Wednesday, December 9, 2015

डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू का दुराग्रह



 डा.राजेन्द्र प्रसाद की शख्सियत से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर भी हाथ से जाने नहीं दिया। हद तो तब हो गई जब 12 वर्षों तक रा्ष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद पटना जाकर रहने लगे, तो नेहरु ने उनके लिए वहां पर एक सरकारी आवास तक की व्यवस्था नहीं की, उनकी सेहत का ध्यान नहीं रखा गया। दिल्ली से पटना पहुंचने पर राजेन्द्र बाबू बिहार विद्यापीठ, सदाकत आश्रम के एक सीलनभरे कमरे में रहने लगे। उनकी तबीयत पहले से खराब रहती थी, पटना जाकर ज्यादा खराब रहने लगी। वे दमा के रोगी थे, इसलिए सीलनभरे कमरे में रहने के बाद उनका दमा ज्यादा बढ़ गया। वहां उनसे मिलने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण पहुंचे। वे उनकी हालत देखकर हिल गए। उस कमरे को देखकर जिसमें देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद रहते थे, उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने उसके बाद उस सीलन भरे कमरे को अपने मित्रों और सहयोगियों से कहकर कामचलाउ रहने लायक करवाया। लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई। क्या आप मानेंगे कि उनकी अंत्येष्टि में पंडित नेहरु ने शिरकत करना तक भी उचित नहीं समझा। वे उस दिन जयपुर में एक अपनी  ‘‘तुलादान’’ करवाने जैसे एक मामूली से कार्यक्रम में चले गए। यही नहीं, उन्होंने राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डा.संपूर्णानंद को राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका। नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दे दी। लेकिन, डा0 राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नेहरू किस कदर राजेन्द्र प्रसाद से दूरियां बनाकर रखते थे।


इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा खुद डा.संपूर्णानंद ने किया है। संपूर्णानंद जी ने जब नेहरू को कहा कि वे पटना जाना चाहते हैं, राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए तो उन्होंने (नेहरु) संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो। इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया। हालांकि, उनके मन में हमेशा यह मलाल रहा कि वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं कर सके। वे राजेन्द्र बाबू का बहुत सम्मान करते थे। डॉक्टर सम्पूर्णानंद ने राजेन्द बाबू के सहयोगी प्रमोद पारिजात शास्त्री को लिखे गए पत्र में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखा था कि ‘‘घोर आश्चर्य हुआ कि बिहार के जो प्रमुख लोग दिल्ली में थे उनमें से भी कोई पटना नहीं गया, (किसके डर से?) सब लोगों को इतना कौन सा आवश्यक काम अचानक पड़ गया, यह समझ में नहीं आया, यह अच्छी बात नहीं हुई। यह बिलकुल ठीक है कि उनके जाने न जाने से उस महापुरुष का कुछ भी बनता बिगड़ता नहीं। परन्तु, ये लोग तो निश्चय ही अपने कर्तव्य से विमुख रहे.

ये बात भी अब सबको मालूम है कि पटना में डा. राजेन्द्र बाबू को उत्तम क्या मामूली स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिलीं। उनके साथ बेहद बेरुखी वाला व्यवहार होता रहा, मानो सबकुछ केन्द्र के निर्देश पर हो रहा हो। उन्हें कफ की खासी शिकायत रहती थी। उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के लिए पटना मेडिकल कालेज में एक मशीन थी कफ निकालने वाली। उसे भी केन्द्र के निर्देश पर मुख्यमंत्री ने राजेन्द्र बाबू के कमरे से निकालकर वापस पटना मेडिकल काॅलेज भेज दिया गया। जिस दिन कफ निकालने की मशीन वापस मंगाई गई उसके दो दिन बाद ही राजेन्द बाबू खाँसते-खाँसते चल बसे, यानी राजेन्द्र बाबू को मारने का पूरा और पुख्ता इंतजाम किया गया था. कफ निकालने वाली मशीन वापस लेने की बात तो अखबारों में भी आ गई हैं.


दरअसल नेहरु अपने को राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष बहुत बौना महसूस करते थे। उनमें इस कारण से बड़ी हीन भावना पैदा हो गई थी और वे उनसे छतीस का आंकड़ा रखते थे। वे डा. राजेन्द्र प्रसाद को किसी न किसी तरह से आदेश देने की मुद्रा में रहते थे, जिसे राजेन्द्र बाबू मुस्कुराकर टाल दिया करते थे। नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद से सोमनाथ मंदिर का 1951 में उदघाटन न करने का आग्रह किया था। उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उदघाटन से बचना चाहिए। हालांकि, नेहरू के आग्रह को न मानते हुए डा. राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की. डा. राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अपने संस्कारों से दूर होना या धर्मविरोधी होना नहीं हो सकता।’’ सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के वक्त डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है. डा. राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए। एक तरफ तो नेहरु डा. राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर में जाने से मना करते रहे लेकिन, दूसरी तरफ वे स्वयं 1956 के इलाहाबाद में हुए कुंभ मेले में डुबकी लगाने चले गए. बताते चलें कि नेहरु के वहां अचानक पहुँच जाने से कुंभ में अव्यवस्था फैली और भारी भगदड़ में करीब 800 लोग मारे गए।

हिन्दू कोड बिल पर भी राजेन्द्र प्रसाद, नेहरु से अलग राय रखते थे. जब पंडित जवाहर लाल नेहरू हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश में थे, तब डा.राजेंद्र प्रसाद इसका खुलकर विरोध कर रहे थे। डा. राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करने वाले कानून न बनाये जायें। दरअसल जवाहर लाल नेहरू चाहते ही नहीं थे कि डा. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनें। उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए उन्होंने ‘‘झूठ’’ तक का सहारा लिया था। नेहरु ने 10 सितंबर, 1949 को डा. राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फैसला किया है कि सी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होंगा। नेहरू ने जिस तरह से यह पत्र लिखा था, उससे डा.राजेंद्र प्रसाद को घोर कष्ट हुआ और उन्होंने पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई। पटेल उस वक्त बम्बई में थे। कहते हैं कि सरदार पटेल उस पत्र को पढ़ कर सन्न थे, क्योंकि, उनकी इस बारे में नेहरू से कोई चर्चा नहीं हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डा. राजेंद्र प्रसाद में से किसे राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। न ही उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर यह तय किया था कि राजाजी राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद के उम्मीदवार होंगे। यह बात उन्होंने राजेन्द्र बाबू को बताई। इसके बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘पार्टी में उनकी (डा0 राजेन्द प्रसाद की) जो स्थिति रही है, उसे देखते हुए वे बेहतर व्यवहार के पात्र हैं। नेहरू को जब यह पत्र मिला तो उन्हें लगा कि उनका झूठ पकड़ा गया। अपनी फजीहत कराने के बदले उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करने का निर्णय लिया।



नेहरू यह भी नहीं चाहते थे कि हालात उनके नियंत्रण से बाहर हों और इसलिए ऐसा बताते हैं कि उन्होंने इस संबंध में रातभर जाग कर डा. राजेन्द्र प्रसाद को जवाब लिखा। डा. राजेन्द्र बाबू, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए थे। बेशक, नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं की राय डा. राजेंद्र प्रसाद के हक में थी। आखिर नेहरू को कांग्रेस नेताओं सर्वानुमति की बात माननी ही पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा।

जवाहर लाल नेहरू और डा. राजेंद्र प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद बराबर बने रहे थे। ये मतभेद शुरू से ही थे, लेकिन 1950 से 1962 तक राजेन्द्र बाबू के राष्ट्रपति रहने के दौरान ज्यादा मुखर और सार्वजनिक हो गए। नेहरु पश्चिमी सभ्यता के कायल थे जबकि राजेंद्र प्रसाद भारतीय सभ्यता देश के एकता का मूल तत्व मानते थे। राजेन्द्र बाबू को देश के गांवों में जाना पसंद था, वहीं नेहरु लन्दन और पेरिस में चले जाते थे। पेरिस के धुले कपड़े तक पहनते थे। सरदार पटेल भी भारतीय सभ्यता के पूर्णतया पक्षधर थे। इसी कारण सरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद में खासी घनिष्ठता थी। सोमनाथ मंदिर मुद्दे पर डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने एक जुट होकर कहा की यह भारतीय अस्मिता का केंद्र है इसका निर्माण होना ही चाहिए।


अगर बात बिहार की करें तो वहां गांधी के बाद राजेन्द्र प्रसाद ही सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे। गांधीजी के साथ ‘राजेन्द्र प्रसाद जिन्दाबाद’ के भी नारे लगाए जाते थे। लंबे समय तक देश के राष्ट्रपति रहने के बाद भी राजेन्द्र बाबू ने कभी भी अपने किसी परिवार के सदस्य को न पोषित किया और न लाभान्वित किया। हालांकि नेहरु इसके ठीक विपरीत थे। उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी और बहन विजयालक्ष्मी पंडित को सत्ता की रेवडि़यां खुलकर बांटीं। सारे दूर-दराज के रिश्तेदारों को राजदूत, गवर्नर, जज बनाया। एक बार जब डा. राजेंद्र प्रसाद ने बनारस यात्रा के दौरान खुले आम काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारियों के पैर छू लिए तो नेहरू नाराज हो गए और सार्वजनिक रूप से इसके लिए विरोध जताया, और कहा की भारत के राष्ट्रपति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। हालांकि डा. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरु की आपत्ति पर प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझा। राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे। नेहरु की चीन नीति के कारण भारत 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। इसी प्रकार राजेन्द्र बाबू और नेहरु में राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी मतभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी। सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु अंग्रेजी परस्त नेहरू की केंद्र सरकार ने इसे नहीं माना क्योंकि, इससे अंग्रेजी देश की भाषा नहीं बनी रहती जो नेहरू चाहते थे।

वास्तव में डा. राजेंद्र प्रसाद एक दूरदर्शी नेता थे वो भारतीय संस्कृति सभ्यता के समर्थक थे, राष्ट्रीय अस्मिता को बचाकर रखने वालो में से थे।जबकि नेहरु पश्चिमी सभ्यता के समर्थक और, भारतीयता के विरोधी थे। बहरहाल आप समझ गए होंगे कि नेहरु जी किस कद्र भयभीत रहते थे राजेन्द्र बाबू से। अभी संविधान पर देश भर में चर्चाएं हो रही हैं। डा0 राजेन्द्र प्रसाद ही संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उन्होंने जिन 24 उप-समितियों का गठन किया था, उन्हीं में से एक ‘‘मसौदा कमेटी’’ के अध्यक्ष डा0 भीमराव अम्बेडकर थे। उनका काम 300 सदस्यीय संविधान सभा की चर्चाओं और उप-समितियों की अनुशंसाओं को संकलित कर एक मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करना था जिसे संविधान सभा के अध्यक्ष के नाते डा0 राजेन्द्र प्रसाद स्वीकृत करते थे। फिर वह ड्राफ्ट संविधान में शामिल होता था। संविधान निर्माण का कुछ श्रेय तो आखिरकार देशरत्न डा0 राजेन्द्र प्रसाद को भी मिलना ही चाहिए, लेकिन आंबेडकर पूजा में हम इतने व्यस्त और मस्त हो गए हैं कि राजेन्द्र प्रसाद के योगदान को गायब ही कर दिया.

संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे थे हमारे-आपके पंडित जवाहरलाल नेहरू... स्वाभाविक है कि उनकी पीढियाँ और पुरखे भी ऐसे ही षडयंत्रकारी, तानाशाही किस्म की मानसिकता के और हिन्दू द्वेषी हैं.

======================
साभार - श्री आरके सिन्हा भाजपा सांसद.

महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar)

Tuesday, November 24, 2015

सत्यमेव जयते के आमिर खान महिला मित्र पर डाला था भ्रूणहत्या का दबाव


#आमिर_खान #जेसिका_हाइंस #गर्भपात #बौद्धिक_जेहादी
जून 1998 में आमिर खान की एक फ़िल्म आई थी "गुलाम". फ़िल्म के सेट पर आमिर खान की मुलाक़ात "जेसिका हाइंस्" नाम की लेखिका से हुई.इसी महिला ने अमिताभ की बायोग्राफी भी लिखी थी। धीरे धीरे आमिर ने इस बिदेशी महिला को फ़िल्मी दुनिया का चकाचौध दिखाकर अपने ऐय्याशी के लिए प्रयोग करना शुरू कर दिया। उसके बाद आमिर ने जेसिका को प्यार के झांसे में फसा कर "लिव इन" व्यवस्था के अंतर्गत अपने वासना पूर्ति का स्थायी साधन बना लिया..समय बीतता गया और एक दिन जेसिका ने आमिर को बताया की वो गर्भवती है अर्थात आमिर खान के बच्चे की माँ बनने वाली है और आमिर से विवाह का प्रस्ताव रक्खा तो आमिर ने सबसे पहले उस महिला पर "एबॉर्शन" यानि गर्भपात कराने का दबाव बनाया मगर जब उस महिला ने बच्चे की "भ्रूणहत्या" करने से मना कर दिया तो आमिर को गर्भवती महिला के साथ रहने और उसे स्वीकारने में अपनी अय्याशी में खलल पड़ता दिखा तो उसने महिला को पहले किसी बहाने लन्दन भेजा फिर इण्डिया से खबर भिजवा दी की या तो बच्चे की "भ्रूणहत्या" करो या सारे सम्बन्ध भूल जाओ. उस महिला ने उस बच्चे को जन्म देने का निर्णय लिया और आमिर और जेसिका हाइंस के अवैध सम्बन्ध का परिणाम के रूप में एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम "जान" है..

सन 2005 में जेसिका ने बच्चे को उसका हक़ दिलाने का प्रयास किया मामला टीवी मिडिया में छाया रहा मगर आमिर खान ने ऊपर तक पहुँच और पैसे के बल पर मामला दब गया और सलटा लिया गया..आज आमिर का वो लड़का लगभग 12 साल का है और मॉडलिंग करता है..
मैंने जेहादी आमिर का "सत्यमेव जयते" आज तक नहीं देखा मगर इसने भ्रूणहत्या पर जरूर कार्यक्रम किया होगा ऐसी आशा है..आखिर ऐसी दोगलपंथी की अपने बच्चे तक को न स्वीकारो??? आज आमिर को भारत में #असहिष्णुता दिख रही है क्या अपने बच्चे को माँ के पेट में ही मारने का कुत्सित प्रयास सहिष्णुता माना जाये..ये तो एक केस है ऐसे पता नहीं कितने "जान" आमिर की ऐय्याशी के कारण विश्व के किसी कोने में किराए के बाप की तलाश में होंगे। इसी आमिर खान ने अपने बड़े मानसिक रूप से अस्वस्थ भाई और अभिनेता "फैजल खान" को आमिर ने अपने घर में जबरिया बंधक बना के रक्खा था और आमिर के पिता के कोर्ट जाने के बाद कोर्ट के आदेश पर आमिर के पिता को फैजल खान की कस्टडी मिली..
खैर ये तो है इस जेहादी अभिनेता का चरित्र जिसे हम और आप "मिस्टर परफेक्ट" और फलाना ढिमका कहते हैं। सरकारो की मजबूरी होती है इस प्रकार के प्रसिद्ध लोगो को ढोना सर पर बैठाना क्योंकि करोडो युवा ऐसे नचनियों को आदर्श बना बैठे हैं...मगर इसके पीछे हम और आप है जो इनकी फिल्मो को हिट कराते हैं ये अरबो कमा कर भी #भारत_माता का खुलेआम #अपमान करके पुरे देश को विश्व में बदनाम करते हैं.
आइये आमिर और शाहरुख़ से ही शुरुवात करें की इन नचनियों की फ़िल्म नहीं देखेंगे। अगर इन के नाच गाने पर फिर भी किसी का दिल आ गया है तो जल्द से जल्द इसकी हर रिलीज होने वाली फ़िल्म की CD को इंटरनेट मार्केट में डाल दें जिससे इन जेहादियों को मिलने वाली रेवेन्यू पर रोक लगे...

आशुतोष की कलम से

यूरोप ने हजारों पाकिस्तानियों को देश छोड़ने को कहा

यूरोप हजारों पाकिस्तानी प्रवासियों को अपने देशों से निकालने की योजना बना रहा है। सोमवार को एक सीनियर रायनयिक ने कहा कि ऐसा वैध शरणार्थियों को जगह और संसाधन देने के लिए किया जा रहा है। पलायन, होम अफेयर्स और नागरिकता से जुड़े यूरोपीयन कमिश्नर दिमित्रीज अवरामोपॉलस ने पाकिस्तान दौरे में शरणार्थियों के संकट पर यह बात कही। हालांकि हाल में सीरियाई और अफगानी शरणार्थी बड़ी संख्या में यूरोप पहुंचे हैं। पाकिस्तानी भी यूरोप में शरण चाहते हैं। उन्होंने कहा कि शरणार्थियों के कारण यूरोप में तनाव की स्थिति है। दिमित्री ने कहा कि इस साल 760,000 प्रवासी यूरोप पहुंचे हैं।

हालांकि पाकिस्तान अपेक्षाकृत इस्लामिक आतंकवाद के मामले में थोड़ा स्थिर है। आधिकारिक रूप से बताया गया है कि 20 पर्सेंट से कम पाकिस्तानियों को यूरोप में शरण मिली हुई है। बताया जा रहा है कि ये सभी अवैध रूप से यहां पहुंचे हैं। दिमित्री ने कहा कि पाकिस्तानी राजनीतिक शरणार्थी के योग्य नहीं हैं। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रक्रिया जारी है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान वैसा देश नहीं है जहां नागरिकों को प्रताड़ित किया जा रहा है। पाकिस्तान में विकास के काम हुए हैं।


यहां तक कि इस साल शरणार्थी संकट के कारण करीब 168,000 अवैध पाकिस्तानी प्रवासियों को 28 देशों वाला यूरोपीय यूनियन ने निकल जाने का आदेश दिया था। ये सभी 2008 से 2004 के बीच आए थे। लेकिन फ्लाइट्स के अभाव और नौकरशाही देरी के कारण केवल 55,750 पाकिस्तानियों को ही यूरोप से निकाला जा सका। दिमित्री की यात्रा से पहले पाकिस्तानियों को स्वदेश भेजने में काफी दिक्कतों का साामना करना पड़ा रहा था। पिछले हफ्ते पाकिस्तानी गृह मंत्री ने कहा था कि पाकिस्तानी एयरलाइंस लंबे समय तक लोगों को वापस लाने में सक्षम नहीं है।

अन्य शिकायतों के अलावा पाकिस्तानी गृह मंत्री चौधरी अली खान निसार ने कहा कि यूरोपीय यूनियन के देश उन लोगों की राष्ट्रीयता नहीं बता रहे जिन्हें भेजा जा चुका है। खान इसलिए भी नाराज हैं क्योंकि कुछ वैसे पाकिस्तानियों को भी गलत तरीके से आतंकियों से संबंध को लेकर संदिग्ध बता पाकिस्तान भेज दिया गया। उन्होंने शनिवार को कहा कि यह पाकिस्तानियों और मानवता को अपमानित करने जैसा है। खान ने कहा कि प्रवासियों को उनके गृह देश के बजाय पाकिस्तान भेजा जा रहा है।

खान ने कहा कि हम पाकिस्तानी नागरिक के नाम पर अफगानी, बांग्लादेशी, बर्मन और भारतीयों को स्वीकार नहीं करेंगे। खान ने कहा कि इन्होंने रिश्वत देकर फर्जी दस्तावेज बनाए हैं। लेकिन दिमित्री ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान खान के साथ भी बैठक की। इसके बाद से दोनों देशों की बीच एक किस्म की सहमति बनी है। दोनों पक्ष पाकिस्तानी नागरिक की वापसी पर सहमत हो गए हैं।

हालांकि यूरोपीय यूनियन के अधिकारी दोनों नेताओं के बीच बनी सहमति से बहुत खुश नहीं हैं क्योंकि यह समझौता वैध पाकिस्तानी प्रवासियों पर लागू नहीं होगा। यूरोपीयन देशों ने स्वीकार किया है कि 50,000 पाकिस्तानियों के हर साल परिवार वालों से मिलने, गेस्ट वर्कर प्रोग्राम्स, उच्च शिक्षा और अन्य तरह के अनुरोध आते हैं। दिमित्री ने कहा कि अब इस तरह के आवेदन पाकिस्तान में होने चाहिए।

Thursday, November 12, 2015

टीपू सुल्तान, सेक्युलर था, धर्मनिरपेक्ष था, इन्साफ पसंद था तो सही ही कहते होंगे ! 800 लोगों को कटवा देना कोई जुर्म थोड़ी ना है ?

तिरुपति से मेल्कोट आकर कई आयंगर ब्राह्मण बरसों पहले बसे थे | इस इलाके को आज मांड्या जिले में माना जाता है | एक ही परिवार के थे तो सबका गोत्र भी एक ही था – भारद्वाज | गोत्र और मूल ब्राह्मणों में एक ही परिवार के अलग अलग जगह बसे सदस्यों को पहचानने का तरीका भी रहा है | इनकी तमिल भी थोड़ी सी अलग होती है, इसे मंडयम तमिल कहते हैं |

टीपू सुलतान के एक मंत्री शमैयाह आयंगर इसी इलाके के मंडयम आयंगर थे | कहीं से टीपू सुलतान को उनके वोडेयर रानी लक्ष्माम्मानी से मिलने की खबर मिली | खबर की जांच करना टीपू सुलतान ने जरूरी नहीं समझा | तीसरे अँगरेज़ – मैसूर युद्ध की शर्तो से भड़के हुए टीपू सुलतान ने इलाके को जा घेरा |
मांडयम आयंगर उस समय नरका चतुर्दशी के बाद त्योहारों की तैयारी में लगे थे | गाँव के आठ सौ लोग बिना सवाल के काट दिए गए |

तब से आज करीब दो ढाई सौ साल बाद भी ये मांडयम आयंगर नरका चतुर्दशी के बाद त्यौहार रोक देते हैं | बरसों से इन घरों में कोई दीवाली नहीं हुई |
सेक्युलर परंपरा को ध्यान में रखते हुए हमारे इतिहासकार मानते रहे कि रानियाँ तो होती नहीं थी भारतीय इतिहास में ! इसलिए अपने पति की मृत्यु के बाद टीपू सुलतान के आस पास के इलाके में राज्य विस्तार की प्यास के वाबजूद अपने बेटे को राजगद्दी तक पहुँचाने वाली कोई होगी नहीं | बीच के इतने समय कोई वोडेयर रानी लक्ष्माम्मानी तो गद्दी संभालेगी नहीं न ?
और फिर सेक्युलर टीपू के मारे गए असहिष्णु हिन्दू परिवारों के सम्बन्धी आज भी दीपावली नहीं मनाते तो क्या हुआ ? टीपू की जयंती तो मनाई ही जा रही है !
बाकि लोग कहते हैं की टीपू सुल्तान, सेक्युलर था, धर्मनिरपेक्ष था, इन्साफ पसंद था तो सही ही कहते होंगे ! 800 लोगों को कटवा देना कोई जुर्म थोड़ी ना है ?

लाल झंडे के सिपाहियों जरा इस मुद्दे पर भी गौर फरमा लो

जब भारत का बंटवारा होकर पकिस्तान बना तो भारत में कई हिन्दू शरणार्थी भी आने लगे. शुरू में आने वाले अमीर लोग थे, उन्होंने अपने लिए घर का रोज़गार का इंतजाम कर लिया.

धीरे धीरे बाकी बचे उन लोगों को भी समझ आने लगा जो पकिस्तान को अपना घर मानकर रुक गए थे. गरीबी से त्रस्त लोगों को जब शोषण झेलना पड़ा तो धीरे धीरे उन्होंने भी भारत में आना शुरू किया.

इन्हें बसने के लिए जगह देना एक समस्या थी. तो इन्हें लेकर बसाया गया दंडकारण्य में.  जी हाँ, वही जगह जिसका जिक्र आपने रामायण में सुना/ पढ़ा/ देखा होगा. बरसों तक ये शरणार्थी वहीँ रहते रहे. फिर एक दिन विपक्ष के एक नेता ज्योति बसु ने चिट्ठी लिखी कि ये शरणार्थी बंगाली हैं. इन्हें हम बंगाल में जगह देंगे.

बाद में जब पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार आई तो मार्क्सिस्ट फॉरवर्ड ब्लाक के एक मंत्री राम चटर्जी दंडकारण्य के इन शरणार्थी शिविरों का हाल देखने गए. उन शरणार्थियों को अपने घर लौट आने का निवेदन भी किया.

तो इस तरह 1978 में बड़ी संख्या में शरणार्थी बंगाल आने लगे थे. लेकिन तब तक वामपंथी लेफ्ट फ्रंट अपनी सरकार बना चुकी थी, और उनका कहना था कि शरणार्थी तो भारत के हैं! बंगाल के थोड़ी न हैं शरणार्थी!

बंगाल में नामशुद्र के परिचय से पहचाने जाने वाली तथाकथित छोटी जाति के इन शरणार्थियों के लिए अब भयानक समस्या हो गई. अपने शिविर वो छोड़ आये थे और यहाँ रहने खाने का कोई ठिकाना नहीं. दंडकारण्य से आये करीब 1,50,000 (डेढ़ लाख) लोगों को जबरन वापिस भेजा जाने लगा.

इनमे से करीब 40,000 शरणार्थियों को हसनाबाद, मारिचझापी में जगह दी गई थी. ये इलाका सरकारी संरक्षित वन है. यहाँ सुंदरबन के बाघों को रहने की जगह दी गई है, हिन्दू शरणार्थियों का वहां क्या काम? तो इस तरह 24 जनवरी, 1979 को इस इलाके में आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए.

पश्चिम बंगाल की पुलिस स्थानीय प्रशासन की मदद में उतरी. तीस (30) मोटरबोट, लांच और नाव इस इलाके में गश्त पर जुट गए. वामपंथी सरकार ने इलाके का पानी और खाना रोक दिया.

कर्बला जैसी किसी जगह की याद आ रही हो तो जरा थामिए अपनी भावनाओं को! 31 जनवरी को भूखे लोगों पर वामपंथी पुलिस ने गोलियां भी चलाई थी. पंद्रह दिन बाद कलकात्ता के हाई कोर्ट का फरमान आया, लोगों को पानी, डॉक्टर और खाने जैसी जरुरी सुविधाओं से वंचित ना किया जाये.

आर्थिक प्रतिबंधों में नाकाम होने पर लेफ्ट फ्रंट की सरकार ने लोगों को मई में जबरन निकालने की कोशिश शुरू की. इस कैंप का नाम शरणार्थियों ने नेताजी नगर रखा था. इलाके से मीडियाकर्मियों को बाहर कर दिया गया और पुलिस बल की कार्रवाई शुरू हुई.

40,000 लोगों में जो बचे, उनमे से कुछ को बारासात के शिविर में रखा गया था, कुछ सियालदाह के रेलवे पटरी के पास जा बसे, कुछ हिंगलगंज, और कुछ कैनिंग के शिविरों में.

हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबार गिनती 1000 तक बताते हैं. लेफ्ट फ्रंट ने कितनो को मरवाया ये अज्ञात है. मगर लाल झंडे के रंग में खून कम तो नहीं लगा होगा!

-आनंद कुमार की फेसबुक पोस्ट

Saturday, November 7, 2015

देशद्रोही ताकतों के हाथो बिका हुआ है मोदी पर इल्जाम लगाने वाला रिटायर आईपीएस आरबी श्रीकुमार



जिस आईपीएस अधिकारी आरबी श्रीकुमार ने प्रख्यात वैज्ञानिक नम्बी नारायणन को 1994 के इसरो जासूसी कांड में झूठे फंसाकर देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम को धक्का पंहुचाया था, वही बाद में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार के विरूद्ध मुहिम चला रही तीस्ता सेतलवाड जैसे राष्ट्र-विरोधी तत्वों से मिल गया है।

'गुजरात के पूर्व डीजीपी और गुजरात सरकार के खिलाफ दंगों और मुठभेड़ को उठाने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता के साथ जुड़े आरबी श्रीकुमार ने देशभक्त वैज्ञानिक नम्बी नारायण को एक सौदागर के रूप में बदनाम करने की कथित साजिश की और उनके विरूद्ध मामला बनाया। देश के हितों को नुकसान पहुंचाने वाले उनके इस जघन्य अपराध के बावजूद संप्रग सरकार ने उसके विरूद्ध अधिकांश आरोप वापस ले लिए।' नारायण ने 1970 के दशक की शुरुआत में भारत के लिक्विड फ्यूल टेक्नोलाजी की शुरुआत की जब पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम वैज्ञानिक थे और उनकी टीम सालिड मोटर्स पर काम कर रही थी। पोलर सेटेलाइट लांच व्हीकल में भी उनका योगदान है जिसकी बदौलत 2008 में चंद्रयान-1 भेजा गया।

                 तीस्ता सेतलवाड जैसे राष्ट्र-विरोधी  के  साथ पूर्व  आईपीएस अधिकारी आरबी श्रीकुमार

लेकिन दुर्भाग्यवश इसरो जासूसी मामले ने एक प्रतिभाशाली राकेट वैज्ञानिक का पूरा करियर खत्म कर दिया और इसका देश को नुकसान उठाना पड़ा। बाद में नारायणन को निर्दोष पाया गया। दिलचस्प बात यह है कि 2004 में ही साफ हो गया था कि कुछ लोगों के इशारे पर इसरो जासूसी मामले को मनगढंत बनाकर पेश किया गया है और इस तरह की शत्रुता इसरो और भारत के लिए हानिकारक है। इस मामले में धूर्तता करने वाला और कोई नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति, श्रीकुमार है।'

लेकिन 2004 में संप्रग के सत्ता में आने पर चीजों ने पलटा खाया और श्रीकुमार को क्लीन चिट दे दी गई। गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी किया और बिना जांच के ही 9 में से 7 आरोप वापस ले लिए गए। बदले में श्रीकुमार से उम्मीद की गई कि वह राजनीतिक कारणों से गुजरात में भाजपा सरकार के खिलाफ झूठ और असत्य से भरे आक्षेप लगाएं। स्पष्ट रूप से श्रीकुमार को अपने राजनीतिक वादियों से निपटाने का काम दिया गया और वह आज भी उसे कर रहे हैं।' उनके अनुसार श्रीकुमार ने 4 नवंबर 2010 में तीस्ता सीतलवाड़ के पूर्व सहायक रईस खान के साथ बातचीत में स्वीकार किया कि जब मेरे खिलाफ आरोपपत्र दायर हुए तो तीस्ता ने मेरी मदद की।

1994 के दौरान श्रीकुमार तिरूअनंतपुरम में एसआईबी उप निदेशक थे और उन्हें इसरो जासूसी मामले की जांच सौपी गई। श्रीकुमार ने ना केवल नारायणन को सौदागर के रूप में बदनाम किया बल्कि उनका शारीरिक उत्पीड़न भी करने सहित उनके साथ दुव्र्यवहार किया। श्रीकुमार के इस आचरण पर 1999 में भारत सरकार ने उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू की। उनके विरूद्ध चार्जशीट में कहा गया कि श्रीकुमार ने कानूनी औपचारिकताएं पूरी किए बिना केरल पुलिस की हिरासत से आरोपी व्यक्ति को अपने कब्जे में लिया और राज्य पुलिस को अलग करके स्वतंत्र जांच की। इसमैं यह भी कहा गया कि जासूसी कांड मामले में श्रीकुमार को यह बात पूरी तरह से पता थी कि उनकी टीम द्वारा तैयार रिपोर्ट विरोधाभास से भरी है। बाद में नारायणन सहित सभी आरोपी आरोपों मुक्त हो गए और 2001 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने नम्बी नारायणन को 10 लाख रूपए का अंतरिम मुआवजा देने का आदेश दिया।
- Jitendra Pratap Singh

Monday, October 26, 2015

श्रीकृष्ण की गाथा सुनने सऊदी अरब से आया ये मुस्लिम युवक

कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण के संसार को दिए प्रेम और भक्ति के संदेश से एक मुस्लिम युवक इतना प्रभावित हुआ कि वह कृष्ण की भक्ति में लीन हो गया। अब वह पांचों वक्त की नमाज अदा करने के साथ ही भगवान कृष्ण की पूजा आराधना भी करता है।

बिहार के सिबान के मूल निवासी मोहम्मद इकराम खान साऊदी अरब की शिपिंग कंपनी में नौकरी करते हैं। भागवताचार्य श्यामसुंदर पाराशर के शिष्य बन चुके मोहम्मद इकराम चैतन्य विहार कालोनी स्थित राधा माधव दिव्यदेश में चल रही भागवत कथा सुनने साऊदी अरब से आए हैं।

उन्होंने बताया कि लगभग छह वर्ष पूर्व वह वृंदावन आए और रमणरेती स्थित एक आश्रम में ठहरे। यहां उन्होंने भागवत कथा सुनी और भगवान कृष्ण के चरित्र को जाना। इसके बाद वह चार पांच बार वृंदावन आए और भागवत कथा सुनी। तभी से भगवान कृष्ण द्वारा संसार को दिए प्रेम और कर्म के संदेश से वह इतने प्रभावित हुए कि हर दिन सुबह नमाज के साथ भगवान कृष्ण की पूजा करते हैं।

मोहम्मद इकराम कहते हैं कि धर्म कोई हो, वह भक्ति और भाईचारा सिखाता है न कि खून खराबा। उन्होंने कहा कि हर मुसलमान मांस नहीं खाता। गोमांस पर हो रहे विवाद से आहत मोहम्मद इकराम ने कहा कि यह राजनेताओं द्वारा वोटों की खातिर पैदा किया गया ऐसा मुद्दा है जो देश के अमन चैन और भाईचारे के लिए नुकसान देह है।

देश में हर बात को सांप्रदायिकता का रंग देने की प्रवृति पर भी उन्होंने अफसोस जताया। उन्होंने कहा कि युवा जब तक अपने धर्म की मूल भावना और आस्था के महत्व को नहीं समझेगा तब तक भटकाव और बिखराव के हालात बनते रहेंगे।
स्रोत: अमर उजाला

Sunday, September 27, 2015

क्या सिर्फ फ्री बिजली -पानी से होगा 'मेक इन इंडिया'?

नई दिल्लीः प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका में दिग्गज कंपनियों के साथ मुलाकात कर उन्हें भारत में निवेश के लिए आमंत्रित कर रहे हैं. लेकिन दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को ये रास नहीं आया. उन्होंने कहा, ''पीएम विदेश में गिड़गिड़ा रहे हैं पहले उन्हें मेक इंडिया करना होगा.''
सवाल उठता है कि क्या लोगों को मुफ्त बिजली और पानी देकर देश के लिए अच्छे दिन लाए जा सकते हैं ? और अगर नहीं तो मेक इंडिया पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं . माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्य नडेला, एपल कंपनी के सीईओ टिम कुक, गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई, एडोबी के सीईओ शांतनु नारायण और टेस्ला कंपनी के सीईओ एलॉन मस्क के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हैंड सेक देश के लिए अच्छे दिन लाने में बड़ा अहम साबित हो सकता है .और शायद इसका आगाज भी हो चुका है .


गूगल के सहयोग से देश के 500 रेलवे स्टेशनों पर फ्री वाई फाई लाने का एलान हुआ, माइक्रोसॉफ्ट ने भारत के 5 लाख गांवों में सस्ती दर ब्रॉडबैंड सेवा देने में सहयोग का वादा किया, तो टेस्ला मोटर्स ने भी भारत में निवेश के लिए अपनी हामी भर दी.
एक ओर प्रधानमंत्री अच्छे दिन वाया अमेरिका लाने के लिए सिलिकॉन वैली में डटे हुए हैं तो दूसरी ओर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पीएम की कोशिश को विदेश में जाकर गिड़गिड़ाना करार दिया है.

केजरीवाल कह रहे हैं कि ''मेक इन इंडिया'' से पहले मेक इंडिया यानी भारत को बनाना होगा. केजरीवाल जिस भारत को बनाने की बात कर रहे हैं क्या बगैर ब्रांडिंग ऐसा भारत बनाना संभव है.

जिस देश में चपरासी के 368 पोस्ट के लिए 23 लाख से ज्यादा लोग आवेदन कर देते हैं, उस देश में बिना फैक्ट्री लगाए और विदेशी कंपनियों को निवेश के लिए आमंत्रित किए बिना लाखों-करोड़ युवाओं को  रोजगार कैसे दिया जा सकता है ?

आर्थिक और सामाजिक मामलों में भारत की तुलना जिस चीन से अक्सर से की जाती है, वही चीन अपनी ब्रांडिंग की बदौलत ही भारतीय बाजारों में छाया हुआ है. इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान हों या फिर होली, दीवाली जैसे त्योहार made in china लिखे सामान ज्यादा नजर आते हैं. क्यों? क्योंकि चीन ने अपने देश में उद्योगों को इतनी सहूलियतें दी हैं कि विदेशी कंपनियां चीन के नियमों के मुताबिक काम करने को तैयार रहती हैं. ऐसे में भारत भले ही सबसे ज्यादा युवाओं वाला देश हो लेकिन जब तक देश की ब्रांडिंग नहीं होगी शायद तब तक विदेशी कंपनियों को आकर्षित करना बेहद मुश्किल होगा.
एबीपी न्यूज

Saturday, September 26, 2015

मुस्लिम लॉ बोर्ड की खुली चिट्ठी, ब्राह्मण धर्म इस्लाम के लिए खतरा

लखनऊ। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अब एक खुली चिट्ठी लिखकर ब्राह्मण धर्म और वैदिक संस्कृति को इस्लाम के लिए खतरा बताया। एआईएमपीएलबी मुसलमानों की वह संस्था है जो मुस्लिम कानून और शरीयत से संबंधित मामले देखता है। मौलाना वली रहमानी इसके महासचिव हैं।
इस चिट्ठी में लिखा गया है कि शुक्रवार को जुमे की नमाज के दौरान इमामों को बाकी लोगों के साथ इस बारे में विचार कर आंदोलन के लिए तैयार करना चाहिए।
लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना वली रहमानी की ओर से जारी चिटी में योग के साथ ही मुसलमानों को सूर्य नमस्कार करने से भी मना किया गया है। चिट्ठी में लिखा है कि सूर्य नमस्कार सूर्य की पूजा करना है, यह वैदिक सभ्यता और ब्रा±मण धर्म का हिस्सा है। ऎसे में यह हमारे धार्मिक विश्वास के साथ मेल नहीं खाता।
रहमानी ने संगठनों और पदाधिकारियों को लिखे लेटर में कहा है कि उन्हें इस्लाम की शिक्षाओं के बारे में अपने समुदाय के लोगों को जागरूक करते रहना चाहिए। बोर्ड ने योग, सूर्य नमस्कार और वंदे मातरम को प्रमोट करने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए कहा है कि यह मुस्लिम विचारधारा के खिलाफ है।
रहमानी की चिटी में दावा किया गया है 21 जून को योग दिवस मनाया गया, क्योंकि उस दिन आरएसएस के आइकन रह चुके कुशु बाली राम हेगड़े का निधन हुआ था। चिटी में लिखा है कि संविधान हमें न सिर्फ अपनी इच्छा से धर्म अपनाने की स्वतंत्रता देता है बल्कि धर्मनिरपेक्ष सरकार की भी बात कहता है।

Friday, September 25, 2015

पंडित दीनदयाल उपाध्याय: मातृभूमि का सच्चा सपूत

ये 1942 की बात है, जब एल. टी. की परीक्षा उतीर्ण करने के पश्चात एक मेधावी युवा ने अपने परिवारीजनों की विवाह करने और नौकरी करने की इच्छाओं को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करने के बाद स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उत्तर प्रदेश में संगठन करने में जुटे भाउराव देवरस के समक्ष प्रस्तुत किया और कहा कि मैंने संघ कार्य हेतु पूरा जीवन देने का निश्चय किया है और मैं कहीं भी भेजे जाने हेतु प्रस्तुत हूँ।
उस युवा को प्रचारक के रूप में सबसे पहले उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले के गोल गोकर्णनाथ भेजा गया। यहाँ पहुंचकर उस युवा को बहुत कसाले झेलने पड़े। ना रहने का ठिकाना, ना खाने की व्यवस्था। एक भड़भूजे के यहाँ से दो चार पैसे के चने लेकर और लोटा भर पानी पीकर किसी प्रकार पेट की ज्वाला शांत की जाती। यह क्रम कई दिन तक चलता रहा।

संयोगवश कसबे का एक धनीमानी व्यक्ति अपने कार्यालय से इस होनहार युवा की ये दिनचर्या लगातार देख रहा था। इस युवक की चमकीली आँखों में एक विलक्षण सपना पलते देख उस धनाढ्य वकील ने एक दिन कौतुहलवश उससे पूछा कि उसके यहाँ आने और इस प्रकार कष्ट सहते रहने का क्या कारण है।
उस युवा ने जब संघ का महान ध्येय और हिन्दू संगठन की व्यवहारिक कल्पना उन सज्जन के सामने रखी तो उनकी आँखें छलछला आयीं। वो उस युवा को तुरंत अपने घर ले गए, भोजन कराया और आगे हमेशा के लिए अपना घर और भोजनालय ही नहीं, अपितु हृदय भी उस युवा और संघ के लिए खोल दिया।
वो सज्जन थे गोला गोकर्णनाथ के प्रसिद्द वकील श्री कुंजबिहारीलाल राठी, जो आगे चलकर भारतीय जनसंघ उत्तर प्रदेश के मंत्री बने और आजीवन उस युवा और संगठन दोनों से पूर्ण समर्पित भाव से जुड़े रहे। पर कष्टों में तप कर भी संगठन को गति देने वाला वो युवा कौन था?
वो थे अजातशत्रु पंडित दीनदयाल उपाध्याय, जो आगे चलकर भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष पद तक पहुंचे और जिनके द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद आज भी विद्वानों को विश्व की समस्यायों को पूंजीवाद और साम्यवाद की विदेशी जमीनों पर पनपी विचारधाराओं से भिन्न एक अलग ही दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित करता है।
'राजनीति में अनेक नेता आयेंगे, पर यह अभागा राष्ट्र दीनदयाल के लिए तरसेगा|'
दीनदयाल जी की आकस्मिक मृत्यु के बाद दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादक श्री रतनलाल जोशी द्वारा उनके प्रति श्रद्धांजलि स्वरुप कहे गए ये शब्द आज भी कितने सटीक हैं| समय बढ़ता गया, अनेक नेता आये और चले गए पर कोई भी सादा जीवन उच्च विचार के प्रतीक, भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करने वाले एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा के प्रणेता, प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता , समाजसेवक, साहित्यकार पंडित दीनदयाल उपाध्याय का स्थान नहीं ले सका|
25 सितंबर, 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में भगवती प्रसाद उपाध्याय और रामप्यारी के घर जन्में दीनदयाल जी ७ वर्ष की आयु तक आते आते माता पिता दोनों के स्नेह से वंचित हो गए और उनका लालन पालन उनके मामा ने किया| प्रारंभ से ही मेधावी छात्र रहे पंडित जी ने बी.एस-सी., बी.टी. करने के बाद भी नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गए थे, अत: कालेज छोड़ने के तुरंत बाद वे संघ के प्रति पूर्ण रूप से गए और एकनिष्ठ भाव से संगठन का कार्य करने लगे।
राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन हेतु उन्होंने लखनऊ में ''राष्ट्र धर्म प्रकाशन'' नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका ''राष्ट्र धर्म'' शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरूआत की।
सन् 1950 में नेहरु मंत्रिमंडल में मंत्री डा0 श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डा0 मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में संघ के तत्कालीन सरसंघचालाक श्री गुरूजी से मदद मांगी। श्री गुरुजी ने अत्यंत सोच विचार कर जो युवा डाक्टर मुखर्जी को दिए , उसमें पंडित दीनदयालजी अग्रगण्य हैं|
उन्होंने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और इसमें एक नए दल भारतीय जनसंघ की राज्य इकाई की नींव डाली गयी। प्रारंभ में वे दल के प्रदेश मंत्री बनाये गए और दो वर्ष बाद सन्‌ १९५३ ई. में वे अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग १५ वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। कालीकट अधिवेशन (दिसंबर, १९६७ ई.) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
वे इतने कुशल संगठनकर्ता थे कि डा. श्यामप्रसाद मुखर्जी उनके लिए कहा करते थे कि अगर भारत के पास दो दीनदयाल होते तो भारत का राजनैतिक परिदृश्य ही अलग होता| अजातशत्रु दीनदयाल प्रसिद्धि की नयी ऊंचाइयों को छू ही रहे थे कि 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनका मृत शरीर मिलने से सारे देश में शोक की लहर दौड़ गई|
उनकी इस तरह हुई मृत्यु सदैव संदेह के घेरे में रही और आज तक हम घटना की वास्तविकता से परिचित नहीं हो सके हैं| भले ही उनका पार्थिव शरीर बरसों पहले हमसे दूर हो गया हो पर वो आज भी हर उस व्यक्ति के हृदय में जीवित हैं जिसकी आँखों में भारतमाता को परम वैभव पर पहुंचाने का सपना पलता है| इस महामानव को उनके जन्मदिवस पर कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|
नवयुग के चाणक्य, तुम्हारा इच्छित भारत
अभिनव चन्द्रगुप्त की आँखों का सपना है |
जिन आदर्शों के हित थे तुम देव समर्पित,
लक्षाधिक प्राणों को, उनके हित तपना है

Tuesday, September 22, 2015

विचार, प्रचार और राष्ट्रवादी बौद्धिक असफलताएँ : कारण और निवारण


विषय प्रवेश
-----
किसी भी समाज में विचार बरसों बरस के लिए कैसे स्थापित होते हैं इसको समझना है तो भारत में वामपंथ को समझिए , आज गंभीर "राष्ट्रवादियों" का एक बहुत बड़ा तबका वामपंथियों को कोसने में अपना समय खर्च करता है , क्यों ? क्या वामपंथी एक दो राज्य छोड़कर कहीं सत्ता में हैं ? क्या उनका कोई व्यापक जनाधार है ? क्या उनका काडर बेस है ? क्या यूवा उनके विचार की तरफ तरफ आकर्षित हैं ? नहीं , सबका जवाब नहीं में ही आएगा ऐसा कुछ भी नहीं है फिर भी देश के केंद्र में और आधे राज्यों में राज करने वाली विचारधारा के लोग वामपंथ से भयाक्रांत हैं ? क्यों ? जवाब है  उस विचार को जीने वाले और उसके लिए माहौल बनाने वाले विचारक / प्रचारकों का  "बौद्धिक विमर्श" (intellectual discourse) और सूचना की व्याख्या (interpretation of information ) करने वाली लगभग सभी प्रकार की संस्थाओं पर प्रभुत्व !! आगे बढ़ने से पहले ये भी बताना ज़रूरी है की एक प्रबुद्ध विचारक एक अच्छा प्रचारक भी सिद्ध हो ये ज़रूरी नहीं , खासकर वह जो समकालिक (contemporary ) विचारों को स्वीकारते हुए भी अपनी विचारधारा को समझा और फैला सके !!

दरअसल जब जब भी मैं वामपंथ को इस लेख में संदर्भित करूँ तब तब आप उसे समाजवाद , नेहरुवाद , जिहादवाद के साथ ही समझियेगा क्योंकि ये सब चचेरे ममेरे भाई हैं , सब एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे को बचाने समय समय पर आगे आते रहे हैं , यही पूरी बहस का सबसे रोचक पहलु भी है और सबसे दुःखद भी , क्योंकि राष्ट्रवाद इतना सहज और पवित्र विचार होते हुए भी अलग थलग दिखाई देता है  , संघ परिवार के उद्भव के सौ साल बाद तक भी राष्ट्रवाद अकेला चल रहा है , लाखों करोड़ों की पैदल सेना है , पर प्रचारक रुपी किले नहीं है !! मैं बचपन से संघ के वातावरण में ही पला बढ़ा हूँ , सैकड़ों संत रुपी विचारनिष्ठ तपस्वियों और मनीषियों को बहुत करीब से देखा है , इसलिए ये कहना की संघ परिवार के पास विचारक ही नहीं है ये उस महान संगठन के ऊपर मेरे जैसे अल्पज्ञानी का दिया हुआ लांछन होगा !! पर याद रखें आप जनता का दिल जीत लें , पर राज्य तो किले जीतने वाले का ही कहलाता है , "राज्य" के संदर्भ यहाँ उस  बौद्धिक विमर्श से है जिसमे हम हमेशा हारते आये हैं , पैदल की सेना रवीश कुमार पर गालियों की बौछार कर सकती है पर उसे हरा नहीं सकती रवीश कुमार को हराने के लिए रवीश कुमार जैसे ही चाहिए ,रवीश कुमार महान भाषायी छलावे बाज हो , प्रोपगेंडिस्ट हो , पर लोग उसे सुनते हैं , सुनना चाहते हैं , और यही हमारी कुंठा का भी कारण है की हम उसे वैचारिक रूप से परास्त क्यों नहीं कर पा रहे ? उसी कुंठा से गालियां पैदा होती हैं !! 

बहस को थोड़ा सा अलग मोडते हुए ,  रवीश कुमार और उनके सोशल मीडिया छोड़ने की बहस के और भी पहलु हैं जिन्हे यहाँ बताना जरूरी है , उदाहरणतः , 2011  की कोई बहस हाल ही में यूट्यब पर देख रहा था जिसमे विनोद दुआ नरेंद्र मोदी के लिए ये शब्द इस्तेमाल करते हैं की " दस साल से ये आदमी गुजरात की जनता को टोपी पहना रहा है" , उसी दौर की ऐसी ही किसी बहस का मुझे याद है जिसमे रवीश कुमार मोदी के लिए कहते हैं " मजमा लगाकर चूरन बेचने और देश के लिए जान देने में फर्क है " , अब आप मुझसे इसपर बहस मत कीजियेगा की ये वाक्य किसी राज्य के निर्वाचित मुख्यमंत्री के लिए  "अपशब्द" या गाली की श्रेणी में नहीं आते !! अब इन स्टूडियो मठाधीशों के अहंकार में खलल इसलिए पड़ गया की जो जनता इनके ऐसे कथन सुनकर घर के ड्राइंग रूम में गालियां देती थी वो अब टेक्नोलॉजी के माध्यम से इतनी सक्षम हो गयी है की आपकी फेसबुक वॉल पर आकर आपको गालियां दे सके  और उसी से आपके अहम को चोट पहुँच रही है !! खैर ,  रवीश कुमार को हराना है तो गाली गलौच नहीं बल्कि अपनी तरफ के  "रवीश कुमार" खड़े करने होंगे आइये ये समझते हैं की इस विचारधारा की लड़ाई में ऐसे प्रचारक क्यों जरूरी हैं !! 


प्रचारक रुपी किले क्यों जरूरी  ?
----------
आप में से कई बी पी सिंघल साहब को जानते होंगे , अब स्वर्गीय हैं , भगवान उनकी आत्मा को शांति दे , 2010 से 2012 -13 तक लगातार भाजपा , संघ की तरफ से सांस्कृतिक मुद्दों की पैरवी करने टीवी चैनलों पर आते थे , पैरवी क्या करते थे एक तरफा जीता जिताया मुद्दा हरवा कर आ जाते थे आप में से कोई आज भी उनकी बहसें देखेगा तो सोचेगा की ये वैचारिक आत्महत्या जैसा काम भाजपा इतने सालों तक कैसे करती रही कैसे इतनी आत्म मुग्ध बनी रही की जनता ऐसे प्रवक्ताओं के बारे में क्या सोच रही है उसे पता ही नहीं चला आपको बता दूँ सिंघल साहब यूपी के रिटायर्ड डायरेक्टर जनरल थे , मतलब उनकी वैचारिक क्षमता पर टिप्पणी शायद नहीं की जा सकती , तो फिर कमी कहाँ थी इसका व्यतिरेक (contrast ) समझना हो तो आज राकेश सिन्हा जी को सुनिए , कितनी बुद्धिमत्ता और अकाट्य ऐतिहासिक सन्दर्भों से समकालिक होते हुए अपनी बात को रखते हैं , शायद रवीश कुमार का असली "तोड़" गाली गलौच नहीं बल्कि राकेश सिन्हा जैसे हज़ारों प्रभावी विचारक / प्रचारक इस देश में पैदा करना है !! इसके एक दूसरे पर बड़े पहलु पर जाते हैं , इस देश में JNU जैसी कई संस्थाएं हैं जहाँ संपादकों , पत्रकारों और साहित्यकारों का सृजन होता है , यही सब "बुद्धिजीवी" मिलकर जनमानस का सृजन करते हैं ,  ऐसी संस्थाओं पर अपनी विचारधारा का प्रभुत्व कैसे हो इस पर भी सोचना होगा , क्योंकि ये प्रभुत्व ही आपके विचारों की छाप नीचले पायदानों तक ले जाने का काम करेगा !! 


प्रभावी प्रचारकों की कमी क्यों ?
 ------
शीर्षक गलत है दरअसल , प्रभावी प्रचारकों की कमी नहीं बल्कि उन्हें मौके देने की कमी महसूस होती है , संघ जैसे अनुशासित संगठन में ऐसा होना प्राकृतिक सा लगता है , ऐसा होता है की "आधिकारिक लाइन" एक होती है और उसे भी व्यक्त करने वाले बहुत चुनिंदा लोग होते हैं इसलिए विचारों की उन्निस्सी बीसी संभव ही नहीं होती , सेना की तरह स्वयंसेवक "विचारवान" होते हुए भी उस लाइन से अलग नहीं जाते , और जब लगातार पालन करते हुए ये एक परम्परा बन गयी तो लाइन से अलग बोलने लिखने वालों को अनुशासनहीन माना जाने लगा और छिठक दिया गया, गोविंदाचार्य जैसे उदाहरण हमारे पास हैं !! तो होता ये है की जब शीर्ष स्तर पर विचारों का तरलीकरण (dilution) सम्भव नहीं होता तो नीचे की पैदल सेना तक भी वही बात निर्मित होती है जिसमे लीक से एक प्रतिशत हटकर बात करने की भी कोई गुंजाईश ही नहीं होती , और यहीं से शुरू होता है "राष्ट्रवाद" का एकाकीपन , अब ये तो सब ही मानते हैं की संघ ही भारत में राष्ट्रवाद का ध्वजवाहक या ब्रांड एम्बेसेडर है , इसीलिये राष्ट्रवाद के चिंतन में सबसे ज्यादा अपेक्षाएं भी संघ से ही होनी चाहिए , एक उदाहरण देता हूँ , किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर हमारा स्वर सबसे ऊंचा और प्रभावी तो होता है पर इकलौता होता है पर "सुर से सुर" मिलाने वाली ना प्रवृत्ति होती है ना ऐसे लोग हमारे साथ होते हैं  , वो आवश्यक वृंदगान (chorus ) नहीं बनता जिससे उस मुद्दे पर जनभावना और जनजागृती और तीव्र हो उठे !! जैसे वामपंथी और नेहरूवादी विचारकों का उदाहरण लेते हैं , इस्लामिक आतंकवाद या वोटबैंक की राजनीती के मुद्दे पर मौलवियों को या इस्लामिक बुद्धिजीवियों को अकेले अपनी पैरवी नहीं करनी पड़ती  , ये स्टूडियो में आस पास बैठे , अख़बारों में स्तम्भ लिखने वाले तथाकथित विचारक उस वृंदगान का निर्माण कर देते हैं जिससे उस मुद्दे के खिलाफ प्रभावी तरीके से लड़ा जा सके इधर हम अकेले थे और पूरे देश पर सत्तासीन होते हुए भी अकेले ही हैं !! तो ये वृंदगान कैसे बने , कैसे हमारे विचारों के करीब वाले लोग (दस बीस प्रतिशत इधर या उधर वाले या कहें उन्नीसे बीसे ) हम से जुड़ें और हमारे विचार को और मजबूत बनायें इसको हम नीचे समझेंगे , पर उससे पहले ये शंका दूर करना जरूरी है की सरकार बन जाना ही विचारधारा की जीत है क्या !!


क्या सरकार बन जाना ही विचारधारा की जीत है
------------------------

कई लोगों को ये भ्रान्ति है की सरकार में निर्वाचित होना उस विचारधारा का जनता द्वारा अनुमोदन है , ये उतना ही गलत है जितना ये सोचना की दिल्ली के लोगों ने केजरीवाल को इसलिए चुना क्योंकि उन्होंने भ्र्ष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी !! 2014 के लोकसभा चुनाव में दरअसल कांग्रेस हारी है और एक व्यक्ति जीता है जिसका नाम है नरेंद्र मोदी।  विचारधारा ने उस व्यक्ति के लिए संघर्ष किया होगा , कहीं कहीं उत्प्रेरक का काम भी किया होगा पर इसे  ब्रांड "हिंदुत्व" को  भारतीय जनमानस का अनुमोदन समझने की भूल ना करें , कहीं अंतर्मन में उसके लिए सहानुभूति और प्रेम हो पर अनुमोदन तो कतई नहीं है ,  यही घर वापसी जैसे मुद्दों पर जनता की प्रतिक्रिया के रूप में हम देख भी चुके हैं !! इसके उलट, इतिहास में केंद्र और राज्यों की भाजपा शासित सरकारों ने भी ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे ये लगे की वे इसे जनता का अनुमोदन मानकर काम कर रहे हैं , उन्होंने ठीक वैसे काम किया जैसे राजनीतिक दल सामान्यतः काम करते हैं , अंग्रेजी में कहें तो performative या symbolic aspect अलग (की हाँ हम भी इस विचारधारा के लिए कटिबद्ध हैं ) और कार्यशैली निरीह सामान्य , हाँ थोड़ी बहुत ईमानदारी वाला प्रशासन जरूर दिखता रहा है !! इस विषय पर भी जिम्मेदार लोग दो तरह की बातें करते हैं , एक तरफ तो कहते हैं की सरकार बन जाने  से विचारधारा जीती है और दूसरी और चुनाव के वक्त सुनाई पड़ता है की " हमारे लिए विधायक या सांसद सिर्फ एक हाथ है जो संसद में वोटिंग के समय बटन दबायेगा , इसलिए हम इसकी ज्यादा चिंता नहीं करते" , कहीं सुनाई पड़ता है की " राजनीती में जीतना किसी भी हाल में जरूरी है" और उसी तर्क पर कांग्रेस से आये दलबदलूओं को लगे हाथ सत्ता की चाबी दी जाती है , आश्चर्य नही की फिर यही "हाथ" जब स्मार्टफोन पकडे विधानसभा में पोर्न फिल्म देखते हैं तो बिचारी विचारधारा ओंधे मुह धड़ाम गिरती सी दिखती है !! इसलिए एक विचार पर सहमत होना जरूरी है , सरकार बनने से विचारधारा की जीत है या नहीं है ?

भाजपा ने विचारधारा को मजबूत करने के लिए क्या काम किया इसकी भी बात करेंगे पर पहले समझते हैं की हमारे विचार से निकटता रखने वालों को कैसे जोड़ा जाए !! (जो आपके ना होकर भी आपके मुद्दे पर सहमती का माहौल बनायें )


वृंदगान कैसे बने 
-----
मेरे पाठक ज्यादातर सोशल मीडिया से हैं , उन्हें राजीव मल्होत्रा जी का नाम बताने की ज़रुरत नहीं है , इस एक मनीषी ने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की जितनी सेवा है उसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं , पढ़े लिखे शहरी युवा या कहें बुद्धिजीवी वर्ग को एक मुख्यधारा (मुख्यधारा है मानवतावाद , धर्म निरपेक्षता ) से अलग विचार के लिए संतुष्ट करना बहुत टेढ़ी खीर होती है , मल्होत्रा जी ने ये जटिल काम एक बहुत बड़ी सफलता के साथ पूरा किया है !! एक बार किसी पत्रकार ने उनसे विश्व हिन्दू परिषद या संघ से जुड़ा कोई प्रश्न पूछा , उन्होंने सीधे कहा " उनसे जुड़े प्रश्न उनसे ही पूछिये " , इतना कहना समझने वालों के लिए काफी होगा की दूरियां किस कदर हैं , वृंदगान बनाना तो दूर की बात यहाँ लोग मौन स्वीकृति भी देना नहीं चाहते !! इसमें दोनों और के अहम को मैं दोष देना चाहूंगा , एक तरफ एक संगठन है जो सोचता है की हमारे विचार से उन्नीसे व्यक्ति से हमें कोई लेना देना नहीं , दूसरी और व्यक्ति हैं जिनका अपना "हठ" है , ये सब करीब आना तो दूर एक हॉल में एक साथ किसी मिलन समारोह में भी साथ नहीं बैठना चाहते !! पर ये बात याद रखी जानी चाहिए की वैचारिक लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती , खासकर तब जब आप को शत्रु के केम्प में कौन कौन है और किस किस भेस में बैठा है उसका भी ज्यादा भेद नहीं हो , आज पत्रकार , साहित्यकार , संपादक , यहाँ तक की फिल्म डाइरेक्टर और कलाकार तक भी किसी न किसी विचारधारा को आगे बढ़ाने एक "एजेंट" की भूमिका में है , सामान्य जनता ये न कभी समझी थी ना कभी समझेगी , इसलिए उन्हें लगातार बेनकाब करने के कुचक्र में फंसकर अपनी जगहंसाई और अपना समय और ऊर्जा बर्बाद करने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं !! बुद्धिमत्ता इसमें है की आप भी ऐसे प्रचारक विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित कीजिये जो समय समय पर अलग अलग मुद्दों पर तटस्थ आवाज़ के तौर पर आपके साथ वृंदगान कर सकें !! इसके तीन उदाहरण देता हूँ , राम सेतु के मुद्दे पर हम सब भावनात्मक बचाव करते रहे , जबकि पर्यावरणविदों का एक बहुत बड़ा समूह भी राम सेतु को बचाने के पक्ष में था , पर दिक्कत ये थी की ना वे हमारे साथ खड़े होना चाहते थे ना हम उनके साथ , इसलिए वृंद बनने की सारी संभावनाएं होते हुए भी नहीं बन पाया , सोचिये अगर पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्र में जुड़े और हमारे विचार के निकट लोगों को हमने जोड़ने की कोशिश की होती तो माहौल क्या और अच्छा नहीं बनता ? दूसरा उदाहरण , साध्वी प्रज्ञा को कैंसर है , हमारे सारे संगठनों को जैसे लकवा मारा हुआ है , कोई कुछ बोलता ही नहीं , इस डर में की लांछन उनपर भी ना लग जाए , क्या कुछ मानवाधिकार संगठनों में हमारी पैठ होती या पांच दस हमारे पैसे से खड़े हुए संगठन होते तो हमें भी बोलने की ज़रुरत नहीं पड़ती और काम ज्यादा प्रभावी ढंग से सध जाता !! तीसरा उदाहरण , समान नागरिक संहिता की बात हम करते हैं तो वो सांप्रदायिक रंग ले लेती है , क्यों ना ये आवाज़ लोकतान्त्रिक नागरिक अधिकारों की बात करने वाला कोई एनजीओ उठाये ? क्या फर्क नहीं पड़ेगा ? क्या असर ज्यादा नहीं होगा ?  सोचिये अगर ऐसा गैर राजनीतिक वृंदगान जनता में समान नागरिक संहिता के लिए लहर पैदा कर दे तो सरकार के लिए ये निर्णय लेना तो चुटकियों का काम हो जाये , पर सरकार भी किस किस्म की निठल्ली हैं इसको आगे समझते हैं , देखते हैं भाजपा की सरकारों ने आजतक विचारधारा के लिए  क्या किया -  


भाजपा का वैचारिक दामन 
------------------
इस पूरी बहस में सबसे ज्यादा निराश भाजपा ने किया है , अगर आप किसी भाजपा शासित प्रदेश में रहते हैं और रोज़ अख़बार पढ़ते हैं तो आप देखते होंगे की मुख्यमंत्री के लिए हमेशा वहां के संपादकों और पत्रकारों की भाषा में एक नरम रुख रहेगा , कई बार तो उनका महिमामंडन और यश गान ही देखा जायेगा , पर हिंदुत्व , राष्ट्रवाद या फिर संघ के लिए वही जहर उगलू और प्रोपेगेंडा वाली भाषा रहेगी , समझने वाले समझ ही जाते हैं की पैसा कहाँ और किसके लिए लगा है  !! इसका थोड़ा थोड़ा असर तो अब दिल्ली के मीडिया हाउसों में भी देखने को मिल रहा है , जहाँ प्रधानमंत्री का यश गान तो हो रहा है पर राष्ट्रवाद का ? क्या पता !! विचारधारा की रीढ़ तो दूर की कौड़ी है , किसी ज़माने में जब इस दल के शीर्षस्थ नेताओं के मुख्य सलाहकार बृजेश मिश्र और सुधींद्र कुलकर्णी जैसे राष्ट्रवाद से नफरत करने वाले लोग हों तो सोचना पड़ेगा की सत्ता में आने के बाद ये वैचारिक नपुंसकता का कारण क्या होता होगा !! वैसे हमें ये भी समझना होगा की बिना विचारकों और प्रचारकों की रीढ़ तैयार किये , बिना उनके सृजन केन्द्रों (जो हमने पहले खडं में समझा ) पर प्रभुत्व स्थापित किये विचारधारा का गुणगान इन कॉर्पोरेट दलालों से करवाना लगभग असंभव ही है !! एक उदाहरण देता हूँ आपके राज में एक सरस्वती शिशु मंदिर का आचार्य अरबपति खनन कारोबारी बन गया , और ये तो सिर्फ एक उदाहरण है , ऐसे सेकड़ो व्यापारी , बिल्डर , उद्योगपति आपसे लाभान्वित होते हैं , क्या ऐसे धन्ना सेठ कोई अख़बार , कोई न्यूज़ चैनल खड़े नहीं कर सकते जिनका स्तर इन एनडीटीवी और टाइम्स नाउ से बेहतर हो और जो राष्ट्रवाद की अलख भी जगाये

इसका व्यतिरेक देखना हो तो पश्चिम बंगाल के अख़बार उठाइये , ममता बेनर्जी के सत्ता में आने के इतने साल बाद भी वहां के लेख और ख़बरों में वामपंथ की बू आती है , बंगाल की आधी आबादी बिना कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बने वामपंथ की तरह सोचती समझती और सांस लेती है , आप आज जो ये हिंदुत्व पर विष वमन करते मुख्यधारा के पत्रकार , संपादक , फिल्म निर्देशक देखते हैं उनका अतीत टटोलियेगा , कहीं न कहीं बंगाल उनके बायोडाटा में होगा ही ,इसे अंग्रेजी में कहते हैं "ब्रेनवाश" या डीएनए मेनिपुलेशन  !! 

ये कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी की भाजपा तो विचारकों और प्रचारकों की ऐसी रीढ़ बनाना ही नहीं चाहती क्योंकि ऐसा हो गया तो ये रीढ़ और ये वैचारिक प्रचारक किले उनके ऑडिटर या ombudsmen की तरह हो जायेंगे जो ये सुनिश्चित करेंगे की पार्टी या सरकार विचारधारा से भटके नहीं और कोई एक सत्तारूढ़ व्यक्ति जो चाहे मन मुताबिक शासन कर सके और वही "परम सत्य" कहलाने लगे !! आजकल तो संघ का मार्गदर्शन भी कईयों को नागवार गुज़रता है , तभी तो वे दिन रात हिंदुत्व को गरियाने वाले राजदीप सरदेसाई की पुस्तक का विमोचन करने बेझिझक पहुँच पाते हैं , तभी तो वादे "जुमले" हो जाते हैं , तभी तो गजेन्द्र चौहान जैसे Yes Man से अच्छा व्यक्ति पूरे फिल्म जगत में उन्हें कोई मिल ही नहीं पाता , तभी तो नेताजी की फाइलें खुल ही नहीं पाती , तभी तो संघ के हस्तक्षेप से पहले तक वन रेंक वन पेंशन के वादे को डकारने का मूड बन जाता है ,तभी तो तरुण विजय , शेषाद्री चारी , अरुण शौरी जैसे विचारवान लोग हाशिये पर चले जाते हैं , तभी तो !! 

अंत में
 -------
हिंदुत्व कह लीजिये , राष्ट्रवाद कह लीजिये या भारतीयता कह लीजिये , इस विचार में अनंत संभावनाएं हैं , इस विचार में मानवता की सेवा की , विश्व कल्याण करने की अपार शक्ति है , आज के पाखंड से भरे मानवतावाद और सेक्युलरवाद धीरे धीरे फेल हो रहे हैं , लोग दूसरे विचारों की और देख रहे हैं , इसी के लिए आने वाले दिनों में समकालिक होते हुए , यूवा और आधुनिक सोच को आत्मसात किये हुए राष्ट्रवाद का प्रबल और प्रभावी प्रस्तुतीकरण करने वाले हज़ारों विचारक - प्रचारक हमें चाहिए होंगे, उनका बड़े पैमाने पर सृजन कैसे हो उसकी चिंता हमें करनी होगी , हम पहले से ही देरी से चल रहे हैं वृंद गान के लिए हज़ारों लोग सैकड़ों संगठनों से चाहिए होंगे जिनका हमारे संगठन से कोई सम्बन्ध न हो फिर भी वैचारिक रूप से हम और वे एक साथ खड़े दिखें , हम अकेले नहीं चल सकते , अगर चलते हैं तो ये हमारा अहंकार है ,  हम इस विचारधारा के ध्वजवाहक हैं , हमारे पीछे चल रहे लोग हमारे साथ वैचारिक तारतम्य में है की नहीं ये देखना भी हमारा कर्तव्य है !! जब तक ये नहीं होगा तब तक रिमोट चालित पैदल सेना ऐसे ही गाली गलौच से किले फतह करने की कोशिश करती रहेगी और चुनिंदा सत्तासीन अपने ड्राइंग रूम से इस नज़ारे के चटकारे उड़ाते रहेंगे !! लड़ाई बहुत भीषण है , लड़ाई सभ्यताओं की है , मोदी या राहुल या केजरीवाल की नहीं !! तैयार रहें !!

(बंगलौर निवासी भाई गौरव शर्मा द्वारा लिखित एक उम्दा लेख जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगा)