जब भारत का बंटवारा होकर पकिस्तान बना तो भारत में कई हिन्दू शरणार्थी भी आने लगे. शुरू में आने वाले अमीर लोग थे, उन्होंने अपने लिए घर का रोज़गार का इंतजाम कर लिया.
धीरे धीरे बाकी बचे उन लोगों को भी समझ आने लगा जो पकिस्तान को अपना घर मानकर रुक गए थे. गरीबी से त्रस्त लोगों को जब शोषण झेलना पड़ा तो धीरे धीरे उन्होंने भी भारत में आना शुरू किया.
इन्हें बसने के लिए जगह देना एक समस्या थी. तो इन्हें लेकर बसाया गया दंडकारण्य में. जी हाँ, वही जगह जिसका जिक्र आपने रामायण में सुना/ पढ़ा/ देखा होगा. बरसों तक ये शरणार्थी वहीँ रहते रहे. फिर एक दिन विपक्ष के एक नेता ज्योति बसु ने चिट्ठी लिखी कि ये शरणार्थी बंगाली हैं. इन्हें हम बंगाल में जगह देंगे.
बाद में जब पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार आई तो मार्क्सिस्ट फॉरवर्ड ब्लाक के एक मंत्री राम चटर्जी दंडकारण्य के इन शरणार्थी शिविरों का हाल देखने गए. उन शरणार्थियों को अपने घर लौट आने का निवेदन भी किया.
तो इस तरह 1978 में बड़ी संख्या में शरणार्थी बंगाल आने लगे थे. लेकिन तब तक वामपंथी लेफ्ट फ्रंट अपनी सरकार बना चुकी थी, और उनका कहना था कि शरणार्थी तो भारत के हैं! बंगाल के थोड़ी न हैं शरणार्थी!
बंगाल में नामशुद्र के परिचय से पहचाने जाने वाली तथाकथित छोटी जाति के इन शरणार्थियों के लिए अब भयानक समस्या हो गई. अपने शिविर वो छोड़ आये थे और यहाँ रहने खाने का कोई ठिकाना नहीं. दंडकारण्य से आये करीब 1,50,000 (डेढ़ लाख) लोगों को जबरन वापिस भेजा जाने लगा.
इनमे से करीब 40,000 शरणार्थियों को हसनाबाद, मारिचझापी में जगह दी गई थी. ये इलाका सरकारी संरक्षित वन है. यहाँ सुंदरबन के बाघों को रहने की जगह दी गई है, हिन्दू शरणार्थियों का वहां क्या काम? तो इस तरह 24 जनवरी, 1979 को इस इलाके में आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए.
पश्चिम बंगाल की पुलिस स्थानीय प्रशासन की मदद में उतरी. तीस (30) मोटरबोट, लांच और नाव इस इलाके में गश्त पर जुट गए. वामपंथी सरकार ने इलाके का पानी और खाना रोक दिया.
कर्बला जैसी किसी जगह की याद आ रही हो तो जरा थामिए अपनी भावनाओं को! 31 जनवरी को भूखे लोगों पर वामपंथी पुलिस ने गोलियां भी चलाई थी. पंद्रह दिन बाद कलकात्ता के हाई कोर्ट का फरमान आया, लोगों को पानी, डॉक्टर और खाने जैसी जरुरी सुविधाओं से वंचित ना किया जाये.
आर्थिक प्रतिबंधों में नाकाम होने पर लेफ्ट फ्रंट की सरकार ने लोगों को मई में जबरन निकालने की कोशिश शुरू की. इस कैंप का नाम शरणार्थियों ने नेताजी नगर रखा था. इलाके से मीडियाकर्मियों को बाहर कर दिया गया और पुलिस बल की कार्रवाई शुरू हुई.
40,000 लोगों में जो बचे, उनमे से कुछ को बारासात के शिविर में रखा गया था, कुछ सियालदाह के रेलवे पटरी के पास जा बसे, कुछ हिंगलगंज, और कुछ कैनिंग के शिविरों में.
हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबार गिनती 1000 तक बताते हैं. लेफ्ट फ्रंट ने कितनो को मरवाया ये अज्ञात है. मगर लाल झंडे के रंग में खून कम तो नहीं लगा होगा!
-आनंद कुमार की फेसबुक पोस्ट
धीरे धीरे बाकी बचे उन लोगों को भी समझ आने लगा जो पकिस्तान को अपना घर मानकर रुक गए थे. गरीबी से त्रस्त लोगों को जब शोषण झेलना पड़ा तो धीरे धीरे उन्होंने भी भारत में आना शुरू किया.
इन्हें बसने के लिए जगह देना एक समस्या थी. तो इन्हें लेकर बसाया गया दंडकारण्य में. जी हाँ, वही जगह जिसका जिक्र आपने रामायण में सुना/ पढ़ा/ देखा होगा. बरसों तक ये शरणार्थी वहीँ रहते रहे. फिर एक दिन विपक्ष के एक नेता ज्योति बसु ने चिट्ठी लिखी कि ये शरणार्थी बंगाली हैं. इन्हें हम बंगाल में जगह देंगे.
बाद में जब पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार आई तो मार्क्सिस्ट फॉरवर्ड ब्लाक के एक मंत्री राम चटर्जी दंडकारण्य के इन शरणार्थी शिविरों का हाल देखने गए. उन शरणार्थियों को अपने घर लौट आने का निवेदन भी किया.
तो इस तरह 1978 में बड़ी संख्या में शरणार्थी बंगाल आने लगे थे. लेकिन तब तक वामपंथी लेफ्ट फ्रंट अपनी सरकार बना चुकी थी, और उनका कहना था कि शरणार्थी तो भारत के हैं! बंगाल के थोड़ी न हैं शरणार्थी!
बंगाल में नामशुद्र के परिचय से पहचाने जाने वाली तथाकथित छोटी जाति के इन शरणार्थियों के लिए अब भयानक समस्या हो गई. अपने शिविर वो छोड़ आये थे और यहाँ रहने खाने का कोई ठिकाना नहीं. दंडकारण्य से आये करीब 1,50,000 (डेढ़ लाख) लोगों को जबरन वापिस भेजा जाने लगा.
इनमे से करीब 40,000 शरणार्थियों को हसनाबाद, मारिचझापी में जगह दी गई थी. ये इलाका सरकारी संरक्षित वन है. यहाँ सुंदरबन के बाघों को रहने की जगह दी गई है, हिन्दू शरणार्थियों का वहां क्या काम? तो इस तरह 24 जनवरी, 1979 को इस इलाके में आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए.
पश्चिम बंगाल की पुलिस स्थानीय प्रशासन की मदद में उतरी. तीस (30) मोटरबोट, लांच और नाव इस इलाके में गश्त पर जुट गए. वामपंथी सरकार ने इलाके का पानी और खाना रोक दिया.
कर्बला जैसी किसी जगह की याद आ रही हो तो जरा थामिए अपनी भावनाओं को! 31 जनवरी को भूखे लोगों पर वामपंथी पुलिस ने गोलियां भी चलाई थी. पंद्रह दिन बाद कलकात्ता के हाई कोर्ट का फरमान आया, लोगों को पानी, डॉक्टर और खाने जैसी जरुरी सुविधाओं से वंचित ना किया जाये.
आर्थिक प्रतिबंधों में नाकाम होने पर लेफ्ट फ्रंट की सरकार ने लोगों को मई में जबरन निकालने की कोशिश शुरू की. इस कैंप का नाम शरणार्थियों ने नेताजी नगर रखा था. इलाके से मीडियाकर्मियों को बाहर कर दिया गया और पुलिस बल की कार्रवाई शुरू हुई.
40,000 लोगों में जो बचे, उनमे से कुछ को बारासात के शिविर में रखा गया था, कुछ सियालदाह के रेलवे पटरी के पास जा बसे, कुछ हिंगलगंज, और कुछ कैनिंग के शिविरों में.
हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबार गिनती 1000 तक बताते हैं. लेफ्ट फ्रंट ने कितनो को मरवाया ये अज्ञात है. मगर लाल झंडे के रंग में खून कम तो नहीं लगा होगा!
-आनंद कुमार की फेसबुक पोस्ट
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