Wednesday, June 17, 2015

भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई

वह वर्षा ऋतु के पश्चात की वह एक सायंकाल थी। कानपुर के समीप स्थित छोटे से गाँव बिठूर के बाहर गंगा नदी के किनारे-किनारे सड़क पर तीन घुड़सवार तेजी से जा रहे थे। दो घोड़ों पर दो नवयुवक सवार थे और तीसरे पर थी एक बालिका। जब एक नवयुवक ने अपना घोडा आगे बढ़ा लिया तो उस बालिका ने भी अपने घोड़े की रफ्तार और तेज कर दी और वह आगे बढ़ गई। वह नवयुवक भी इस पराजय को स्वीकार करने वाला नहीं था और उसने फिर से उस बालिका से आगे बढ़ने का प्रयास किया, किन्तु उसका घोडा ठोकर खाकर गिर पड़ा और साथ साथ गिर पड़ा वह नवयुवक भी।

ओ मनु, मैं मर गया", बालिका ने जब यह आवाज सुनी तो उसने अपना घोडा मोड़ा। नवयुवक को चोट आ गई थी और उसके शरीर से खून बह रहा था। बड़ी कठिनाई के साथ उसने उसे उठाया और अपने घोड़े पर बैठाया। इस समय तक दूसरा घुड़सवार भी वहाँ पहुँच चुका था और तीनों महल की ओर लौट पड़े। उधर उस नवयुवक के घोड़े को बिना सवार लौटा देख, पेशवा बाजीराव द्वितीय बहुत परेशान हो गए। उनके साथी मोरोपंत ने उन्हें समझाने का प्रयास किया किन्तु उनकी बेचैनी कायम रही। जब वे तीनों बच्चे लौट आए तब कहीं जाकर उन्होने राहत की सांस ली। वह घायल नवयुवक था बाजीराव का गोद लिया हुआ पुत्र नानासाहेब, उसका साथी था उसका छोटा भाई रावसाहेब और वह बालिका थी, पेशवा के सलाहकारमण्डल के एक सदस्य मोरोपंत की इकलौती पुत्री मनुबाई।

जब वे घर लौटे तो मोरोपंत ने कहा- मनु, नाना गंभीर रूप से घायल हो गए हैं?”
नहीं पिताजी, उन्हें तो मामूली चोट आई है। महाभारत में अभिमन्यु तो जब गंभीर रूप से घायल हो गया था, तब भी लड़ता रहा था।
बेटा, वह जमाना अलग ही था, ”मोरोपंत ने कहा।
फर्क क्या है, पिताजी? वही नीला आकाश है, वही पृथ्वी है। सूर्य और चन्द्र भी तो वही है?”
परंतु मनु देश का भाग्य बदल गया है। यह ब्रिटिश युग है और हम उनके समक्ष शक्तिहीन हैं।
पिता की बात पुत्री को जरा सी भी नही भायी क्योंकि पिता ने तो स्वयं ही सती, सीता, माता जीजाबाई, वीरांगना ताराबाई की जीवनी के आदर्श उसके सामने रखे थे। मोरोपंत को क्या पता था कि एक दिन उनकी पुत्री भी वीरता और स्वाभिमान के पर्यायवाची के रूप में समस्त विश्व में जानी जाएगी।

उसी बिठूर में एक और घटना घटी। एक दिन नाना साहेब और रावसाहेब हाथी पर सवारी कर रहे थे। बाजीराव मनु को उनके साथ भेजना चाहते थे और मनु की भी यही इच्छा थी, किन्तु उसकी इच्छा पूरी नही हुई। नाना साहेब ने महावत से आगे बढ़ने के लिए कहा, जिससे मनु निराश हो गई। जब वे घर वापिस आए तो पिता ने पुत्री से कहा, “मनु, हमें समय के साथ चलना चाहिए। क्या हम राजा हैं जो हाथी पर चलें? हमें ऐसी इच्छा नहीं करनी चाहिए जो हमारे भाग्य में नहीं।
मनु ने उत्तर दिया पिताजी, मेरे भाग्य में एक नहीं अनेक हाथी हैं।
ऐसा ही हो बेटी”, मोरोपंत ने गदगद हो कहा।
पिताजी, मैं अब राइफल से गोली चलाने का भी अभ्यास करूँगी”, यह कहते हुए वह चली गई।
मोरोपंत यह देखकर बहुत परेशान थे कि मनु में पुरुषोचित गुण हैं। वो कहाँ जानते थे कि मनु के यही गुण उसे एक दिन वीरांगनाओं का सिरमौर बना देंगे और लोग अपनी पुत्रियों को उनकी पुत्री की तरह बनने की प्रेरणा देंगे।

सच में बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की ऐसी अमिट गाथाएं लिखीं कि जब तक ये दुनिया है, उनका नाम मिटाया ना जा सकेगा। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं और उन्होंने भी घर से निकलकर साहस के साथ युद्ध-भूमि में शत्रुओं से लोहा लेकर भारत के खड्ग की मार से उन्हें परिचित करवाया। उन्हीं में से एक का नाम है--वीरांगनाओं में अग्रणी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, जिनके बचपन से जुडी दो घटनाओं का उल्लेख ऊपर किया गया है।

भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ में आदर्श वीरांगना थीं। सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है और प्रलोभन उसे कर्तव्य पालन से विमुख नहीं कर सकते। उसका लक्ष्य उदार और उच्च होता है और चरित्र अनुकरणीय। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। ये सभी गुण रानी लक्ष्मीबाई में कूट कूट कर भरे थे और यही कारण है कि उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को भी गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म बाजीराव पेशवा के बंधु चिमाजी अप्पा के व्यवस्थापक मोरोपंत तांबे तथा भागीरथी बाई के घर कार्तिक कृष्ण 14 शके 1757, अंग्रेजी कालगणनानुसार 19 नवंबर 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट में हुआ था। मोरोपंत ने अपनी इस अत्यंत सुन्दर तथा कुशाग्रबुद्धि पुत्री का नाम रखा--मणिकर्णिका, जिसे प्यार से सभी लोग मनु पुकारने लगे। मोरोपंत जी सतारा जिले के वाई गाँव में चिमाजी आप्पा के यहाँ नौकरी करते थे। सन् 1818 में अंग्रेजों के पूना कब्जे के पश्चात् बाजीराव पेशवा बिठूर-कानपुर आ गये। चिमाजी आप्पा के देहान्त के पश्चात् मोरोपंत भी बाजीराव पेशवा के यहाँ बिठूर आ गये क्योंकि मनु के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहती थी।

जब मनु 3-4 वर्ष की थी तभी उनकी मां का निधन हो गया| चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इस कारण मोरोपंत उसे अपने साथ पेशवा के दरबार में ले जाने लगे। चंचल एवं सुन्दर मनु ने दरबार में सबका मन मोह लिया और पेशवा बाजीराव भी इस कन्या से अत्यंत प्रभावित हुए और उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे। उन्होंने मनु को अपने आश्रय में लेकर अपने पुत्रों के साथ ही इस कन्या के भी शस्त्रों और शास्त्रों की शिक्षा का प्रबंध कर दिया। ब्रह्मावर्त की हवेली में पेशवा के दत्तक पुत्र नानासाहेब अपने बंधु रावसाहेब के साथ तलवार, दंडपट्टा तथा बंदूक चलाना, घुडदौड आदि का शिक्षण लेते थे। उनके साथ रहकर मनुताई ने भी युद्धकला का शिक्षण लेकर उसके दांवपेंच सीख लिए । अक्षर- ज्ञान तथा लेखन-वाचन भी मनु ने साथ-साथ ही सीख लिया।

पेशवा की कृपादृष्टि के चलते सन 1842 में मनु का विवाह झांसी रियासत के अधिपति गंगाधरराव नेवाळकर के साथ धूम-धाम से हुआ, जिनके पूर्वजों को झाँसी का राज्य महाराजा छत्रसाल से उपहार रूप में प्राप्त हुआ था। मोरोपंत तांबे की मनु विवाह के उपरांत झांसी की रानी के नाम से पुकारी जाने लगीं और चूँकि उनकी शादी के बाद झांसी की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित सुधार हुआ, इसलिए विवाह के उपरांत उनका नाम रखा गया--'लक्ष्मीबाई'| रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। वीरोचित गुणों वाली रानी को यह रास नहीं आया। अश्वारोहण और शस्त्र-संधान में निपुण रानी ने झांसी किले के अंदर ही महिला-सेना खड़ी कर ली थी, जिसका संचालन वह स्वयं मर्दानी पोशाक पहनकर करती थीं। उन्होंने किले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से अतीव प्रसन्न थे।

वह युग 19वीं शताब्दी की शुरुवात थी। अंग्रेजों ने, जो भारत में व्यापार करने आए थे, ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम पर तेजी से राजनैतिक सत्ता हथियाना प्रारम्भ कर दिया था। भारतीय राजाओं और महाराजाओं ने, जो कि परस्पर झगड़ों में उलझे हुए थे, अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बनने में एकदूसरे से होड़ लगी थी। भारत की दृष्टि से हो रही प्रत्येक दुर्भाग्यपूर्ण घटना उस समय ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में सहायक हो रही थी।


जिस झांसी की रानी बनकर मनु लक्ष्मीबाई के रूप में गयीं थी, उस झाँसी के किसी पूर्व राजा और अंग्रेजों के बीच जो संधि हुई थी, उसकी दो शर्तें थी--प्रथम, यह कि जब कभी अंग्रेजों को सहायता की आवश्यकता होगी, झाँसी उसकी सहायता करेगा और दूसरी, यह कि झाँसी का शासक कौन हो, यह निश्चित करने के लिए अंग्रेजों की स्वीकृति आवश्यक है। इस प्रकार झाँसी की पूर्ण बरबादी के बीज पहले ही बो दिए गए थे। सन 1838 में अंग्रेजों ने गंगाधरराव को झाँसी का राजा नियुक्त किया। भूतपूर्व राजा रघुनाथराव के काल में राजकोष खाली हो चुका था, प्रशासन नांम का कोई तंत्र रहा ही नहीं था और जनता के दुःख दर्द को पूछने वाला कोई नहीं था। गंगाधरराव ने बागडोर संभालते ही राज्यशासन को सुस्थिर किया। महल में अब गोधन, हाथी और घोड़े अच्छी संख्या में आ गए। शस्त्रागार में शस्त्रों तथा गोला बारूद का विपुल भंडार हो गया। सेना में 5 हजार सैनिकों की थल सेना और 500 घुड़सवार थे, साथ ही तोपखाना भी था। किन्तु राज्य में ब्रिटिश सेना भी मौजूद थी, जिस पर राज्य के खजाने से 22 लाख 7 हजार रुपए खर्च किए जाते थे।

सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। गद्दी का उत्तराधिकारी मिल गया, ये सोच गंगाधरराव अति प्रसन्न हुए। किन्तु भाग्य क्रूर था और जब वह मात्र तीन महीने का था, काल ने उसे छीन लिया तथा रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधरराव को पुत्र वियोग का अपार दु:ख सहन करना पडा । झाँसी शोक के सागर में डूब गई और पुत्र वियोग का दुःख सहन न होने के कारण, शोकाकुल राजा गंगाधर राव भी बीमार रहने लगे एवं मृतप्राय हो गये। दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। गंगाधरराव की इच्छानुसार गद्दी के उत्तराधिकारी के रूप में नेवाळकर राजवंश के वासुदेव नेवाळकर के पुत्र आनंदराव को पूर्ण विधि विधान से दत्तक लेकर उसका नाम दामोदरराव' रखा गया ।

समारोह समाप्त होने के पश्चात गंगाधरराव ने कंपनी को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने इस दत्तक-विधान के संबध में पूर्ण ब्यौरा देते हुए कंपनी से अनुरोध किया कि गोद लिये हुए बालक को उनके उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी जाय। उन्होंने सुझाव दिया कि दामोदरराव के वयस्क होने तक रानी लक्ष्मीबाई को उसके प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी जाये। महाराजा ने कंपनी तथा झाँसी के बीच मैत्री पूर्ण सम्बन्धों का कंपनी को स्मरण दिलाया। महाराजा ने झाँसी में कंपनी के पोलेटिकल एजेंट मेजर एलिस को पत्र सौंप उसे लार्ड डलहौजी के पास पहुँचाने का अनुरोध किया। गंगाधरराव ने मेजर से कहा था--मेजर साहेब, मेरी रानी एक महिला है किन्तु उसमें ऐसे अनेक गुण हैं जो कि विश्व के श्रेष्ठतम पुरुषों में होने चाहिए।जब वे बोल रहे थे, तब अंजाने में ही उनके नेत्रों में आँसू भर आये थे। उन्होने कहा, “मेजर साहेब, कृपा कर यह ध्यान रखिये कि झाँसी किसी भी हालत में अनाथ न होने पावे।

कुछ दिनों के उपरांत 21 नवंबर 1853 की दोपहर गंगाधरराव मृत्यु को प्राप्त हो गए। पति के निधन के कारण आयु के मात्र 18वें वर्ष में ही रानी लक्ष्मीबाई विधवा हो गई और उन पर शोक का पहाड़ टूट पड़ा। एक अनुभवशून्य हिन्दू महिला- वह भी युवती और विधवा, अनेक रीति- रिवाजों से बँधी। इसके अतिरिक्त उस पर एक राज्य का उत्तरदायित्त्व जिसे कोई संरक्षण प्राप्त नहीं था। एक ओर डलहौजी राज्य को हड़पने की प्रतीक्षा में था, तो दूसरी ओर लक्ष्मीबाई के हाथों में नन्हा शिशु दामोदरराव - यह थी लक्ष्मीबाई की दीन अवस्था। उनकी समस्याएँ और दुख असीमित थे और इनसे उन्हें अकेले ही जूझना था। यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं और उन्होंने विवेक नहीं खोया। महाराजा के प्रतिनिधित्व के लिए लक्ष्मीबाई ने अनेक याचिकाएँ डलहौजी को भेजी।

पर अंग्रेज तो मानो इसी दिन की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। 3 माह बीत गए, किन्तु कोई उत्तर नहीं आया। 27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने डाक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स की अपनी कुख्यात नीति के अंतर्गत दत्तक पुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंगरेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। पोलिटिकल एजेंट मेजर एलिस ने रानी को जो पत्र सौंपा, उसमें लिखा था कि उत्तराधिकारी को गोद लेने के स्वर्गीय महाराजा गंगाधरराव के अधिकार को कंपनी मान्यता नहीं देती। अत: झाँसी को ब्रिटिश प्रान्तों में विलीन करने का निश्चय किया गया है। रानी को किला खाली कर देना चाहिये और नगर में स्थित महल में रहना चाहिये। उसे ५ हजार रुपये मासिक पेंशन दी जाएगी। पहले तो रानी इस पर विश्वास नहीं कर सकी। कुछ समय तक वह स्तंभित सी रही और फिर उनके मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया: नहीं असंभव ! मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।रानी ने ब्रितानी वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया।

7 मार्च 1857 को शासन व्यवस्था के लिए अंग्रेज प्रतिनिधि एलिस को नियुक्त करके झाँसी को अंग्रेजी हुकूमत में शामिल कर लिया। अपमानित करते हुए वायसराय डलहौजी ने रानी लक्ष्मीबाई से किला खाली करवा लिया और 5000 रू मासिक पेंशन बहाल कर दी। रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राजमहल में निवास करने लगीं। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया। रानी को पारम्परिक केशवपन संस्कार के लिए काशी जाने की इजाजत नही दी गई। दामोदर राव के यज्ञोपवीत संस्कार के लिए जमा दस लाख रूपयों में से बडी मुश्किल से एक लाख रूपये एक व्यापारी की जमानत से मिले। रानी समझ गयीं थीं कि ब्रिटिश शक्ति और उसकी चालाकी का विरोध करना झाँसी जैसे छोटे राज्य के लिए कितना कठिन है और इसलिए तुरंत कोई कदम ना उठाकर वह उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगीं और यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ।

अंगरेजों की राज्य लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजे-महाराजे असंतुष्ट हो गए और सभी में विद्रोह की आग भभक उठी। वे सभी राजा जो पुत्र न होने के कारण अपने राज्य खो चुके थे, उनके परिवार के सदस्य, उनके आश्रित, उनकी समाप्त कर दी गयी सेना के सैनिक, शुभचिंतक भी असंतोष से उबल रहे थे। ब्रिटिश सेना में भी हिन्दू और मुस्लिमों सैनिकों में इस बात को लेकर रोष था कि उन्हें गाय एवं सूअर की चर्बी मिश्रित गोलियों का उपयोग करने के लिए बाध्य किया जाता है। रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्णावसर माना और क्रांति की ज्वालाओं को अधिक सुलगाया तथा अंगरेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई। नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे। तात्या टोपे, रघुनाथ सिंह, जवाहर सिंह और इसी प्रकार के अन्य स्वतन्त्रताप्रेमी गुप्त रूप से रानी लक्ष्मी बाई से मिलने आते और अपने और जनता के असंतोष का ब्योरा रानी को देते। कोई भी कदम उठाने से पहले रानी लक्ष्मी बाई ने अपने राज्य की भौगोलिक स्थिति, सामरिक महत्त्व के क्षेत्रों तथा ब्रिटिशों के साथ लड़ाई में पंजाब में सिख सेना के गठन का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया।

सभी प्रमुख व्यक्तियों के मध्य विचार विमर्श के बाद यह निश्चय किया गया कि सम्पूर्ण देश में जनता, रविवार 31 मई 1957 को विद्रोह करे, किन्तु बैरकपुर में निर्धारित दिन के पूर्व ही उपद्रव भड़क उठा। 10 मई को मेरठ में विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी और भारतीय सिपाहियों ने वहां कब्जा कर दिल्ली की तरफ कूच कर दिया। ये सेना दिल्ली में जाकर वहां तैनात भारतीय सेना से मिल गई और उसने दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। यह घटना पूरे भारत में आग की तरह फैल गई और सम्पूर्ण उत्तर-भारत में मई माह में ही क्रान्ति की लपटें अंग्रेजों को दहलाने लगी।

इसका प्रभाव झाँसी पर भी पड़ना ही पड़ना था और वही हुया भी। एक हवलदार ने कुछ सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा नवनिर्मित स्टार फोर्ट में प्रवेश किया और वहाँ रखी युद्ध सामग्री और राशि हथिया ली। झांसी में अंग्रेज अफसरों के बंग्ले जला दिये गये। ब्रिटिश अधिकारी सहायता के लिए रानी से अनुरोध करने आए और अपने स्त्रियों व बच्चों को रानी के पास महल में शरण हेतु ले कर आ गये। धन्य है-वो वीरांगना,जिसने अंग्रेजों द्वारा पीड़ित होने के बावजूद राजधर्म व मानवता धर्म का त्याग नहीं किया और उनकी सहायता की। बाद में ब्रिटिश महिलाओं और बच्चों को किले में स्थानांतरित करने की व्यवस्थाएँ की गई और वहाँ भी भूख-प्यास से तड़पते परिवारों के लिए रानी ने भोजन भिजवाया।

ऐसी विकट परिस्थिति में राज्य के सभी प्रमुख व्यक्तियों ने रानी से राज्य की बागडोर पुनः संभालने के लिए एक स्वर से अनुरोध किया। रानी ने इसकी स्वीकृति दे दी और एक बार फिर किले पर राज्य का ध्वज फहरा उठा। रानी ने अराजकता दूर करने के लिए तुरंत कार्यवाही की और धैर्य, साहस और संकल्प को संजोकर न्यायपूर्वक राज्य को चलाना प्रारम्भ किया। सैन्य संगठन को फिर से सुदृढ़ किया और झाँसी दिन-रात युद्ध की तैयारी में जुट गई। धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी चहल पहल प्रारम्भ हो गई। रानी की सेना में दस हजार बुंदेले, अफगान और असंतुष्ट अंग्रेज थे। चार सौ घुड़सवारों से सुसज्जित सेना के सेनापति जवाहरसिंह बुन्देला तथा दुर्गा दल नामक स्त्री सैन्य दल की प्रमुख वीरांगना झलकारी बाई थीं। गोलंदाज गुलाम गौस के निर्देशन में तोपखाना था,जिसमें महिलाओं को भी तोप चलाने का विशेष प्रशिक्षण दिया गया था। रानी ने अपनी कुछ तोपों के नाम रखे थे गर्जना , “भवानीशंकरऔर चमकती बिजली। ये तोपें महिलाओं एवं पुरुषों द्वारा बारी-बारी से दागी जाती थी। वाणपुर के राजा मर्दन सिंह और शाहगढ़ के बख्त अली ने रानी को पर्याप्त सहायता दी।

रानी द्वारा झांसी की बागडोर पुनः संभालने के लगभग दस माह बाद अंग्रेज सेनापति ह्यरोज और बिटलाक ने अंग्रेजी फौज लेकर रायगढ़, चंदेरी, सागर, वाणपुर आदि को जीतते हुए 23 मार्च 1858 को झांसी किले को घेर लिया। 10-12 दिनों में ही झासी का छोटा-सा राज्य विजय के प्रकाश और पराजय की छाया में डोलता रहा। एक सफलता पर जहाँ राहत मिलती थीं वहीं दूसरे क्षण पराजय का आघात लगता था। अनेक वफादार सरदार धाराशायी हो गए। दुर्भाग्य से बाहर से कोई सहायता नहीं मिली। तात्या टोपे कालपी से रानी की सहायता के लिए निकले भी परन्तु अंग्रेजों को रानी के गद्दारों से इसकी भनक मिल गई एवं अंग्रेजों ने रास्ते में तात्या टोपे की सेना पर आक्रमण कर दिया। झांसी किले के चारों प्रवेश दार पर कुशल तोपचियों की तैनाती थी, जिस कारण अंग्रेजी सेना किले के आस पास भी नहीं पहुँच पा रही थी। अंग्रेज सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से किला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और ओरछा प्रवेश दार पर नियुक्त एक विश्वासघाती सरदार दुल्हाजू को पीरबख्श के हाथों रिश्वत देकर,गद्दारी के लिए तैयार कर लिया और उसने अपना प्रवेशद्वार खोल दिया। फिरंगी सेना किले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया।

अपने सैनिकों के मनोबल को बढाने अब रानी ने स्वय शस्त्र उठाया। उसने पुरुषों के वस्त्र पहिने और वह युद्ध की देवी के समान लड़ी। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रुप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। । उसकी सेनाओं के संगठन और पुरुष के समान उसकी लड़ाई ने अंग्रेजों के सर्वश्रेष्ठ सेनापतियों में गिने जाने वाले हयूरोज को भी चकित कर दिया। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेजों की तुलना में छोटी थी और स्थिति नियंत्रण के बाहर होती जा रही थी। ऐसे में रानी के सभी सहयोगी इस बात पर एकमत थे कि कुछ योद्धाओं के साथ रानी झाँसी से निकल जाएँ और अन्य शासकों से सहायता प्राप्त कर एक सेना का गठन कर पुनः हमला करें।

उन्नाव प्रवेश द्वार पर रानी की प्रिय सहेली तथा दुर्गा दल की प्रमुख झलकारी बाई का पति पूरण सिंह तैनात था। अंग्रेजों ने किले में प्रवेश करते ही उसे मौत के घाट उतार दिया पर वाह रे भारत की नारी! पति की मृत्यु का शोक करने के बजाए वीरांगना झलकारीबाई ने रानी को सकुशल किले से बाहर निकालने के लिए कूटनीतिक चाल चली। उसने रानी लक्ष्मी बाई को दामोदर राव के साथ साधारण वेष में बाहर निकाला तथा स्वयं रानी का रूप धारण कर साक्षात चण्डी का अवतार बन गई। झलकारी बाई और रानी की एक अन्य परमभक्त मुन्दर ने अब अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया था--अंग्रेजों को अधिकतम समय तक स्वयं में उलझाये रखना, जिससे रानी सकुशल कालपी पहुँच जायें। पर एक बार फिर दुल्हाजू ने गद्दारी की और उसने अंग्रेजों को हकीकत बता दी।

अपने विश्वसनीय चार-पांच घुड़सवारों को लेकर रानी कालपी की ओर बढ़ीं पर वास्तविकता पता लगते ही अंग्रेजों ने उनका पीछा करना प्रारम्भ कर दिया। बोकर नामक एक ब्रिटिश अधिकारी एक सैनिक टुकड़ी के साथ रानी के पीछे पीछे चला और दुर्भाग्य से उसकी चलायी एक गोली रानी के पैर में लगी जिससे रानी घायल हो गयीं। पर लड़ाई में वह स्वयं भी घायल हो गया था और पीछे हट गया। रानी के कालपी पहुँचने पर राव साहब पेशवा और तात्या टोपे ने उनका स्वागत किया। कालपी में भी रानी सेना जुटाने में लगी थी पर हयूरोज ने कालपी की भी घेराबँदी कर दी। जब पराजय निश्चित दिखाई दी तब रानी ने कहा, "हम जहाँ तक किले के अंदर रहे हैं, हमने अंग्रेजो का सामना अच्छे से किया है। अगर हमें लड़ाई जारी रखनी है तो किसी किले की अपना ठिकाना बनाना पड़ेगा और इस समय सबसे उपयुक्त ग्वालियर का किला है जो समीप है। यह सत्य है कि वहाँ के राजा का झुकाव अंग्रेजो की ओर है, परंतु मैं जानती हूँ कि सेना और जनता अंग्रेजों के विरुद्ध है। इसके अलावा, वहाँ बँदूकों और गोला बारूदों का भारी भंडार है।रानी का सुझाव स्वीकार हुआ और जब तात्या एक छोंटी सेना के साथ ग्वालियर पहुँचे तो वहाँ की अधिकांश सेना उनके साथ हो गई। ग्वालियर का राजा भाग खड़ा हुआ और उसने आगरा जाकर अंग्रेज़ो से संरक्षण माँगा।

जनता व सेना ने राव साहब पेशवा का राजतिलक किया पर रानी और उसके मित्रों को छोड़, अन्य सरदार आनंद में मग्न हो गए। रानी की सामयिक चेतावनी हवा में उड़ गई। रानी ने, जोकि आनंदोत्सव से दूर थी, युद्ध की तैयारी में आस पास के ठिकानों का भ्रमण करने लगी किन्तु अन्य सरदारों ने इस महिला की सलाह पर ध्यान नहीं दिया। नतीजा वही हुआ, जो होना था क्योंकि हयूरोज प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं था और लड़ाई पुन: आरंभ हुई। रानी ने पुरुषों के वस्त्र पहने और युद्ध के लिए तैयार हो गई। यद्यपि रानी की सेना संख्या में कम थी, तथापि सरदारों का असाधारण साहस, युद्ध की व्यूह रचना और रानी के पराक्रम ने ब्रिटिश सेना को परास्त किया। इस दिन की विजय रानी के कारण ही हुई। पर इसके बाद 17 जून 1858 का वो दिन भी आ गया जिस दिन विधाता ने रानी लक्ष्मी बाई के बलिदान की तिथि तय कर रखी थी। रानी लक्ष्मीबाई ने रामचंद्र राव देशमुख को बुलाया और कहा: आज युद्ध का अंतिम दिन दिखाई देता है। यदि मेरे मृत्यु हो जावे तो मेरे पुत्र दामोदर के जीवन को मेरे जीवन से अधिक मूल्यवान समझा जावे और इसकी देखभाल की जावे।एक और संदेश यह था: यदि मेरी मृत्यु हो तो इस बात का ध्यान रहे कि मेरा शव इन फिरंगियों के हाथों न पड़े।

हयूरोज की सेना बहुत अधिक थी, जिसके सामने क्रांतिकारियों की एक बड़ी सेना धराशायी हो गई और उनकी तोपें ब्रिटिश के हाथों में चली गई। ब्रिटिश सेना बाढ़ के समान किले में प्रविष्ट हो गई। काशी और सुन्दर नाम की विश्वस्त सहेलियों के साथ रानी चारों तरफ से अंग्रेजों से घिर गई थी और उनके समक्ष अब भागने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। घोड़े की लगाम अपने दांतों में दबाए हुए और दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई रानी आगे बढ़ी। रानी की तलवार बाजी से हार कर अंग्रेजों ने तोपों का मुंह खोल दिया, जिसका परिणाम ये हुआ कि रानी के सैनिक मारे गये और उनके उस प्रिय घोड़े की भी एक टांग टूट गई, जिसने उन्हें बहुत बार कठिन परिस्थितियों से उबारा था। रानी दूसरे घोड़े पर सवार होकर दोनो हाथों से तलवार चलाती हुई, मुंह में घोड़े की रस्सी दबाये अंग्रेजों को चीरते हुए निकलने में कामयाब हो गई। कुछ पठान सरदार, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख भी उसके साथ चल पड़े।

कुछ दूरी पर फिर ब्रिटिश सेना ने उन्हें घेर लिया था। रानी के शरीर से खून की धार बह रही थी और पश्चिम दिशा में अस्त होता हुआ सूर्य भी, संभवत रानी के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करने के लिए, उसी रंग का दिखाई दे रहा था। एक ब्रिटिश सैनिक रानी के बहुत निकट आया और उसने रानी के सीने को लक्ष्य कर छूरा फैका। रानी ने सैनिक को मार डाला पर उसके शरीर से खून अनवरत बह रहा था। विश्राम के लिए कोई समय नहीं था क्योंकि ब्रिटिश सेना लगातार उसका पीछा कर रही थी। जब रानी स्वर्ण रेखा नहर पार करने ही वाली थी कि एक ब्रिटिश सैनिक की बँदूक से निकली गोली उसकी दाहिनी जांघ में आकर लगी और उनकी जांघ शून्य हो गई। रानी ने बाएँ हाथ से तलवार चलाते हुए उस सैनिक को मार डाला। रानी इस समय कालस्वरूपा हो गई थी और बुरी तरह घायल होने के बाबजूद दर्जन भर अंग्रेज उनके हाथों काल कवलित हो गए। उधर घोड़ा नया होने के कारण नहर को पार नहीं कर पाया और बीच में ही फंस गया। तभी एक अंग्रेज सैनिक ने गोली से घायल रानी के पीछे से उनके सर पर तलवार से ऐसा जोरदार प्रहार किया कि उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और आंख बाहर निकल आई। पर ये वीरता की प्रतिमूर्ति रानी ही हो सकती हैं कि घायल होते हुए भी उन्होंने उस अंग्रेज सैनिक का काम तमाम कर दिया।

गुल मुहम्मद, जो कि रानी का अंगरक्षक था, उनकी इस अवस्था को सहन नहीं कर सका और अपनी बहादुरी से दुश्मन के दिलों में खौफ पैदा कर देने वाला ये योद्धा भी रोने लग गया। रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने रानी को घोड़े से उतारने में सहायता पहुँचाई। रघुनाथ सिंह ने कहा: अब एक क्षण भी खोने का वक्त नहीं, हमें शीघ्र ही समीपवर्ती बाबा गंगादास के मठ पर पहुँचना चाहिए।रामचंद्र राव ने रोते हुए बालक दामोदर को घोड़े पर बैठाया, रानी को अपनी गोद में लिया और संत बाबा गंगादास की कुटिया की ओर भागा। अंधकार में भी बाबा गंगादास ने रानी के रक्त से सने मुख को पहिचान लिया। उन्होने ठंडे जल से उसका मुख धोया और गंगाजल पिलाया। रानी को थोड़ी चेतना आई और लड़खड़ाते हुए होंठों से उसने कहा- हर-हर महादेव।इसके बाद वह फिर अचेत हो गई। थोड़ी देर बाद रानी ने कठिनाई के साथ अपनी आँखें खोली और भगवत गीता के अंशों का उच्चारण किया। उनकी आवाज प्रतिक्षण क्षीण होती गई। उनके अंतिम शब्द थे, “वासुदेव मैं आपके समक्ष नतमस्तक हूँ।उधर रात्रि प्रकाश को निगलने को आतुर थी और इधर झाँसी का भाग्य अस्त हो गया था।

रघुनाथसिंह, गुलमोहमद और दामोदरराव के नेत्रों से अश्रु की धारा फूट पड़ी। बाबा गंगादास ने अपनी पवित्र वाणी मे कहा--"प्रकाश का कोई अंत नहीं। वह तो हर कण मे छिपा होता है। उचित समय पर वह पुनः चमक उठता है। इसलिए रानी की मृत्यु का दुःख मत करो बल्कि उसके प्रकाश से खुद को प्रकाशित कर रानी के अधूरे संकल्प को पूरा करने के लिए अपने को समर्पित कर दो।" रानी का अतुलनीय पार्थिव शरीर अग्नि की ज्वालाओं में लोप हो गया और पीछे रह गया उनकी वह कथा जिसने केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। लक्ष्मीबाई 19 नवंबर 1835 से 17 जून 1858 तक मात्र 22 वर्ष 7 माह जीवित रही। वह काली रात में बिजली के समान प्रकट हुई और लुप्त हो गई। ब्रिटिश जनरल सर हयूरोज ने, जो रानी से कई बार लड़ा और बार-बार पराजित हुआ और अंत में जिसने रानी को पराजित किया, रानी की महानता के विषय में निम्नलिखिए विचार प्रकट किए विप्ल्वकारियों की सबसे बहादुर और सबसे महान सेनापति रानी थी। ब्रिटिश इतिहासकारों ने उनकी तुलना जोन ऑफ़ आर्क से की और उन्हें विप्लवियों में अकेला मर्द बताया। रानी की मृत्यु के बीस वर्षों बाद कर्नल मैलसन ने अपनी पुस्तक History of the Indian Mutiny; vol. 3; London, 1878 लिखा कि अंग्रेजी सरकार की नजर में रानी की कोई भी गलतियाँ क्यों ना रही हों, उनके देशवासी सदैव याद रखेंगे कि उनके साथ किये गए बुरे बर्ताव ने उन्हें विद्रोह की तरफ धकेला और वो अपने देश के लिए ही जी और देश के लिए ही मरी।

यहाँ इस बात को भी जान लेना उपुयक्त है कि ब्रिटिश शासकों ने अपने अनुकूल ढंग से जो इतिहास लिखा है उसमें उन्होने इस संघर्ष को सिपाही विद्रोहकी ही संज्ञा दी है, जिससे यह धारणा बनती है कि केवल सैनिकों ने विद्रोह में भाग लिया, अन्य लोगों ने नहीं। यह सत्य है कि सैनिकों ने जनता के इस युद्ध में अग्रणी भूमिका निभाई किन्तु विद्रोह करनेवाले केवल सैनिक नहीं थे। न केवल राजा- महाराजाओं, सरदारों, पेशवा, नवाबों और दिल्ली के सम्राटों ने, बल्कि हिंदुओं, मुसलमानों, मौलवियों और पुराहितों ने भी विद्रोह में भाग लिया। यहाँ तक कि महिलाओं ने भी इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 18 से 20 माह तक रक्तपात चलता रहा और इस दौर में अंग्रेजों को छठी का दूध याद आ गया। यह सत्य है, जैसा कि इतिहास कहता है कि हम पराजित हुए। एक गुलाम देश स्वतन्त्रता के लिए अपनी लड़ाई में कितनी ही बार पराजित हो, उसके लिए इसमें शर्म की कोई बात नहीं। संघर्ष स्वयं जीवित जनता की निशानी है और यह स्वयं ही एक यश है। इसी बात को मन में रखते हुए इस स्थान पर स्वातंत्र्यवीर सावरकर का स्मरण कर लेना समीचीन होगा क्योंकि वो प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने 1857 की उस लड़ाई को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा और इस सम्बन्ध में लिखी उनकी बहुचर्चित पुस्तक ने ही इस क्रान्ति के योद्धाओं को हमारे समक्ष नायकों और नायिकाओं के रूप में खड़ा किया वरना आज हम लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और कुंवर सिंह जैसे योद्धाओं को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं बल्कि ग़दर करने वाला या अधिक से अधिक विद्रोही मान रहे होते।

वीर सावरकर के इस अमूल्य और युगांतरकारी योगदान का ही परिणाम है कि रानी लक्ष्मीबाई को वीरता की प्रतिमूर्ति की तरह स्वीकार किया गया और शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो उनके नाम से अपरिचित हो। सावरकर जी की इस पुस्तक से ही प्रभावित होकर नेता जी ने आज़ाद हिन्द फ़ौज की महिला शाखा का नाम रानी झाँसी रेजिमेंट रखा था। रानी के प्रति जनमानस की श्रद्धा इस बात से जानी जा सकती है कि अपने पुत्र को पीठ पर बाँध कर तलवार लहराते हुए उनकी मूर्ति देश के कितने ही नगरों में दिख जाती है। उनकी स्मृति को अक्षुण रखने के लिए झाँसी के मेडिकल कालेज का नाम महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कालेज और ग्वालियर के शारीरिक शिक्षा विश्वविद्यालय का नाम लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा विश्वविद्यालय रखा गया है। अंडमान में उनकी स्मृति में रानी झाँसी मैरीन नेशनल पार्क की स्थापना की गयी है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की सौंवी वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में 1957 में रानी लक्ष्मीबाई की स्मृति में एक डाकटिकट का भी विमोचन किया गया था।

रानी के जीवन को आधार बनाकर कई उपन्यास भी रचे गए जिसमें जार्ज मैकडोनाल्ड फ्रेजर का 'फ्लैशमैन इन दि ग्रेट गेम', जान मास्टर्स का 'नाइट रनर्स ऑफ़ बंगाल', फ्रेंच भाषा में माइकल डी ग्रेस का 'ला फेम्मे सारी', क्रिस्टोफर निकोल के 'मनु' और 'क्वीन ऑफ़ ग्लोरी', जयश्री मिश्र का 'रानी' आदि प्रमुख हैं। महाश्वेता देवी ने रानी के पौत्र जी . सी . ताम्बे द्वारा किये गए शोध, लोककथाओं, कविताओं और जनश्रुतियों के आधार पर बांग्ला में 'दि क्वीन ऑफ़ झाँसी' नामक एक विस्तृत ग्रन्थ की रचना की, जिसे बाद में अंग्रेजी में भी अनुवादित किया गया। उनकी वीरता को आधार बनाकर अनेकों गीतों की भी रचना की गयी, जिनमें सुभद्रा कुमारी चौहान का 'बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी' किसी भी परिचय का मोहताज नहीं। प्रसिद्द निर्माता निर्देशक सोहराब मोदी ने 1953 में रानी के जीवन के ऊपर 'दि टाइगर एंड दि फ्लेम' नामक फिल्म का निर्माण किया था। अभी कुछ दिनों पहले ही जी टी वी पर भी उनके जीवन के ऊपर 'झाँसी की रानी' नाम से एक धारावाहिक का प्रसारण किया गया।

विदेशों में रहकर भारत की आज़ादी का स्वप्न देखने वाले 'गदर' पार्टी के देशभक्तों से लेकर वीर सावरकर तक को तथा सरदार भगतसिंह के संगठन से लेकर नेताजी सुभाषचंद्र तक को स्फूर्ति देने वाली इस रणचंडिका वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के चरणों में कोटिशः प्रणाम एवं विनम्र श्रद्धांजलि।

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