Tuesday, May 5, 2015

क्या गांधी परिवार की इज्जत बचेगी ?

क्‍या अमेठी का मतलब गांधी-नेहरू परिवार की जागीर या राजा-रानी की विरासत भर है? क्षेत्र में गांधी-नेहरू परिवार के ठसक भरे अंदाज की बात हो या राजा-रानी के अपने 'प्रजा' पर अधिकार की, नये सोच और बेरोजगारी का दंश झेलते युवाओं की या फिर बदहाली का जीवन जी रहे किसान की... इन सबों की एक झलक आप अजय कुमार के इस चुनावी यात्रा में देख सकते हैं. आजतक के एग्जिक्‍यूटिव एडिटर अजय कुमार उत्तर प्रदेश चुनाव कवरेज के लिए विभिन्‍न क्षेत्रों का भ्रमण कर रहे हैं. इस दौरान उन्‍हें अमेठी की राजनीति, वहां की सामाजिक स्थिति, लोग और उनकी सोच, उनका जीवन-स्‍तर इन सबों को करीब से देखने का मौका मिला....तो आप भी चलें उनके साथ यूपी के इस 'वीवीआईपी' क्षेत्र अमेठी की चुनावी यात्रा पर...
120214082117_rahulpriyanka1144.jpgसुबह की लाली और जाड़ों की नरम नरम धूप में सरसों के खेतों के बीच ईंट से बने मकानों को देख कर यश राज बैनर की सुपर हिट फिल्‍म, 'दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे' के कई सीन यादों के झरोखों से बरबस ही निकल रहे थे. ऐसे लग रहा था कि बस कहीं से सरसों के इन लहलहाते खेतों के बीच, काजोल का हाथ थामें शाहरुख खान दौड़ता हुआ निकल आयेगा और अचानक कानों में डॉयरेक्टर की ‘कट- कट इट’ की आवाज गूंजेगी. फर्क सिर्फ ये था कि मैं गांधी परिवार का गढ़, अमेठी, जा रहा था और खेतों में दूर दूर तक शाहरुख खान और काजोल क्या, किसी गवई रोमियों-जूलियेट का नामों निशान तक नहीं था. हां, ये जरुर लगा कि अगर यश राज ने अपनी फिल्म की शूटिंग पंजाब में ना करके उत्तर प्रदेश के ‘तथाकथित पिछड़े इलाके’, अमेठी में की होती तो शायद यश राज बैनर को जर्बदस्त फायदा मिला होता. केंद्र सरकार से प्रोत्साहन के नाम पर फिल्म टैक्‍स फ्री कर दी गई होती, अच्छी कमाई होती और जग चर्चित ‘अमेठी प्रोत्साहन ब्रिगेड’ में यश राज भी शामिल हो गये होते. गांधी परिवार के साथ शाहरुख खान की नजदीकियां भले ही संसदीय राज्य मंत्री राजीव शुक्ला की वजह से हों, लेकिन यश राज को तो बिन मांगे ही बहुत कुछ मिल गया होता.
गांधी परिवार के रसूख की छाप अमेठी में घुसने के साथ ही हवा में महसूस की जा सकती है. ऐसे लगाता है कि हर अमेठीवाला अपने आप को गांधी परिवार का अभिन्न अंग मानते हुये उसी तेवर में किसी अजनबी से बात करता है. रास्ता पूछने के लिए जब भी ड्राइवर ने गाड़ी रोकी तो लोगों ने कुछ ऐसी बातें कहीं– “आजतक वाले हो, जरुर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की सभा या मीटिंग कवर करने के लिए आये होंगे. मीडियावाले तो रोजाना आते रहते हैं. क्यों कहां हो रही है सभा? प्रियंका गांधी बच्चों को लेकर आई थीं. गांव दिखाना चाहती थीं, बच्चों को. अरे भाई, अमेठी तो गांधी परिवार का गांव ही है ना. हमारा तो घरेलू मामला है भइया”. लोग अगल-अलग थे, लेकिन सबों की बातों में कुछ ऐसा भाव था– “तुम लोग क्या जानोगे गांधी परिवार को, हम सब जानते है. भई हम अमेठी वाले हैं”.
इस तेवर से दो-चार होते हम ठहरने के लिए होटल ढ़ूंढ़ने लगे. पूरे शहर में या जिला मुख्यालय ही कहिये, कोई भी ऐसा होटल नहीं था जहां समान्य तौर पर ठहरा जा सके. तब समझ में आया कि आखिर क्यों लखनऊ में मेरे पत्रकार मित्रों ने कहा था – “सरकारी गेस्ट हाउस बुक करा लो, रहने में बहुत दिक्कत आयेगी”. अब भला मैं सरकारी कर्मचारी तो हूं नहीं कि गेस्ट हाउस आसानी से मिल जाये. गेस्ट हाउस के लिए किसी से कहवाना पड़ता. उसपर तुर्रा ये कि अधिकारी मित्र कहते – “गांधी परिवार आया हुआ है भाई, पहले बताना चाहिये था”. लिहाजा एक दोस्त के मार्गदर्शन का फायदा उठाते हुये मैंने अमेठी रेलवे स्टोशन का रुख किया. साफ-सुधरा और छोटा सा अमेठी स्टेशन किसी फिल्मी सेट से कम नहीं लग रहा था. स्टेशन मास्टर एस एन पाल के पास पहले ही फोन जा चुका था. लिहाजा स्टेशन के रिटायरिग रुम में इंतजाम किया गया था. पाल साहब ने बड़े आदर भाव से मुलाकात के बाद कमरा दिखाया. ठीक स्टेशन मास्टर के दफ्तर के बगल में. साफ और कई जिला होटलों के कमरे से बेहतर. चाय की चुस्की ली गई और शुरु हुई राजनीति पर चर्चा.
मौजूदा मायवती सरकार से पाल साहब बड़े ही निराश दिखे. चिंतित थे कि पिछले 5 सालों में राज्य का जितना पतन हुआ है उसने तो मुलायम के दौर को भी पीछे छोड़ दिया. भ्रष्टाचार और पैसे के जोर के बिना कोई काम नहीं होता और छवि बिगड़ रही है सो अलग. खुद तो केंद्र सरकार के कर्मचारी हैं, लेकिन अमेठी की पैदाइश और छात्र राजनीति में रही सक्रियता ने पाल साहब को प्रदेश की राजनिति से खासा जोड़ रखा है. अमेठी के राजा और रानी, यानी सुल्‍तानपुर से सांसद संजय सिंह और अमेठी की विधायक अमिता सिंह की जितनी भूरी भूरी प्रशंसा कर रहे थे, उससे कहीं ज्यादा कमी उन्हें खल रही थी राजीव गांधी के जमाने की. कहने लगे – “राजा साहब का दबदबा ना होता और गांधी परिवार का हाथ अमेठी पर ना हो, तो जनाब, यहां तो गुंडागर्दी और वसूली का ही धंधा चलता. जरा सोचिये, बगल के प्रतापगढ़ में कुडा के राजा भइया की दबंगई के किस्से आप सुनते ही है. बिहार भी शर्मा जाये इन जैसे लोगों की लठ्ठैती से”.
करीब आधे धंटे की बातचीत में पाल साहब ने कम से कम सौ बार राजीव गांधी के दौर का जिक्र किया. दुख इस बात का ज्यादा था– “काश, कांग्रेस सत्ता की दौड़ में होती. अमेठी की किस्मत एक बार फिर चमक जाती. राजीवजी के दौर में जो तरक्की हुई उसके बाद तो जैसे यहां ग्रहण सा लग गया”. पहले लगा कि पाल साहब शायद कांग्रेसी विचारधारा के होंगे. लेकिन जब उनकी वामपंथी सोच की जानकारी मिली तो लगा कि जनाब इलाके की बदहाली से ज्यादा परेशान है और इसीलिए राजीव गाधी के जमाने की याद में गाल गीला कर रहे हैं. वैसे पाल साहब अपनी सोच में अलहदा नहीं थें. अमेठी में कई ऐसे लोग मिले जो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को नहीं, राजीव गांधी के दौर को याद करते हैं.   
अमेठी के राजा, संजय सिंह से मिलने से पहले, सोचा जरा बस स्टैंड तक टहल कर आया जाये. रास्ते में एक पान की दूकान पर रुका. पान खाने का शौक तो है नहीं, लिहाजा बातें करने की कोशिश में अड़चन आ रही थी. लेकिन जैसे ही टीवी न्यूज की बात शुरु की लोग जुटने लगे. बातों बातों में विधायक अमिता सिंह और उनके पति संजय सिंह की चर्चा छेड़ दी. लोगों ने उनके किये काम का बखान किया और कुछ ने अमिता सिंह के खिलाफ गुस्सा जाहिर किया. लेकिन एक बात अलग सी लगी. सामंतवाद और राजवाड़े की जड़ें अमेठी में कुछ ज्यादा ही मजबूत दिखी. ‘राजा–रानी’ की बात लोग बड़े अदब से करते और उनके रसूख और दबदबे को सालों की उनकी विरासत की संज्ञा दी जाती.
राजा संजय सिंह से मुलाकात बस स्टैंड के पास ही हुई. अपनी विदेशी गाड़ी से उतर कर सांसद महोदय मेरे साथ पैदल ही निकले. सड़क पर दोनों किनारे खड़े लोगों के लिए ये नजारा जरा हट कर था. बड़े अदब से लोग उनके सामने से निकलते. राजवाड़े के प्रभाव को सालों बाद अपनी आंखों के सामने एक बार फिर देख रहा था. कुछ पुरानी यादें ताजा हो गई. सोचा नहीं था, कि 70 के जमाने के बाद, राजस्थान या बिहार से बाहर, ऐसा देखने को मिलेगा. कानों मे हीरे के कुंडल, बुर्राक सफेद कुर्ता-पजामा, सफेद स्पोर्टस जूता– सामंतवाद के 21वीं सदी के आधुनिक प्रतीक लग रहे थें, ‘राजा’ संजय सिंह. गांधी परिवार के गुणगान और कांग्रेस की महिमा गिनाते संयज सिंह ने कहा– “मायावती और मुलायम सिंह की सरकारों ने अमेठी के विकास पर जो चोट पहुंचाई है उसे कांग्रेस ही ठीक कर सकती है. पिछले 22 सालों से अमेठी के विकास के लिए आवंटित सारा पैसा दूसरे जिलों में इस्तेमाल किया जाता रहा है. ...नहीं तो पूरे भारत के लिए अमेठी एक विकास का मॉडल होता”.
पलटकर मैंने पूछा– “क्या सेंट्रल स्‍कीम पर भी राज्य सरकार जोर चला सकती है. आपके कम से कम 22 विधायक तो हैं विधानसभा में, वो तो विरोध करते. इलाके से सांसद हैं राहुल गांधी और विधायक हैं आपकी पत्नी. कुछ अटपटा नहीं लगता आपको विकास के लिए सिर्फ राज्य सरकार को दोषी ठहराना”. एक मंझे हुये क्रिकेटर की तरह संजय सिंह ने इस बाउंसर पर तर्क का बल्ला चलाया– “शायद ही कोई ऐसा मंच है जहां राहुलजी ने अमेठी के पिछड़ेपन के खिलाफ आवाज नहीं उठई है. किसानों से लेकर कारोबार तक, हर मसले पर वो राज्य सरकार से दो दो हाथ करने के लिए तैयार हैं. लेकिन अगर माया या मुलायाम सरकारें फंड ही नहीं देंगी तो कोई क्या कर सकता हैं. जहां तक एमएलए फंड का सवाल है. इतने कम पैसों में आप क्या-क्या कर सकते हैं. इस फंड के अलावा अमिता कई एनजीओ चलाती हैं और लोगों की सहायता करती हैं”. जाहिर है दोबार से अमेठी की विधायक रही अमिता सिंह के खिलाफ असंतोष पर अपनी गुगली फिट करने में संजय सिंह माहिर हो चुके हैं.
कुछ सुनी सुनाई बातों का जिक्र छेड़ते हुए, मैंने राजा साहब से पूछा– “गांवों में लोग कहते हैं कि अमिता सिंह अपनी बातों को पूरा नहीं करती. झूठ बोलती हैं. वो आज भी आपकी बातों पर यकीन करते हैं, ना कि अमिता सिंह की बातों पर”. हल्की सी मुस्कान के साथ संजय सिंह ने इस इलाके के सामंतवादी परंपरा का परिचय देते हुये कहा– “गांवों में आज भी लोग पुरुषों के वायदों पर भरोसा करते हैं. औरतों को लोग आज भी घर की दहलीज के भीतर ही तरजीह देते हैं”. साफ था कि ‘राजा’ संजय सिंह की परछाई के तौर पर उनकी पत्नी अमिता सिंह इलाके की विधायक थीं. राजघराने की बहू हैं, लिहाजा वोट मिल जाते हैं और अमिता सिंह के बहाने संजय सिंह ही अमेठी विधानसभा का परिचालन कर रहे हैं.
संजय सिंह से विदा लेकर मैं आगे बढ़ा तो इलाके के पुराने पत्रकार अरविंद शुक्ला से मुलाकत हुई. संजय सिंह से मेरी बात खत्म होने का इंतजार कर रहे अरविंदजी ने अमेठी के ठहराव की बातों को एक पत्रकार के नजरिये से सामने रखा. बातें करते करते अरविंदजी ने मुझे कुछ ऐसे लोगों से मिलवाया जो अमेठी के नामी लोग भी हैं और स्वतंत्र राय भी रखते हैं. पहले ही सबों ने कहा कि– “अगर आप हमारे नाम अपने लेख में ना लें, तो फिर खुले तौर पर बातें होगी. राजा-रानी, राहुल–प्रियंका के बारे में अगर बातें करनी है तो पेन ना निकालिये”. शर्त मंजूर कर ली हमने– लगा जानकारी ही मिले, कम से कम.
प्रदेश की राजनीति की बातों से निकलते हुये, इलाके में गांधी परिवार के वर्चस्व की बातें होने लगीं. राजा और रानी के सामंतवादी तरीकों की, लोगों ने खूब बखिया उधेड़ी. कहा– “लोगों को आज भी ये दोनों अपनी प्रजा समझते हैं. अगर अमिता सिंह खुद को ‘रानी’ कहलवाना छोड़ दें, तो 15 हजार वोट तो ऐसे ही बढ़ जाये. जनाब, अगर आज संजय सिंह की पहली पत्नी गरीमा सिंह अमेठी से खड़ी हो जायें, तो अमिती सिंह की जमानत जब्त हो जाये.''
लेकिन जिन बातों ने मुझे सबसे ज्यादा झकझोरा वो कुछ इस प्रकार हैं– “5 साल में एक बार प्रचार का कामकाज देखने अमेठी आने वाली प्रियंका गांधी, एक कुशल आयोजक तो हैं ही, लोगों को भी भूलती नहीं हैं. लगभग सभी पुराने कार्यकर्ता को चेहरे से जानती हैं. लेकिन कार्यकर्ताओं से काम लेने के वक्त वो एकदम एक तानाशाह की तरह पेश आती है. जो कह दिया, वो होना ही चाहिये. और अगर किसी ने दायें बायें करने की कोशिश की तो सीधे कहती हैं– ‘पहचानती हूं तुमको. या तो सुधर जाओ, नहीं तो सुधार देंगे. दूबारा दिखाई मत देना, अपनी शक्ल दिखाई तो.....”. तेवर और अकड़ आवाज में कुछ ऐसी कि अच्छे से अच्छा, हिल जाये. कुछ ऐसी मिसालें और भी दी गई, प्रियंका की दबंगई की. सुनकर लगा कि एसपीजी ने प्रियंका का नाम “भइयाजी” गलत नहीं रखा था. वाकई में अमेठी में आकर उत्तर प्रदेश के “भइयाजी” के रंग में ही प्रियंका रंग जाती होंगी, शायद! हालांकि प्रियंका में बिगड़ी बातों को संभालने का हुनर है, लेकिन अगर किसी कार्यकर्ता ने तेवर दिखाये तो फिर उसका भविष्य कम से कम कांग्रेस में तो नहीं होता.
कार्यकुशलता और चपलता में माहिर प्रियंका के मुकाबले राहुल गांधी का व्यवहार काफी रुखा और कई मामलों में बदतमीजी भरा होता है. लोगों की बातों पर बेबाकी से जवाब देने वाले राहुल गांधी की कोशिश होती है कि फौजी अनुशान से उनकी टीम चले. फरमान जारी होने के बाद, कोई सुनवाई नहीं. जो एक बार मुंह से निकाल गया और वह पूरा होना ही चाहिये और अगर कोई जरुरत से ज्यादा बहस करें तो फौरन बांहे चढ़ाने लगते हैं. गुस्सा नाक पर रहता है और बेजा बातों के लिए राहुल के पास कोई वक्त नहीं है.
एक वाकये के जरिए राहुल की मानसिकता को समझाने की कोशिश की गई. 2009 में चुनाव जीतने के बाद राहुल गांधी अमेठी दौरे पर थें. महिलाओं की एक सभा को संबोधित कर रहे राहुल के साथ कुछ कार्यकर्ताओं और राजीव गांधी के जमाने से गांधी परिवार से जुड़े मनोज मट्टू को जाना था. वहां मौजूद सारी महिलाएं राजीव गांधी ट्रस्ट के जिस एनजीओ में काम करती थीं उसकी अध्यक्ष मनोज मट्टू की पत्नी थीं. लिहाजा राहुल के भाषण के बाद राहुल की ‘जय-जयकार’ के साथ 'मनोज मट्टू की जय’ भी महिलाओं ने कर दी. मौके पर राहुल गांधी ने कुछ नहीं कहा. लेकिन चेहरा तन गया. गाड़ी में पहुंचे तो पीछे बैठते मनोज मट्टू से कहा– “चुनाव हमने जीता, लेकिन बड़े नेता तो आप हैं. हमारी गाड़ी में क्या बैंठेंगे, अपनी गाड़ी में आईये”. वो दिन है और आज का दिन, मनोज मट्टू अपनी जगह ही तलाश रहे हैं.
अब इसे इलाके के सामंती स्वभाव का असर कहें या गांधी परिवार का ‘अमेठी प्रेम’. इन वाकयों को अगर दिल्ली या कही और मौजूद राहुल और प्रियंका गांधी के व्यवहार से मिलाया जाये तो जमीन-आसमान का फर्क नजर आता है. सौम्य, सभ्य, मीठी वाणी में पारंगत गांधी परिवार के इन दोनों चेहरों को भला कोई ‘सामंती फरमानवाद’ और ‘अकड़’ से कैसे जोड़ सकता है. अब इसे परदे की पीछे की सच्चाई कहे या मीडिया के सामने की कार्यकुशलता, लेकिन राहुल–प्रियंका की जोड़ी पर की गई इन टिप्पणियों ने, कम से कम मुझे तो बहुत उलझा दिया. सच की शायद कई परतें होती है और हर किसी का अपना सच.
पता नहीं क्यों, बार बार अमेठी में लोगों की बातों से समाजिक पिछड़ेपन और सामंतवाद की गहरी जड़ों का एहसास हो रहा था. स्टेशन की ओर जा रहा था कि रास्ते में ‘राजा–रानी’ के फंड से चलने वाले आरआरपी कॉलेज के छात्रों से राफ्ता हुआ. पढ़ाई-लिखाई का अभाव, नौकरियों की किल्लत और चरमराती अमेठी की हालात पर खूब खुलकर बातें हुई. एक छात्रा ने कहा कि पिछड़ी जाति के बच्चों को पढ़ने की सुविधा कहां मिलती है. सरकारी स्कूल कॉलेज ठप्‍प होने की कगार पर हैं और बाकि जो ढंग की जगह हैं, वो सब राजा-रानी के प्रताप से चलती है. या तो ‘राजा–रानी’ के इंस्‍टीच्‍यूट हैं या फिर उनके पैसे से चलती हैं. तो अगर आपके गांव या जाति के लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया तो खैर नहीं आपकी. रश्मी नाम की इस लड़की ने साफ कहा– “अगर इलाके के विकास के लिए और शिक्षण संस्थानों की तरक्की के लिए राज्य और केंद्र से मिला पैसा सांसद और विधायक ने सरकारी स्कूलों और पॉलिटेक्निक कॉलेजों पर खर्च किया गया होता तो अबतक अमेठी पढ़ाई के मामले में पिछड़ा नहीं रहता”.
अमिता सिंह और संजय सिंह के खिलाफ उभरते स्वर को भुनाने में जुटे बीएसपी के प्रत्याशी आशीष शुक्ला से मेरी मुलाकात स्टेशन के रिटायरिंग रुम में हुई. राजीव गांधी के जमाने में धूर कांग्रेसी रहे शुक्लाजी अब गांधी परिवार और राजा-रानी से एक तरह से नफरत करते हैं. पिछली बार 12800 वोट से चुनाव हारे आशीष शुक्ला को इस बार अपनी जीत का 50–50 भरोसा है. मायावती सरकार की तारीफ के पुल बांधते शुक्लाजी ने अमेठी के पतन के लिए सिर्फ गांधी परिवार और राजा-रानी की महत्वकांक्षा को जिम्मेदार बताया. कहने लगे– “अगर गांधी परिवार वाकई में इस इलाके का विकास चाहता तो क्या पिछले 7 सालों से सत्ता में बैठी यूपीए सरकार कुछ नहीं करती? हर बार बहन मायावती को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. जरा कोई बताये, राजीवजी के जमाने में जो अमेठी के लिए हुआ वो अब क्यों नहीं हो सकता?”

पलटकर मैंने सवाल दागा– “शुक्लाजी, 5 सालों में आपकी सरकार ने क्या किया. कारखाने बंद हैं, किसानों को खाद नहीं मिल रहा, रोजगार के अवसर नहीं हैं, बिजली नहीं है, विकास कहां है?” शुक्लाजी ने तान भरी– “केंद्र से कोई फंड नहीं मिलता और जो मिलता है वो विधायकजी निगल जाती हैं. भ्रष्टाचार के मामले पर लोग बहनजी को घेरते हैं. जरा बताइये, क्या किसी भी स्कैम में उनका नाम आया है? जिन मंत्रियों या नेताओं का आया उन्हें बहनजी ने निकाल दिया. निकाले गये नेताओं को कांग्रेस और बीजेपी ने लपक लिया. ...और राज्य सरकार भ्रष्ट हैं!”.
शुक्लाजी की बातों में चुनावी तेवर साफ झलक रहा था और ज्यादा बहस करने का कोई फायद दिख नहीं रहा था. हां, अमेठीवासियों पर तरस जरुर आ रहा था. गांधी परिवार के कर्मस्थली माने जाने वाली अमेठी में आज खेती के अलावा कोई खास व्यवसाय नहीं है. खाद और पानी की कमी से किसान परेशान हैं, तो घर का खर्च चलाने के लिए लोग बनारस और लखनऊ जाकर काम तलाश रहे हैं. 80 के दशक में जगदीशपुर में खुले इंडस्ट्रियल पार्क में अब ना के बराबर कारखाने चलते हैं. एचएएल, बीएचएएल और ऑर्डिनेंस फैक्टरी चल रही हैं, लेकिन इनमें अमेठी के लोगों को रोजगार ना के बराबर मिलता है. कॉलेज और पॉलिटेक्निक तो कई हैं, लेकिन पढ़ाई ना के बराबर होती है. और जो पढ़कर निकलते हैं, उन्हें नौकरियां नहीं मिलती. बिजली 8–10 घंटे रहती है. ऐसे में अपने जीवन के अंधेरों से जूझते अमेठीवासियों के पास गुजरे जमाने को याद करने के सिवाय कुछ बचा ही नहीं है. 
शाम हो चली थी औऱ मुझे फराक्का मेल से वाराणसी जाना था. स्टेशन मास्टर का शुक्रिया अदा कर समान लेकर प्लेटफार्म पर डूबते सूरज को देख रहा था. दिल्ली में ऐसा शाम कहां देखने को मिलती है. ढलते सूरज की रोशनी में स्टेशन पर आती ट्रेन एक पोस्टकार्ड फोटो की तरह लग रही थी. दरवजे पर खड़े, दूर गाडि़यों के काफिले के पीछे धूल के गुबार को देख कर कुछ अमेठीवासियों की बातें याद आई– “प्रियंका गांधी कहती हैं कि वे इस संसदीय क्षेत्र की सभी 5 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को जीत दिलाने आई हैं. लेकिन अगर कांग्रेस को 2 सीटें भी मिल जाये तो गांधी परिवार की साख बची रहेगी”. जैसे–जैसे धूल का गुबार छट रहा था, मन में बस एक बात कौंध रही थी, “क्या गांधी परिवार की इज्जत बचेगी...”?
अजय कुमार

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