रक्षा करते हुए शहीद हो गया

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