ये रिपोर्ट आपको सेकुलर मीडिया कभी नहीं बताएगी..।
आखिर कौन है ये बौद्ध भिक्षु जिसकी वजह से म्यांमार के मुसलमानों को जिधर से भागने का मौका मिल रहा है वो भाग रहा है .. जंगल के रास्ते या समुन्दर के रास्ते .. और म्यांमार मुसलमानों से खाली हो रहा है ...!!!
म्यांमार (बर्मा) में रोहिंग्या मुसलमान १९४७ के पहले से अपने ही देश के खिलाफ जिहादी संघर्ष शुरू किए हुए हैं। १९४६ में बर्मा को स्वतंत्रता दिए जाने के समय से ही उन्होंने बर्मा से अलग होकर पाकिस्तान (पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बँगलादेश बन गया है) में शामिल होने का संघर्ष छेड़ दिया था। कश्मीरी मुसलमानों की तरह वे भी आजादी के नाम पर अब तक अपना मुक्ति संग्राम छेड़े हुए हैं और बर्मा की सरकार और जनता की नाक में दम रखा है। आखिर उनकी गद्दारी से तंग आकर वहाँ के शांतिप्रिय बौद्धों ने भी हथियार उठा लिया। और जिहादियों को उनके ही अंदाज में जवाब देना शुरू कर दिया । आज दुनिया के सारे जिहादी संगठन रोहिंग्या मुस्लिमों की मदद में आ खड़े हुए हैं, लेकिन वे म्यांमार के बौद्धों की एकजुटता के कारण इस मुस्लिम-भगाऊ अभियान को दबा नहीं पा रहे हैं।
रोहिंग्या मुसलमानों का इतिहास भी दुनियाँ भर के अन्य मुसलमानों की तरह ही है। अर्थात जैसे ही किसी देश में इनकी शक्ति और संख्या बढ़ती है अपने स्वभाव के अनुसार वे इस्लामी राष्ट्र के निर्माण के लिए जेहाद छेड़ देते हैं।
अपने ही देश के खिलाफ उनकी जेहाद गाथा द्वितीय विश्वयुद्ध के काल से शुरू होती है जब २८ मार्च १९४२ के रोहिंग्या मुसलमानों ने म्यांमार के मुस्लिम-बहुल उत्तरी अराकान क्षेत्र में करीब २०,००० बौद्धों को मार डाला था।
वास्तव में अंग्रेजों ने जापानी फौजों के मुकाबले से पीछे हटते हुए बीच में स्वभाव से ही झगड़ालू रोहिंग्या मुसलमानों को खड़ा करने की कोशिश की थी। उन्होंने इन मुसलमानों को ढेरों हथियार उपलब्ध कराया तथा यह आश्वासन दिया कि इस युद्ध में यदि उन्होंने मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया तो उन्हें उनका वांछित ‘इस्लामी राष्ट्र' दे दिया जाएगा। हथियार पाकर इन रोहिंग्या मुसलमानों ने उनका प्रयोग जापानियों के खिलाफ करने के बजाए, अराकानों (जिनमें ज्यादातर बौद्ध थे) को कत्ल करने में किया। उन्होंने अंग्रेजों की कृपा से अपना राज्य पाने के बजाए स्वयं ही बौद्धों का सफाया करके अपना मुस्लिम राष्ट्र हासिल करने की राह पर चल पड़े ।
मई १९४६ में बर्मा की स्वतंत्रता से पहले कुछ अराकानी
मुस्लिम नेताओं ने भारत के मोहम्मद अली जिन्ना से संपर्क किया और मायू क्षेत्र को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल कराने के लिए उनकी सहायता माँगी। इसके पूर्व अराकान में जमीयतुल उलेमा ए इस्लाम नामक एक संगठन की स्थापना हुई जिसके अध्यक्ष उमरा मियाँ थे। इसका उद्देश्य भी अराकान के सीमांत जिले मायू को पूर्वी पाकिस्तान में मिलाना था लेकिन बर्मा सरकार ने मायू को स्वतंत्र इस्लामी राज्य बनाने या उसे पाकिस्तान में शामिल करने से इनकार कर दिया।
इस पर उत्तरी अराकान के मुजाहिदों ने बर्मा सरकार के खिलाफ जिहाद की घोषणा कर दी। मायू क्षेत्र के दोनों मुस्लिम-बहुल शहरों ब्रथीडौंग एवं मौंगडाऊ में अब्दुल कासिम के नेतृत्व में लूट, हत्या, बलात्कार एवं आगजनी का भयावह खेल शुरू हो गया और कुछ ही दिनों में इन दोनों शहरों से बौद्धों को या तो मार डाला गया अथवा भगा दिया गया। यह कुछ वैसा ही कार्य रहा जैसे कश्मीर घाटी के जिहादियों ने पूरे घाटी क्षेत्र को कश्मीरी पंडितों से खाली करा लिया था।
अपनी जीत से उत्साहित होकर सन १९४७ तक पूरे देश के प्राय: सभी मुसलमान एकजुट हो गये एवं मुजाहिदीन मूवमेंट के नाम से बर्मा पर मानों हमला ही बोल दिया गया।
स्थिती यहाँ तक पहुँच गयी कि १९४९ में तो बर्मा सरकार का नियंत्रण केवल अकयाब शहर तक सीमित रह गया, बाकी पूरे अराकान पर जेहादी मुसलमानों का कब्जा हो गया। यहाँ लाकर हजारों बंगाली मुस्लिम बसाए गए। इस अवैध घुसपैठ से यहाँ मुस्लिम आबादी काफी बढ़ गई। मुजाहिदीन यहीं नहीं रूके। अराकान से सटे अन्य प्रांतों में भी यही नीति अपनायी जाने लगी और ये पूरा क्षेत्र म्यांमार के लिए कैंसर बन गया।
यहाँ से हो रही लगातार देशविरोधी गतिविधियों ने पूरे देश को परेशान कर रखा था।
आखिरकार बर्मा सरकार ने इस इलाके में सीधी सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी। विश्व के लगभग सभी मुस्लिम राष्ट्रों ने बर्मा सरकार के इस अभियान की निंदा की। परन्तु सरकार पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और सेना ने पूरे क्षेत्र में जबरदस्त रूप से जिहादियों की धर-पकड़ शुरू की एवं अनाधिकारिक रूप से सैकड़ों एनकाउन्टर किये। जिसके बाद अधिकतर जेहादी जान बचाकर पूर्वी पाकिस्तान भाग गये, कुछ भूमिगत हो गये एवं कुछ शांत होकर पूर्वी पाकिस्तान से लगी सीमा पर चावल आदि की तस्करी धंधों में लग गए। परन्तु अन्दर ही अन्दर विश्व के कट्टरपंथी इस्लामी गुटों के सम्पर्क में रहे। अपनी शक्ति बढ़ाते रहे और जेहाद के लिए सही मौके का इंतजार करते रहे।
और ये मौका उन्हें फिर से मिला १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान के बँगलादेश के रूप में उदय के बाद।
बचे खुचे जिहादियों में फिर नई सुगबुगाहट पैदा हुई और १९७२ में जिहादी नेता जफ्फार ने रोहिंग्या लिबरेशन पार्टी (आर.एल.पी.) बनाई और बिखरे जिहादियों को
इकट्ठा करना शुरू किया। हथियार बँगलादेश से मिल गए। और जेहाद फिर शुरू हो गया। परन्तु १९७४ में फिर से बर्मी सेना की कार्रवाई के आगे पार्टी बिखर गई और इसके नेता जफ्फार बँगलादेश भाग गए।
इसकी विफलता पर भी सेक्रेटरी मोहम्मद जफर हबीब ने हार नहीं मानी और १९७४ में ही उन्होंने ७० मुस्लिम छापामार जेहादियों के साथ रोहिंग्या पैट्रियाटिक फ्रंट का गठन किया।
इसी फ्रंट के सी.ई.ओ. रहे मोहम्मद यूनुस ने रोहिंग्या
सोलिडेरिटी आर्गनाइजेशन (आर.एस.ओ.)बनाया और उपाध्यक्ष रहे नूरुल इस्लाम ने अराकान रोहिंग्या इस्लामिक फ्रंट (ए.आर.आई.एफ) का गठन किया। इन जेहादी संगठनों की मदद के लिए पूरा इस्लामी जगत सामने आ गया। इनमें बँगलादेश एवं पाकिस्तान के सभी इस्लामी संगठन, अफगानिस्तान का हिजबे इस्लामी, भारत के जम्मू कश्मीर में सक्रिय हिजबुल मुजाहिदीन, इंडियन मुजाहिदीन, मलेशिया के अंकातन बेलिया इस्लाम सा मलेशिया ( ए.बी.आई.एम) तथा इस्लामिक यूथ आर्गनाइजेशन आफ मलेशिया मुख्य रूप से शामिल थे।
पाकिस्तानी सैनिक गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. ने रोहिंग्या मुसलमानों को पाकिस्तान ले जाकर उन्हें अपने ट्रेनिंग कैंपों में उच्च स्तरीय सैनिक तथा गुरिल्ला युद्धशैली का प्रशिक्षण प्रदान किया। इसके बाद ये लड़ाई और भी हिंसक हो गयी। पूरे देश में बौद्धों पर हमले होने लगे।
यहाँ तक भी बर्मा की आम जनता अपनी सुरक्षा के प्रति उदासीन रही। क्योंकि हमारे भारत की तरह वहाँ भी शान्ति और झूठी एकता का पाठ पढ़ाने वाले नेताओं और बाबाओं का मकड़जाल फैला हुआ था।
परन्तु जेहाद का प्रभाव जब उनकी अपनी जिन्दगी पर पड़ने लगा तो उनकी नींद धीरे-धीरे खुलने लगी।
ऐसे में सामने आये मांडले के बौद्ध भिक्षु अशीन विराथु जिन्होनें अपने प्रभावशाली भाषणों से जनता को ये एहसास कराया कि यदि अब भी वो नहीं जागे तो उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसी दौरान कुछ हिंसक झड़पें हुईं कई बौद्ध मारे गये। आखिर जनता का धैर्य टूट गया और लोग भड़क उठे। यहाँ तक कि दुनियाँ में सबसे शान्तिप्रिय माने जाने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने भी हथियार उठा लिया। फिर तो बर्मा की तस्वीर ही बदलने लगी।
1968 में जन्मे अशीन विराथु ने 14 साल की उम्र में स्कूल छोड़ दिया और भिक्षु का जीवन अपना लिया था। विराथु को लोगों ने तभी जाना जब वे 2001 में कट्टर राष्ट्रवादी और मुस्लिम विरोधी गुट '969' के साथ जुड़े।
तब बर्मा की सरकार ने हिंसक झड़पों एवं उनके भड़काऊ भाषणों पर सेकुलरिज्म दिखाते हुए विराथु को २५ साल की सजा सुनायी थी.. पर उनके जेल जाने के बाद भी देश जलता रहा और जबरदस्त जनदबाव में सरकार को उन्हें उनकी सजा घटाकर केवल सात साल बाद २०११ में ही जेल से रिहा करना पड़ा। रिहा होने के पश्चात भी विराथु की कट्टर राष्ट्रवादी सोच में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। और वे अनवरत रूप से अपने अभियान में लगे रहे।
२८ मई २०१२ को मुसलमानों नें एक बौद्ध महिला का बलात्कार करके हत्या कर दी जिसके बाद पूरे म्यांमार के बौद्ध अत्यंत उग्र हो गये और फिर तो वहाँ ऐसी आग लगी कि पूरा देश जल उठा। जिसकी आँच भारत तक भी पहुँची और नतीजा मुंबई के आजाद मैदान में देखा गया।
म्यांमार के दंगों में विराथु के भड़काऊ भाषणों ने आग में घी का काम किया। उन्होंनें साफ कहा कि अब यदि हमें अपना अस्तित्व बचाना है तो अब शांत रहने का समय नहीं रहा।
इन्होनें बुद्ध के उपदेशों के रास्ते को छोड़कर हिटलर की नीति को अपनाया। इन्होने म्यांमार की जनता को साफ कहा कि अगर हमने इनको छोड़ा तो देश से बौद्धों का सफाया हो जाएगा और बर्मा मुस्लिम देश हो जायेगा..।
विराथु का कहना है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक बौद्ध लड़कियों को फंसाकर शादियाँ कर रहे हैं एवं बड़ी संख्या में बच्चे पैदा करके पूरे देश के जनसंख्या-संतुलन को बिगाड़ने के मिशन में दिन रात लगे हुए हैं, जिससे बर्मा की आन्तरिक सुरक्षा को भारी खतरा उत्पन्न हो गया है। इनका कहना है कि मुसलमान एक दिन पूरे देश में फैल जाएंगे और बर्मा में बौद्धों का नरसंहार शुरू हो जाएगा।
संयुक्तराष्ट्र की विशेष प्रतिनिधि यांग ली ने सेकुलरिज्म दिखाते हुए बर्मा का दौरा किया और विराथु की साम्प्रदायिक सोच की निंदा की तब विराथु की हिम्मत देखिये ... उसने उसे खुलेआम धमकी दी एवं यहाँ तक कि उन्हें वेश्या और कुतिया भी कह दिया और कहा-'' आपकी संयुक्त राष्ट्र में प्रतिष्ठा है, इसलिए आप अपने आप को बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति न समझ लें। बर्मा के लोग अपने देश की रक्षा स्वयं करेंगे। उन्हें आपके सलाह की जरूरत नहीं है।'' मीडिया के सामने कहे गये अपने निर्भीक विचारों के कारण उनकी ख्याति पूरी दुनियाँ में फैल गयी।
बाद में विराथु के विचारों का जनसाधारण में प्रचंड समर्थन देखकर वहाँ की सरकार भी झुकी और वहाँ की राष्ट्रपति थेन सेन ने सार्वजनिक रूप से कहा- उनको अब अपना रास्ता देख लेना चाहिए . . हमारे लिए महत्वपूर्ण हमारे देश के मूलनिवासी हैं, मुस्लिम चाहें तो शिविरों में ही रहे ... या बांग्लादेश जाए।
विराथु ने अपने देश से लाखों मुसलमानों को भागने पर मजबूर कर दिया। वे ज्यादातर अपनी बातें डीवीडी और सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं।
विराथू के प्रवचनों को अगर कोई सुने तो उसे लग सकता है कि शांत स्वरों में मोक्षप्राप्ति की बात चल रही है। दृष्टि नीचे किए हुए जब वह अपना प्रवचन दे रहे होते हैं, तो प्रस्तर प्रतिमा की तरह स्थिर नजर आते हैं, चेहरे पर भी कोई उत्तेजना नजर नहीं आती। जो कोई बर्मी भाषा न समझता हो, उसे लगेगा कि वह कोई गंभीर आध्यात्मिक उपदेश दे रहे हैं, लेकिन वह अपने हर उपदेश में बौद्धों के संगठित होने और हिंसा का जवाब हिंसा से देने का उपदेश देते हैं।
मंडाले के अपने मासोयिन मठ से लगभग दो हजार पांच सौ भिक्षुओं की अगुआई करने वाले विराथु के फेसबुक पर हजारों फालोअर्स हैं और यूट्यूब पर वीडियो को लाखों बार देखा जा चुका है।
इधर छह करोड़ की बौद्ध आबादी वाले म्यांमार में मुसलिम विरोधी भावना तेजी से गति पकड़ रही है।
बौद्ध भिक्षुओं को शांति और समभाव का आचरण करने के लिए जाना जाता है किंतु म्यांमार के अधिकांश बौद्ध आत्मरक्षा के लिए अब जिहादियों का तौर-तरीका अपनाने में भी कोई संकोच नहीं कर रहे हैं।
म्यांमार में हुए कई सर्वे के बाद ये प्रमाणित हो चुका है कि जनता एवं बौद्ध भिक्षु विराथु के पूरी तरह साथ हैं। विराथु का स्वयं भी कहना है कि वह न तो घृणा फैलाने में विश्वास रखते हैं और न हिंसा के समर्थक हैं, लेकिन हम कब तक मौन रहकर सारी हिंसा और अत्याचार को झेलते रह सकते हैं? इसलिए वह अब पूरे देश में घूम घूम कर भिक्षुओं तथा सामान्यजनों को उपदेश दे रहे हैं कि यदि हम आज कमजोर पड़े, तो अपने ही देश में हम शरणार्थी हो जाएँगे।
वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के लगभग सभी इस्लामी संगठनों नें म्यांमार की हिंसा के लिए सीधे-सीधे भारत को जिम्मेदार ठहराया।
कराची में हुई एक सभा में लश्कर-ए-तैयबा तथा जमात-उद-दवा के संस्थापक हाफिज सईद ने कहा कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के सफाए में भारत की सरकार वहाँ की सरकार की मदद कर रही है। सईद ने वहाँ के मुसलमानों की मदद के लिए पूरे मुस्लिम जगत का आह्वान किया और म्यांमार के मुसलमानों को हथियार उठाने और अपनी अलग तंजीम बनाने की सलाह दी तथा आश्वासन दिया कि पाकिस्तान के सभी इस्लामी संगठन म्यांमार के मुस्लिमों की पूरी मदद करेंगे।
उत्तर-पश्चिमी अखंड भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों नें सैकड़ों साल पहले ही समूची बौद्ध आबादी को समाप्त कर दिया था। आज भी पाकिस्तान में न कोई बौद्ध आबादी है न बौद्ध मंदिर इसलिए वहाँ कोई बदले की कार्रवाई नहीं हो सकी इसीलिए जिहादियों ने गुस्से में भारत के सर्वाधिक पवित्र बौद्ध स्थल बोधगया को लहूलुहान करने की साजिश रची थी। इसके साथ
ही बँगलादेश के जिहादी संगठन भी बौद्धों को निशाना बनाने में रोहिंग्या गुटों की मदद कर रहे हैं। और ये आज भी जारी है।
म्यांमार के बौद्धों के इस नये तेवर से पूरी दुनिया में खलबली मच गई है। दुनिया भर के अखबारों में उनकी निंदा में लेख छापे जा रहे हैं परन्तु अशीन विराथु को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
यही नहीं..विराथु के भाषणों से प्रभावित होकर पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में भी बौद्ध भिक्षुओं नें मुख्यत: मुसलमानों के खिलाफ ‘बोडु बाला सेना’ नाम का संगठन बना लिया है। इस संगठन का मुख्यालय कोलंबो के बुद्धिस्ट कल्चरल सेंटर में है, जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे किया था। इस संगठन के भी लाखों समर्थक हैं, जो मानते हैं कि श्रीलंका को मुसलमानों से खतरा है। हजारों लोग उनकी रैलियों में शामिल होते हैं तो सोशल मीडिया पर भी उनकी अच्छी-खासी पकड़ बनी है। वे अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक विश्वासों, पूजा-पाठ के तरीकों और विशेषकर मस्जिदों को निशाना बना रहे हैं।
केवल म्यांमार और श्रीलंका ही नहीं..चीन में भी बौद्धों और मुस्लिमों में टकराव जारी है। बौद्ध देश चीन के मुस्लिम बहुल प्रांत शिनजियांग के मुसलमान देश के इस क्षेत्र को इस्लामी राष्ट्र बनाने के लिए वर्षों से जेहाद कर रहे हैं। ये लोग चीन में केवल एक बच्चा पैदा करने के कानून का भी हिंसक विरोध करते रहे हैं। यहाँ तुर्क मूल के उईंगर मुसलमान पाकिस्तान के कबायली इलाकों में आतंक की ट्रेनिंग लेकर चीनी नागरिकों का खून बहाने की साजिश रचते हैं।
परन्तु पूरी दुनियाँ को इस्लामी आग में जलता देखकर चीनी सरकार ने सबक लिया है और यहाँ के मुसलमानों पर जबरदस्त दमन की नीति अपना ली है। यहाँ मुसलमानों को दाढ़ी रखने, बुर्का पहनने यहाँ तक की रोजा रखने पर भी पाबंदी लगा दी गयी है।
इसके बावजूद चीन में आतंकवादी गतिविधियां एवं जेहादी भावना भी लगातार बढ़ रही हैं जिसके कारण यहाँ भी बौद्धों और मुसलमानों में घमासान मचा हुआ है।
म्यांमार में हुई हिंसक घटनाओं के बाद से अब प्राय: पूरी दुनिया में बौद्धों और मुस्लिमों में भारी तनातनी पैदा हो गई है। जिनमें अशीन विराथु बौद्ध दुनियाँ के एक नायक एवं जेहादी दुनियाँ के लिए एक बड़े खलनायक बन कर उभरे हैं।
आखिर कौन है ये बौद्ध भिक्षु जिसकी वजह से म्यांमार के मुसलमानों को जिधर से भागने का मौका मिल रहा है वो भाग रहा है .. जंगल के रास्ते या समुन्दर के रास्ते .. और म्यांमार मुसलमानों से खाली हो रहा है ...!!!
म्यांमार (बर्मा) में रोहिंग्या मुसलमान १९४७ के पहले से अपने ही देश के खिलाफ जिहादी संघर्ष शुरू किए हुए हैं। १९४६ में बर्मा को स्वतंत्रता दिए जाने के समय से ही उन्होंने बर्मा से अलग होकर पाकिस्तान (पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बँगलादेश बन गया है) में शामिल होने का संघर्ष छेड़ दिया था। कश्मीरी मुसलमानों की तरह वे भी आजादी के नाम पर अब तक अपना मुक्ति संग्राम छेड़े हुए हैं और बर्मा की सरकार और जनता की नाक में दम रखा है। आखिर उनकी गद्दारी से तंग आकर वहाँ के शांतिप्रिय बौद्धों ने भी हथियार उठा लिया। और जिहादियों को उनके ही अंदाज में जवाब देना शुरू कर दिया । आज दुनिया के सारे जिहादी संगठन रोहिंग्या मुस्लिमों की मदद में आ खड़े हुए हैं, लेकिन वे म्यांमार के बौद्धों की एकजुटता के कारण इस मुस्लिम-भगाऊ अभियान को दबा नहीं पा रहे हैं।
रोहिंग्या मुसलमानों का इतिहास भी दुनियाँ भर के अन्य मुसलमानों की तरह ही है। अर्थात जैसे ही किसी देश में इनकी शक्ति और संख्या बढ़ती है अपने स्वभाव के अनुसार वे इस्लामी राष्ट्र के निर्माण के लिए जेहाद छेड़ देते हैं।
अपने ही देश के खिलाफ उनकी जेहाद गाथा द्वितीय विश्वयुद्ध के काल से शुरू होती है जब २८ मार्च १९४२ के रोहिंग्या मुसलमानों ने म्यांमार के मुस्लिम-बहुल उत्तरी अराकान क्षेत्र में करीब २०,००० बौद्धों को मार डाला था।
वास्तव में अंग्रेजों ने जापानी फौजों के मुकाबले से पीछे हटते हुए बीच में स्वभाव से ही झगड़ालू रोहिंग्या मुसलमानों को खड़ा करने की कोशिश की थी। उन्होंने इन मुसलमानों को ढेरों हथियार उपलब्ध कराया तथा यह आश्वासन दिया कि इस युद्ध में यदि उन्होंने मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया तो उन्हें उनका वांछित ‘इस्लामी राष्ट्र' दे दिया जाएगा। हथियार पाकर इन रोहिंग्या मुसलमानों ने उनका प्रयोग जापानियों के खिलाफ करने के बजाए, अराकानों (जिनमें ज्यादातर बौद्ध थे) को कत्ल करने में किया। उन्होंने अंग्रेजों की कृपा से अपना राज्य पाने के बजाए स्वयं ही बौद्धों का सफाया करके अपना मुस्लिम राष्ट्र हासिल करने की राह पर चल पड़े ।
मई १९४६ में बर्मा की स्वतंत्रता से पहले कुछ अराकानी
मुस्लिम नेताओं ने भारत के मोहम्मद अली जिन्ना से संपर्क किया और मायू क्षेत्र को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल कराने के लिए उनकी सहायता माँगी। इसके पूर्व अराकान में जमीयतुल उलेमा ए इस्लाम नामक एक संगठन की स्थापना हुई जिसके अध्यक्ष उमरा मियाँ थे। इसका उद्देश्य भी अराकान के सीमांत जिले मायू को पूर्वी पाकिस्तान में मिलाना था लेकिन बर्मा सरकार ने मायू को स्वतंत्र इस्लामी राज्य बनाने या उसे पाकिस्तान में शामिल करने से इनकार कर दिया।
इस पर उत्तरी अराकान के मुजाहिदों ने बर्मा सरकार के खिलाफ जिहाद की घोषणा कर दी। मायू क्षेत्र के दोनों मुस्लिम-बहुल शहरों ब्रथीडौंग एवं मौंगडाऊ में अब्दुल कासिम के नेतृत्व में लूट, हत्या, बलात्कार एवं आगजनी का भयावह खेल शुरू हो गया और कुछ ही दिनों में इन दोनों शहरों से बौद्धों को या तो मार डाला गया अथवा भगा दिया गया। यह कुछ वैसा ही कार्य रहा जैसे कश्मीर घाटी के जिहादियों ने पूरे घाटी क्षेत्र को कश्मीरी पंडितों से खाली करा लिया था।
अपनी जीत से उत्साहित होकर सन १९४७ तक पूरे देश के प्राय: सभी मुसलमान एकजुट हो गये एवं मुजाहिदीन मूवमेंट के नाम से बर्मा पर मानों हमला ही बोल दिया गया।
स्थिती यहाँ तक पहुँच गयी कि १९४९ में तो बर्मा सरकार का नियंत्रण केवल अकयाब शहर तक सीमित रह गया, बाकी पूरे अराकान पर जेहादी मुसलमानों का कब्जा हो गया। यहाँ लाकर हजारों बंगाली मुस्लिम बसाए गए। इस अवैध घुसपैठ से यहाँ मुस्लिम आबादी काफी बढ़ गई। मुजाहिदीन यहीं नहीं रूके। अराकान से सटे अन्य प्रांतों में भी यही नीति अपनायी जाने लगी और ये पूरा क्षेत्र म्यांमार के लिए कैंसर बन गया।
यहाँ से हो रही लगातार देशविरोधी गतिविधियों ने पूरे देश को परेशान कर रखा था।
आखिरकार बर्मा सरकार ने इस इलाके में सीधी सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी। विश्व के लगभग सभी मुस्लिम राष्ट्रों ने बर्मा सरकार के इस अभियान की निंदा की। परन्तु सरकार पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और सेना ने पूरे क्षेत्र में जबरदस्त रूप से जिहादियों की धर-पकड़ शुरू की एवं अनाधिकारिक रूप से सैकड़ों एनकाउन्टर किये। जिसके बाद अधिकतर जेहादी जान बचाकर पूर्वी पाकिस्तान भाग गये, कुछ भूमिगत हो गये एवं कुछ शांत होकर पूर्वी पाकिस्तान से लगी सीमा पर चावल आदि की तस्करी धंधों में लग गए। परन्तु अन्दर ही अन्दर विश्व के कट्टरपंथी इस्लामी गुटों के सम्पर्क में रहे। अपनी शक्ति बढ़ाते रहे और जेहाद के लिए सही मौके का इंतजार करते रहे।
और ये मौका उन्हें फिर से मिला १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान के बँगलादेश के रूप में उदय के बाद।
बचे खुचे जिहादियों में फिर नई सुगबुगाहट पैदा हुई और १९७२ में जिहादी नेता जफ्फार ने रोहिंग्या लिबरेशन पार्टी (आर.एल.पी.) बनाई और बिखरे जिहादियों को
इकट्ठा करना शुरू किया। हथियार बँगलादेश से मिल गए। और जेहाद फिर शुरू हो गया। परन्तु १९७४ में फिर से बर्मी सेना की कार्रवाई के आगे पार्टी बिखर गई और इसके नेता जफ्फार बँगलादेश भाग गए।
इसकी विफलता पर भी सेक्रेटरी मोहम्मद जफर हबीब ने हार नहीं मानी और १९७४ में ही उन्होंने ७० मुस्लिम छापामार जेहादियों के साथ रोहिंग्या पैट्रियाटिक फ्रंट का गठन किया।
इसी फ्रंट के सी.ई.ओ. रहे मोहम्मद यूनुस ने रोहिंग्या
सोलिडेरिटी आर्गनाइजेशन (आर.एस.ओ.)बनाया और उपाध्यक्ष रहे नूरुल इस्लाम ने अराकान रोहिंग्या इस्लामिक फ्रंट (ए.आर.आई.एफ) का गठन किया। इन जेहादी संगठनों की मदद के लिए पूरा इस्लामी जगत सामने आ गया। इनमें बँगलादेश एवं पाकिस्तान के सभी इस्लामी संगठन, अफगानिस्तान का हिजबे इस्लामी, भारत के जम्मू कश्मीर में सक्रिय हिजबुल मुजाहिदीन, इंडियन मुजाहिदीन, मलेशिया के अंकातन बेलिया इस्लाम सा मलेशिया ( ए.बी.आई.एम) तथा इस्लामिक यूथ आर्गनाइजेशन आफ मलेशिया मुख्य रूप से शामिल थे।
पाकिस्तानी सैनिक गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. ने रोहिंग्या मुसलमानों को पाकिस्तान ले जाकर उन्हें अपने ट्रेनिंग कैंपों में उच्च स्तरीय सैनिक तथा गुरिल्ला युद्धशैली का प्रशिक्षण प्रदान किया। इसके बाद ये लड़ाई और भी हिंसक हो गयी। पूरे देश में बौद्धों पर हमले होने लगे।
यहाँ तक भी बर्मा की आम जनता अपनी सुरक्षा के प्रति उदासीन रही। क्योंकि हमारे भारत की तरह वहाँ भी शान्ति और झूठी एकता का पाठ पढ़ाने वाले नेताओं और बाबाओं का मकड़जाल फैला हुआ था।
परन्तु जेहाद का प्रभाव जब उनकी अपनी जिन्दगी पर पड़ने लगा तो उनकी नींद धीरे-धीरे खुलने लगी।
ऐसे में सामने आये मांडले के बौद्ध भिक्षु अशीन विराथु जिन्होनें अपने प्रभावशाली भाषणों से जनता को ये एहसास कराया कि यदि अब भी वो नहीं जागे तो उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसी दौरान कुछ हिंसक झड़पें हुईं कई बौद्ध मारे गये। आखिर जनता का धैर्य टूट गया और लोग भड़क उठे। यहाँ तक कि दुनियाँ में सबसे शान्तिप्रिय माने जाने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने भी हथियार उठा लिया। फिर तो बर्मा की तस्वीर ही बदलने लगी।
1968 में जन्मे अशीन विराथु ने 14 साल की उम्र में स्कूल छोड़ दिया और भिक्षु का जीवन अपना लिया था। विराथु को लोगों ने तभी जाना जब वे 2001 में कट्टर राष्ट्रवादी और मुस्लिम विरोधी गुट '969' के साथ जुड़े।
तब बर्मा की सरकार ने हिंसक झड़पों एवं उनके भड़काऊ भाषणों पर सेकुलरिज्म दिखाते हुए विराथु को २५ साल की सजा सुनायी थी.. पर उनके जेल जाने के बाद भी देश जलता रहा और जबरदस्त जनदबाव में सरकार को उन्हें उनकी सजा घटाकर केवल सात साल बाद २०११ में ही जेल से रिहा करना पड़ा। रिहा होने के पश्चात भी विराथु की कट्टर राष्ट्रवादी सोच में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। और वे अनवरत रूप से अपने अभियान में लगे रहे।
२८ मई २०१२ को मुसलमानों नें एक बौद्ध महिला का बलात्कार करके हत्या कर दी जिसके बाद पूरे म्यांमार के बौद्ध अत्यंत उग्र हो गये और फिर तो वहाँ ऐसी आग लगी कि पूरा देश जल उठा। जिसकी आँच भारत तक भी पहुँची और नतीजा मुंबई के आजाद मैदान में देखा गया।
म्यांमार के दंगों में विराथु के भड़काऊ भाषणों ने आग में घी का काम किया। उन्होंनें साफ कहा कि अब यदि हमें अपना अस्तित्व बचाना है तो अब शांत रहने का समय नहीं रहा।
इन्होनें बुद्ध के उपदेशों के रास्ते को छोड़कर हिटलर की नीति को अपनाया। इन्होने म्यांमार की जनता को साफ कहा कि अगर हमने इनको छोड़ा तो देश से बौद्धों का सफाया हो जाएगा और बर्मा मुस्लिम देश हो जायेगा..।
विराथु का कहना है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक बौद्ध लड़कियों को फंसाकर शादियाँ कर रहे हैं एवं बड़ी संख्या में बच्चे पैदा करके पूरे देश के जनसंख्या-संतुलन को बिगाड़ने के मिशन में दिन रात लगे हुए हैं, जिससे बर्मा की आन्तरिक सुरक्षा को भारी खतरा उत्पन्न हो गया है। इनका कहना है कि मुसलमान एक दिन पूरे देश में फैल जाएंगे और बर्मा में बौद्धों का नरसंहार शुरू हो जाएगा।
संयुक्तराष्ट्र की विशेष प्रतिनिधि यांग ली ने सेकुलरिज्म दिखाते हुए बर्मा का दौरा किया और विराथु की साम्प्रदायिक सोच की निंदा की तब विराथु की हिम्मत देखिये ... उसने उसे खुलेआम धमकी दी एवं यहाँ तक कि उन्हें वेश्या और कुतिया भी कह दिया और कहा-'' आपकी संयुक्त राष्ट्र में प्रतिष्ठा है, इसलिए आप अपने आप को बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति न समझ लें। बर्मा के लोग अपने देश की रक्षा स्वयं करेंगे। उन्हें आपके सलाह की जरूरत नहीं है।'' मीडिया के सामने कहे गये अपने निर्भीक विचारों के कारण उनकी ख्याति पूरी दुनियाँ में फैल गयी।
बाद में विराथु के विचारों का जनसाधारण में प्रचंड समर्थन देखकर वहाँ की सरकार भी झुकी और वहाँ की राष्ट्रपति थेन सेन ने सार्वजनिक रूप से कहा- उनको अब अपना रास्ता देख लेना चाहिए . . हमारे लिए महत्वपूर्ण हमारे देश के मूलनिवासी हैं, मुस्लिम चाहें तो शिविरों में ही रहे ... या बांग्लादेश जाए।
विराथु ने अपने देश से लाखों मुसलमानों को भागने पर मजबूर कर दिया। वे ज्यादातर अपनी बातें डीवीडी और सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं।
विराथू के प्रवचनों को अगर कोई सुने तो उसे लग सकता है कि शांत स्वरों में मोक्षप्राप्ति की बात चल रही है। दृष्टि नीचे किए हुए जब वह अपना प्रवचन दे रहे होते हैं, तो प्रस्तर प्रतिमा की तरह स्थिर नजर आते हैं, चेहरे पर भी कोई उत्तेजना नजर नहीं आती। जो कोई बर्मी भाषा न समझता हो, उसे लगेगा कि वह कोई गंभीर आध्यात्मिक उपदेश दे रहे हैं, लेकिन वह अपने हर उपदेश में बौद्धों के संगठित होने और हिंसा का जवाब हिंसा से देने का उपदेश देते हैं।
मंडाले के अपने मासोयिन मठ से लगभग दो हजार पांच सौ भिक्षुओं की अगुआई करने वाले विराथु के फेसबुक पर हजारों फालोअर्स हैं और यूट्यूब पर वीडियो को लाखों बार देखा जा चुका है।
इधर छह करोड़ की बौद्ध आबादी वाले म्यांमार में मुसलिम विरोधी भावना तेजी से गति पकड़ रही है।
बौद्ध भिक्षुओं को शांति और समभाव का आचरण करने के लिए जाना जाता है किंतु म्यांमार के अधिकांश बौद्ध आत्मरक्षा के लिए अब जिहादियों का तौर-तरीका अपनाने में भी कोई संकोच नहीं कर रहे हैं।
म्यांमार में हुए कई सर्वे के बाद ये प्रमाणित हो चुका है कि जनता एवं बौद्ध भिक्षु विराथु के पूरी तरह साथ हैं। विराथु का स्वयं भी कहना है कि वह न तो घृणा फैलाने में विश्वास रखते हैं और न हिंसा के समर्थक हैं, लेकिन हम कब तक मौन रहकर सारी हिंसा और अत्याचार को झेलते रह सकते हैं? इसलिए वह अब पूरे देश में घूम घूम कर भिक्षुओं तथा सामान्यजनों को उपदेश दे रहे हैं कि यदि हम आज कमजोर पड़े, तो अपने ही देश में हम शरणार्थी हो जाएँगे।
वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के लगभग सभी इस्लामी संगठनों नें म्यांमार की हिंसा के लिए सीधे-सीधे भारत को जिम्मेदार ठहराया।
कराची में हुई एक सभा में लश्कर-ए-तैयबा तथा जमात-उद-दवा के संस्थापक हाफिज सईद ने कहा कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के सफाए में भारत की सरकार वहाँ की सरकार की मदद कर रही है। सईद ने वहाँ के मुसलमानों की मदद के लिए पूरे मुस्लिम जगत का आह्वान किया और म्यांमार के मुसलमानों को हथियार उठाने और अपनी अलग तंजीम बनाने की सलाह दी तथा आश्वासन दिया कि पाकिस्तान के सभी इस्लामी संगठन म्यांमार के मुस्लिमों की पूरी मदद करेंगे।
उत्तर-पश्चिमी अखंड भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों नें सैकड़ों साल पहले ही समूची बौद्ध आबादी को समाप्त कर दिया था। आज भी पाकिस्तान में न कोई बौद्ध आबादी है न बौद्ध मंदिर इसलिए वहाँ कोई बदले की कार्रवाई नहीं हो सकी इसीलिए जिहादियों ने गुस्से में भारत के सर्वाधिक पवित्र बौद्ध स्थल बोधगया को लहूलुहान करने की साजिश रची थी। इसके साथ
ही बँगलादेश के जिहादी संगठन भी बौद्धों को निशाना बनाने में रोहिंग्या गुटों की मदद कर रहे हैं। और ये आज भी जारी है।
म्यांमार के बौद्धों के इस नये तेवर से पूरी दुनिया में खलबली मच गई है। दुनिया भर के अखबारों में उनकी निंदा में लेख छापे जा रहे हैं परन्तु अशीन विराथु को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
यही नहीं..विराथु के भाषणों से प्रभावित होकर पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में भी बौद्ध भिक्षुओं नें मुख्यत: मुसलमानों के खिलाफ ‘बोडु बाला सेना’ नाम का संगठन बना लिया है। इस संगठन का मुख्यालय कोलंबो के बुद्धिस्ट कल्चरल सेंटर में है, जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे किया था। इस संगठन के भी लाखों समर्थक हैं, जो मानते हैं कि श्रीलंका को मुसलमानों से खतरा है। हजारों लोग उनकी रैलियों में शामिल होते हैं तो सोशल मीडिया पर भी उनकी अच्छी-खासी पकड़ बनी है। वे अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक विश्वासों, पूजा-पाठ के तरीकों और विशेषकर मस्जिदों को निशाना बना रहे हैं।
केवल म्यांमार और श्रीलंका ही नहीं..चीन में भी बौद्धों और मुस्लिमों में टकराव जारी है। बौद्ध देश चीन के मुस्लिम बहुल प्रांत शिनजियांग के मुसलमान देश के इस क्षेत्र को इस्लामी राष्ट्र बनाने के लिए वर्षों से जेहाद कर रहे हैं। ये लोग चीन में केवल एक बच्चा पैदा करने के कानून का भी हिंसक विरोध करते रहे हैं। यहाँ तुर्क मूल के उईंगर मुसलमान पाकिस्तान के कबायली इलाकों में आतंक की ट्रेनिंग लेकर चीनी नागरिकों का खून बहाने की साजिश रचते हैं।
परन्तु पूरी दुनियाँ को इस्लामी आग में जलता देखकर चीनी सरकार ने सबक लिया है और यहाँ के मुसलमानों पर जबरदस्त दमन की नीति अपना ली है। यहाँ मुसलमानों को दाढ़ी रखने, बुर्का पहनने यहाँ तक की रोजा रखने पर भी पाबंदी लगा दी गयी है।
इसके बावजूद चीन में आतंकवादी गतिविधियां एवं जेहादी भावना भी लगातार बढ़ रही हैं जिसके कारण यहाँ भी बौद्धों और मुसलमानों में घमासान मचा हुआ है।
म्यांमार में हुई हिंसक घटनाओं के बाद से अब प्राय: पूरी दुनिया में बौद्धों और मुस्लिमों में भारी तनातनी पैदा हो गई है। जिनमें अशीन विराथु बौद्ध दुनियाँ के एक नायक एवं जेहादी दुनियाँ के लिए एक बड़े खलनायक बन कर उभरे हैं।
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