Friday, July 31, 2015

Tuesday, July 28, 2015

मुशर्रफ़ ने कहा, ''धन्यवाद राष्ट्रपति महोदय. भारत भाग्यशाली है कि उसके पास आप जैसा एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति है.''

मुशर्रफ़ ने कहा, ''धन्यवाद राष्ट्रपति महोदय. भारत भाग्यशाली है कि उसके पास आप जैसा एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति है.''
इंडिया ऑनेस्ट : आज भारत ने एक ऐसी महान हस्ती को खो दिया है जिन्होंने जन्म तो मुस्लिम धर्म में लिया था लेकिन उनका चारित्र वैष्णव धर्म जैसा था। उन्होंने अपने जीवन काल में कभी मासभक्षण नहीं किया। ऐसे व्यक्ति का व्यक्तित्व हम अपने जीवन में अपनाये। यही उनकी सबसे बढ़ी श्रधांजलि होगी।भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम !

एक पुराणी घटना जब डा. एपीजे अब्दुल कलामभारत के राष्ट्रपति थे ।परवेज़ मुशर्रफ़ की  राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलम से तीस मिनट की मुलाक़ात तय थी, जिसमे एईसी सुचना थी की परवेज कश्मीर का मुद्दा पर कलम साहब को घेरेंगे ! उनको जब इस बारे में ब्रीफ दिया गया तो ........


कलाम एक क्षण के लिए ठिठके, उनकी तरफ़ देखा और कहा, ''उसकी चिंता मत करो. मैं सब संभाल लूंगा.''
तीस मिनट की मुलाक़ात : अगले दिन ठीक सात बज कर तीस मिनट पर परवेज़ मुशर्रफ़ अपने क़ाफ़िले के साथ राष्ट्रपति भवन पहुंचे. उन्हें पहली मंज़िल पर नॉर्थ ड्राइंग रूम में ले जाया गया.

कलाम ने उनका स्वागत किया. उनकी कुर्सी तक गए और उनकी बग़ल में बैठे. मुलाक़ात का वक़्त तीस मिनट तय था.
कलाम ने बोलना शुरू किया, ''राष्ट्रपति महोदय, भारत की तरह आपके यहाँ भी बहुत से ग्रामीण इलाक़े होंगे. आपको नहीं लगता कि हमें उनके विकास के लिए जो कुछ संभव हो करना चाहिए?''...............जनरल मुशर्रफ़ हाँ के अलावा और क्या कह सकते थे....वैज्ञानिक भी कूटनीतिक भी, कलाम ने कहना शुरू किया, ''मैं आपको संक्षेप में ‘पूरा’ के बारे में बताउंगा. पूरा का मतलब है प्रोवाइंडिंग अर्बन फ़ैसेलिटीज़ टू रूरल एरियाज़.''............पीछे लगी प्लाज़मा स्क्रीन पर हरकत हुई और कलाम ने अगले 26 मिनट तक मुशर्रफ़ को लेक्चर दिया कि ‘पूरा’ का क्या मतलब है और अगले 20 सालों में दोनों देश इसे किस तरह हासिल कर सकते हैं.
तीस मिनट बाद मुशर्रफ़ ने कहा, ''धन्यवाद राष्ट्रपति महोदय. भारत भाग्यशाली है कि उसके पास आप जैसा एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति है.''    हाथ मिलाए गए और नायर ने अपनी डायरी में लिखा, ''कलाम ने आज दिखाया कि वैज्ञानिक भी कूटनीतिक हो सकते हैं.''

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तीन लाख बावन हज़ार रुपए की कहानी :

मई 2006 में राष्ट्रपति कलाम का सारा परिवार उनसे मिलने दिल्ली आया. कुल मिला कर 52 लोग थे. उनके 90 साल के बड़े भाई से ले कर उनकी डेढ़ साल की परपोती भी.

ये लोग आठ दिन तक राष्ट्रपति भवन में रुके. अजमेर शरीफ़ भी गए. कलाम ने उनके रुकने का किराया अपनी जेब से दिया. यहाँ तक कि एक प्याली चाय तक का भी हिसाब रखा गया और उनके जाने के बाद कलाम ने अपने अकाउंट से तीन लाख बावन हज़ार रुपए का चेक काट कर राष्ट्रपति कार्यालय को भेजा.

उनके राष्ट्रपति रहते ये बात किसी को पता नहीं चली.
बाद में जब उनके सचिव नायर ने उनके साथ बिताए गए दिनों पर किताब लिखी, तो पहली बार इसका ज़िक्र किया।

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आईआईएम शिलॉन्ग में गिरने से कुछ मिनट पहले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दिन भर चौकस रहने के लिए एक कॉन्सटेबल को शाबाशी दी थी।
पूर्वी खासी हिल्स जिला के पुलिस अधीक्षक एम खरकरांग ने बताया कि कल सोमवार शाम गुवाहाटी से शिलांग सड़क मार्ग से जाते हुए रास्ते भर चौकस रहने के लिए पूर्व राष्ट्रपति ने एसओटी (विशेष अभियान दल) के एक जवान को शाबाशी दी थी।
उन्होंने बताया कि जब कलाम ने उस जवान को बुलाया था तो वह पहले डर गया लेकिन तब उन्होंने कॉन्सटेबल से कहा था कि वह अपना काम सही से कर रहा है।

कलाम के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए खरकरांग ने कहा कि सामान्य चीजों को भी अहमियत देने सादगी से जिंदगी जीने की उनकी समझदारी ने उन्हें वास्तव में महान बनाया।

Thursday, July 23, 2015

सोनिया गांधी की बौखलाहट के प्रमुख कारण

सोनियां गांधी दस वर्ष तक अथक प्रयास करती रही, परन्तु नरेन्द्र मोदी को अपराधी नहीं साबित कर पायी। वे मोदी को प्रधानमंत्री के रुप में नहीं देखना चाहती थी, इसलिए धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केन्द्र में ऐसी सरकार बनाना चाहती थी, जिसका नियंत्रण उनके हाथों में हों। परन्तु उनकी लाख कोशिश के बावजूद भी उनका गुर विरोधी देश के प्रधानमंत्री बन गये और वो लाचार हो देखती रह गर्इ।


दरअसल सोनिया गांधी मोदी से भयभीत है। उनके पापों का घड़ा फूटने की आशंका से वे इन दिनों घबरार्इ हुर्इ है। अपनी खीझ को वे संसद में हंगामा करवा कर प्रकट कर रही है। उनके अनुयायी सरकार पर आरोप लगा कर हंगामा करते हैं और सरकार को अपना पक्ष रखने से रोक रहे हैं। उनका प्रयोजन सरकार के विरुद्ध दुष्प्रचार कर उसे विधायी कार्य करने से रोकना है। सोनियां गांधी स्वयं महा भ्रष्ट राजनेता है। दस वर्षों में बारह लाख करोड़ के घोटालें उनकी मनमोहन सरकार ने किये है। अत: भ्रष्टाचार को ले कर इतना आहत होने का कोर्इ कारण नहीं हैं। इन दिनों जिस तरह वे बौखला रही है,उसके निम्न प्रमुख कारण है:-

एक: ज्यों-ज्यों कोलगेट प्रकरण की पर्ते खुल रही है, उससे लगता है पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नाम कोर्ट का समन जारी होगा। यदि इस समय किसी सेक्रेटरी ने सच उगल दिया, तो सोनियां गांधी कठघरें में खड़ी हो जायेगी, क्योंकि सारे घोटालों के पीछे उनका हाथ था और लूट का धन उनके पास आता था। सम्भव है कभी वह रहस्य भी खुल जाये, जिससे यह मालूम हो जाय कि किस व्यक्ति ने कब और कितना धन सोनियां गांधी के किस विदेशी खाते में जमा करवाया। मोदी सरकार भारतीयों के विदेशी खातों की गहन जांच-पड़ताल कर रही है, यदि सरकार के हाथ सोनिया या राहुल के किसी विदेशी खाते का पता लग गया तो उस अथाह सम्पति की जानकारी देश को मिल जायेगी, जिसको यह परिवार वर्षो से छुपा रहा था। ऐसा होने पर निश्चित रुप से उनका राजनीतिक जीवन समाप्त हो जायेगा।

दो: पांच हजार करोड़ के नेशनल हैरल्ड घोटालें की सोनियां गांधी अभियुक्त है और उनका अपराध एक न दिन न्यायालय में साबित होना ही है। कांग्रेस पार्टी के प्रभावी वकील जांच कार्यवाही को शिथिल करने का प्रयास कर रहे हैं, किन्तु कब तक वे ऐसा करते रहेंगे। सच तो सच ही है, जिसे छुपाना इतना आसान भी नहीं है।

तीन: सोनियां गांधी का दामाद उनके गले की फांस बन गया है। राजस्थान और हरियाणा में उनके द्वारा किये गये जमीन घोटालों का सच देश के सामने आ गया है। बिकानेर में जो घोटला किया है, उससे उनके नाम समन जारी हो सकता है। मामले की गम्भीरता को देखते हुए उन्हें जेल भी जाना पड़ सकता है। यदि ऐसा हुआ तो इस परिवार की प्रतिष्ठा पर भारी वज्रपात होगा।

चार: राहुल गांधी ने दस वर्षों में जो विदेशी दौरे किये हैं, उसकी भी छान-बिन हो रही है। वे विदेश में कहां रहते हैं, किससे मिलते हैं। अय्यासी में कितना रुपया फूंकते हैं, इसका सच यदि मालूम पड़ गया तो श्रीमान की हवा निकल जायेगी। सम्भव है कांग्रेसियों को गूस्सा फूट पड़े ओर उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनने से रोक दें।

पांच: लालित गेट मामले को जितना उछाला जायेगा, उससे कांग्रेस को भारी नुकासान होगा, क्योंकि सुषमा स्वराज ने तो ब्रिटिश हार्इ कमिश्नर के पास एक चिट्ठी ही भेजी थी। सट्टे में कमाये धन की भागीदारी तो उनकी कांग्रेसी नेताओं के साथ थी। यदि ललित गेट का सच उजागर हो गया तो जो लोग संसद में चिल्ला रहे हैं, उनकी जबान पर सदा के लिए ताला लग जायेगा। ऐसा होने पर भविष्य में उनकी बकवास को कभी महत्व नहीं मिलेगा। वैसे भी ललित मोदी को ले कर जिन दो नेताओं पर आरोप लगाये जा रहे हैं, उनमें ऐसे कोर्इ तथ्य नहीं है, जिससे उन्हें अपराधी घोषित किया जा सके।

छ: व्यापमं घोटाले के शुरुआत दिग्विजय सिंह के कार्यकाल से हुर्इ। जो अफसर और नेता इस घोटाले से जुड़े हुए हैं, वे कभी दिग्विजय सिंह के विश्वस्त व्यक्ति रहे थे। जांच कार्यवाही पूरी होने और परिणाम आने के पहले दिग्विजय सिंह राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, इसीलिए वे इस प्रकरण को बहुत ज्यादा तुल दे रहे हैं। वे जानते हैं कि जब तक शिवराज सिंह मध्य प्रदेश की राजनीति से हटेंगे नहीं तब तक मध्यप्रदेश की राजनीति में कांग्रेस का कोर्इ भविष्य नहीं है। व्यापमं घोटाले के बहाने शिवराज सिंह को हटाना ही कांग्रेस का मुख्य प्रयोजन है, किन्तु भय यह सत्ता रहा है कि कहीं इसकी व्यापक जांच से वे व्यक्ति घेरे में नहीं आ जाय, जिनका किसी न किसी तरह कांग्रेस से संबंध रहा है। व्यापम मध्यप्रदेश तक सीमित नहीं है, इसका विस्तार उन राज्यों में भी है जहां कांग्रेसी सरकारे थी, या है। राजस्थान में ऐसे कर्इ मामले प्रकाश में आये, जिसे सरकार ने दबा दिया। सीबीआर्इ जांच से यदि चौंकाने वाले तथ्य सामने आ गये, तो कांग्रेस के पांवों के नीचे से जमीन खिसक जायेगी। एक ऐसा मुद्धा जिसे ले कर देश व्यापी लाभ उठाया जा सकता है, उससे कांग्रेस को कोर्इ लाभ नहीं मिलेगा।

सात: सोनियां गांधी इसलिए भी भयभीत हैं, क्योंकि नरेन्द्र मोदी एक परिपक्क राजनेता बन कर उभरे हैं, जिन्होंने बहुत कम समय में अपनी अन्तरराष्ट्रीय छवि बना ली है। देश में भी वे लोकप्रिय प्रधानमंत्री है और जनता का उनसे मोहभंग नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री और उनके मंत्रीमण्डल के अन्य सहयोगियों पर किसी तरह के भ्रष्टाचार का आरेाप नहीं लगे है। मोदी सरकार के प्रयासों से देश की अर्थव्यवस्था ठीक हो रही है और सरकार अन्य समस्याओं को सुलझाने में जी तोड़ मेहनत कर रही है। मीडिया के साथ मिल कर मोदी सरकार की आलोचना करने के बाद भी कांग्रेस को विशेष सफलता नहीं मिली है। दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी के विराट व्यक्तित्व के समक्ष राहुल का व्यक्तित्व बहुत बौना है। चार साल बाद राहुल के भरोसे कांग्रेस नरेन्द्र मोदी का मुकालबा कर पायेगी, इस पर आज कोर्इ यकीन नहीं कर रहा है। वैसे भी भाजपा बढ़ रही है और कांग्रेस घट रही है। सम्भवत: इसीलिए सोनिया गांधी ने मोदी सरकार से टकराने का साहस किया है, जो दरअसल अपना अस्तितव बचाने की लडार्इ है, जिसमें उनकी पराजय निश्चित दिखार्इ दे रही है।

सोनिया गांधी को काग्रेस के भविष्य की नहीं, अपने बेटे के राजनीतिक भविष्य की चिंता है। वे इसलिए भी चिंतित है कि यदि नरेन्द्र मोदी का भारत की राजनीति में प्रभाव कम नहीं हुआ, तो कांग्रेस एक न एक दिन बिखर जायेगीं। कांग्रेस की कमान उनके हाथ से जाते ही उनका भारत में अपने परिवार का कोर्इ भविष्य नहीं दिखार्इ रहेगा। देश छोड़ कर जाना ही उनके लिए एक मात्र विकल्प बचेगा।

Chandra Shekhar Azad martyr & mentor अमर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद

Chandra Shekhar Azad martyr & mentor अमर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद
यदि देशहित मरना पडे मुझको सहस्रों बार भी
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी
हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो
मृत्यु का कारण सदा देशोपकारक कर्म हो
(~ अमर स्वतन्त्रता सेनानी एवं प्राख्यात कवि पण्डित रामप्रसाद "बिस्मिल")

चन्द्रशेखर आज़ाद का एक दुर्लभ चित्र
चन्द्रशेखर "आज़ाद"
जन्म: 23 जुलाई 1906
बदरका ग्राम ( उन्नाव, उत्तर प्रदेश)
भावरा ग्राम (अलीराजपुर, मध्य प्रदेश)
देहांत: 27 फरवरी 1931
(इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश)
माँ: जगरानी देवी
पिता: सीताराम तिवारी
शिक्षा: महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सम्मानित सदस्य और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक। पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक़ उल्लाह खाँ और भाई भगवतीचरण वोहरा जैसे क्रांतिकारियों के साथी और भगतसिंह सरीखे क्रांतिकारियों के दिग्दर्शक चन्द्रशेखर "आज़ाद" भारतीय स्वाधीनता संग्राम के उन अनुकरणीय महानायकों में से हैं जिनका सहारा अनेक नायकों को मिला
सन 1921 में 15 वर्षीय चन्द्रशेखर ने गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भागीदारी की
सन 1922 में असहयोग आंदोलन की वापसी पर अंग्रेज़ी सत्ता का जुझारू विरोध
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) की कार्यवाहियों में सक्रिय सहयोग
सन 1925, काकोरी कांड में भागीदारी  
सन 1927, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की फांसी  
सन 1928: हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) की स्थापना
सन 1928: भगवती चरण वोहरा, दुर्गा भाभी, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का सहयोग
सन 1928, पुलिस लाठीचार्ज से लाला लाजपत राय का देहावसान
सन 1928, लाहौर में जॉन सॉन्डर्स की हत्या
सन 1929, दिल्ली में असेंबली बम काण्ड और शहीदत्रयी की गिरफ्तारी
सन 1930, शहीदत्रयी को जेल से छुड़ाने की योजना में भाई भगवती चरण वोहरा की मृत्यु
सन 1930-31, आज़ाद द्वारा राजनीतिक सहयोग से शहीदत्रयी को छुड़ाने के प्रयास
27 फरवरी 1931 - इलाहाबाद: एक महान सेनानी का अवसान
लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक का जन्मदिन भी आज ही है। उन्हें भी हार्दिक श्रद्धांजलि!

Monday, July 20, 2015

ईद के पहले नाबालिक हिन्दू लडकी को उठाया, लव जेहाद का शक

राजस्थान के जोधपुर जिले से ईद से पहले एक हिन्दू लड़की के अपहरण का सनसनीखेज मामला सामने आया है। यह वारदात जोधपुर के फलौदी तहसील में पड़ने वाले होपार्डी गाँव की है। अज्ञात युवकों द्वारा नाबालिक लड़की के अपहरण से पूरे गाँव में भय और दहशत का माहौल है। जानकारी के अनुसार होपार्डी गाँव और उसके आसपास के इलाके में हिन्दुओं की संख्या बहुत कम है और इस तरह से लड़की का अपहरण किये जाने से गाँव वाले डरे हुए हैं।

लड़की के घरवालों ने दर्ज की शिकायत

लड़की के बड़े पिता ने पुलिस में अपहरण का मामला दर्ज करवा दिया है। उन्होंने बताया क़ि होपार्डी गांव के दो मुस्लिम युवक अक्सर उसके घर के पास आते रहते थे। वे कई बार लड़की को फोन भी किया करते थे। परसों यानि 17 तारीख की रात 11 बजे उन लोगों ने फोन पर बहला फुसला कर लड़की को घर के बाहर बुलाया और उसे उठा ले गये लड़की के परिजन उस वक्त गहरी नीद में सोये थे, काफी देर  बाद जब लड़की की माँ की नींद खुली तो लड़की अपने कमरे से गायब थी।

दो लोगों पर मामला दर्ज

घटना के बाद होपार्डी गाँव के ग्रामीण बड़ी संख्या में फलौदी पुलिस थाने पहुंचे और दो लोगो बरकत खान (पुत्र मुरीद खान) और रसीद खान (पुत्र मजूद खान) निवासी होपार्डी के खिलाफ लड़की के अपहरण का मामला दर्ज़ करवाया।


पुलिस के ढीले रवैये से गाँव वालों में रोष

आरोपियों को गिरफ्तार करने के प्रति पुलिस वालों का रवैया देखकर परिजनों और उनके समर्थको ने थाने का घेराव कर रास्ता जाम कर दिया और आरोपियों की गिरफ्तारी की मांग पर अड़ गये।  पुलिस ने दोनों लोगो बरकत खान और रसीद खान के खिलाफ मामला दर्ज कर लड़की की तलाश शुरू कर  दी है।

https://www.youtube.com/watch?v=mvltcE63DEs

https://www.youtube.com/watch?v=9ezOXNSEIEs


https://www.youtube.com/watch?v=EJf2G1OcmTc




लव जिहाद की शिकार एक और लड़की !!! सावधान हो जाओ अब तो ..........

अनजान फोन कॉल से शुरू हुआ रिश्ता पहले दोस्ती और फिर प्यार में इस कदर तब्दील हुआ कि युवक ने युवती को शादी का झांसा देकर जिस्मानी रिश्ते बना लिए. जब युवती गर्भवती हो गई तो उससे शादी से इनकार कर दिया. बाद में भेद खुला कि युवक ने अपना मजहब भी प्रेमिका से छिपाया था. पुलिस ने सोमवार सुबह आरोपी को गिरफ्तार कर लिया.

जानकारी के मुताबिक, पांच महीने पहले युवती के मोबाइल पर एक अनजान शख्स का फोन आया. इसके बाद ये सिलसिला धीरे-धीरे जारी रहा. फोन करने वाले शख्स से युवती की दोस्ती हो गई. युवक ने अपना नाम गोलू शुक्ला बताया. इसके बाद दोनों का रिश्ता प्रेम में तब्दील हो गया और शादी के भरोसे पर युवक ने युवती के साथ जिस्माना रिश्ते भी बना लिए. 

पीड़िता के मुताबिक, वह जब गर्भवती हो गई तो उसने गोलू से शादी करने को कहा, लेकिन उसने इनकार कर दिया. गोलू की वादाखिलाफी से आहत होकर रविवार रात वह अपने परिजनों के साथ उसके घर पटकापुर फीलखाना पहुंची. वहां पता चला कि युवक ने उसे एक और धोखा दिया है, उसका असली नाम वसीम है. उनके पहुंचने से पहले वह फरार हो चुका था.

वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शलभ माथुर ने बताया कि आरोप लगाने वाली युवती बारादेवी इलाके में रहती है. लड़की के परिजनों ने फीलखाना पुलिस स्टेशन में वसीम उर्फ गोलू के खिलाफ रेप सहित कई धाराओं में केस दर्ज कराया है. सोमवार सुबह पुलिस ने कई जगह दबिश देकर आरोपी को ढूंढ़ निकाला. उसे गिरफ्तार करके पूरे मामले के बारे में पूछताछ की जा रही है.

Sunday, July 19, 2015

ग़ज़वा-ए-हिन्द सदियों पुराने सपने को साकार करने के लिये तकनीकें

ग़ज़वा-ए-हिन्द के सदियों पुराने सपने को साकार करने के लिये वृहत्तर भारत पर विभिन्न तकनीकें सैकड़ों वर्षों से प्रयोग में लायी जा रही हैं। उन्हीं में से एक प्रमुख तकनीक शत्रु पक्ष में विभाजन की तकनीक है। आपको पंचतंत्र की बूढ़े पिता और उसके चार बेटों की कहानी ध्यान होगी। बूढ़ा अपने आपस में झगड़ने वाले बेटों को बुला कर 10-12 पतली-पतली लकड़ियों के बंधे हुए गट्ठर को तोड़ने के लिये देता है। सारे बेटे एक-एक करके असफल हो जाते हैं। फिर वो गट्ठर को खोल कर एक-एक लकड़ी तोड़ने के लिये देता है। देखते हो देखते बेटे हर लकड़ी तोड़ डालते हैं। बूढ़ा पिता बेटों को समझता है "एक लकड़ी को तोडना आसान होता है किन्तु बंधी लकड़ियों को तोडना असंभव होता है' तुम सबको साथ रहना चाहिये।

यही तकनीक हिन्दुओं की विभिन्न जातियों को इस्लाम के अधीन करने के लिये सदियों से प्रयोग में लायी जा रही है। उत्तर प्रदेश में जाट, त्यागी समाज के धर्मान्तरित लोग मूले जाट, मूले त्यागी कहलाते हैं। इसी तरह से राजस्थान, गुजरात में राजपूत भी मुसलमान बने हैं। अन्य समाज भी धर्मान्तरित हुए हैं मगर ये आज भी अपनी जाट, त्यागी, राजपूत पहचान के लिये मुखर हैं और तब्लीगियों की प्रचंड हाय-हत्या के बाद भी अभी तक उसी टेक पर क़ायम हैं। धर्मांतरण चाहने वाली इन जमातों की कुदृष्टि सदियों से इसी तरह हमारे दलित, अनुसूचित जातियों पर लगी हुई है। जय भीम और जय मीम तो आज का नारा है। इस कार्य को सदियों से मुल्ला पार्टी जी-जान से चाहती है मगर उसकी दाल गल नहीं पा रही। आइये इस षड्यंत्र की तह में जाते हैं।
सामान्य हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बारे में छान-फटक करें तो बड़े मज़ेदार तथ्य हाथ आते हैं। झगड़े चाहे मस्जिद के आगे से शोभा यात्रा निकलने पर पथराव के कारण, किसी लड़की को छेड़ने, लव जिहाद की परिणति, किन्हीं दो वाहनों की टक्कर, भुट्टो को पाकिस्तान में फांसी, ईराक़ पर अमरीकी हमला, किसी भी उत्पात से शुरू होते होते हों; पहली झपट में हिन्दू समाज की ओर से आवाज़ उठाने वाले जाट, गूजर, बाल्मीकि-भंगी, चमार, इत्यादि जातियों के लोग पाये जाते हैं। जाट और गूजर ऐतिहासिक योद्धा जातियां हैं और इनके अनेकों राजवंश रहे हैं।
गुजरात प्रान्त का तो नाम ही गुर्जर प्रतिहार शासकों के कारण पड़ा है। सेना में आज भी जाट रेजीमेंट्स हैं अर्थात लड़ना इनके स्वभाव में है, मगर समाज के सबसे ख़राब समझे जाने वाले कामों को करने वाले पिछड़े, दमित, दलित लोगों में इतना साहस कहाँ से आ गया कि वो इस्लामी उद्दंडता का बराबरी से सामना कर सकें ? सदियों से पिछड़ी, दबी-कुचली समझी जाने वाली इन जातियों के तो रक्त-मज्जा में ही डर समा जाना चाहिये था। ये कैसे बराबरी का प्रतिकार करने की हिम्मत कर पाती हैं ? मगर ये भी तथ्य है कि आगरा, वाराणसी, मुरादाबाद, मेरठ, बिजनौर यानी घनी मुस्लिम जनसंख्या के क्षेत्रों के प्रसिद्ध दंगों में समाज की रक्षा इन्हीं जातियों के भरपूर संघर्ष के कारण हो पाती है।
आइये इतिहास के इस भूले-बिसरे दुखद समुद्र का अवगाहन करते हैं। यहाँ एक बात ध्यान करने की है कि इस विषय का लिखित इतिहास बहुत कम है अतः हमें अंग्रेज़ी के मुहावरे के अनुसार 'बिटवीन द लाइंस' झांकना, जांचना, पढ़ना होगा। सबसे पहले बाल्मीकि या भंगी जाति को लेते हैं। बाल्मीकि बहुत नया नाम है और पहले ये वर्ग भंगी नाम से जाना जाता था। ये कई उपवर्गों में बंटे हुए हैं। इनकी भंगी, चूहड़, मेहतर, हलालखोर प्रमुख शाखाएं हैं। इनकी क़िस्मों, गोत्रों के नाम बुंदेलिया, यदुवंशी, नादों, भदौरिया, चौहान, किनवार ठाकुर, बैस, गेहलौता, गहलोत, चंदेल, वैस, वैसवार, बीर गूजर या बग्गूजर, कछवाहा, गाजीपुरी राउत, टिपणी, खरिया, किनवार-ठाकुर, दिनापुरी राउत, टांक, मेहतर, भंगी, हलाल इत्यादि हैं। क्या इन क़िस्मों के नाम पढ़ कर इस वीरता का, जूझारू होने का कारण समझ में नहीं आता ?
बंधुओ ये सारे गोत्र भरतवंशी क्षत्रियों के जैसे नहीं लगते हैं ? किसी को शक हो तो किसी भी ठाकुर के साथ बात करके तस्दीक़ की जा सकती है। इन अनुसूचित जातियों में ये नाम इनमें कहाँ से आ गये ? ऐसा क्यों है कि अनुसूचित जातियों की ये क़िस्में उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश में ही हैं ? जो इलाक़े सीधे मुस्लिम आक्रमणकारियों से सदियों जूझते रहे हैं उन्हीं में ये गोत्र क्यों मिलते हैं ? हलालखोर शब्द अरबी है। भारत की किसी जाति का नाम अरबी मूल का कैसे है ? क्या अरबी आक्रमणकारियों या अरबी सोच रखने वाले लोगों ने ये जाति बनायी थी ? इन्हें भंगी क्यों कहा गया होगा ? ये शुद्ध संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ 'वह जिसने भंग किया या तोड़ा' होता है। इन्होने क्या भंग किया था जिसके कारण इन्होने ये नाम स्वीकार किया।
चमार शब्द का उल्लेख प्राचीन भारत के साहित्‍य में कहीं नहीं मिलता है। मृगया करने वाले भरतवंशियों में भी प्राचीन काल में आखेट के बाद चमड़ा कमाने के लिये व्याध होते थे। ये पेशा इतना बुरा माना जाता था कि प्राचीन काल में व्याधों का नगरों में प्रवेश निषिद्ध था। इस्‍लामी शासन से पहले के भारत में चमड़े के उत्पादन का एक भी उदाहरण नहीं मिलता है। हिंदू चमड़े के व्यवसाय को बहुत बुरा मानते थे अतः ऐसी किसी जाति का उल्लेख प्राचीन वांग्मय में न होना स्वाभाविक ही है। तो फिर चमार जाति कहाँ से आई ? ये संज्ञा बनी ही कैसे ?
चर्ममारी राजवंश का उल्लेख महाभारत जैसे प्राचीन भारतीय वांग्मय में मिलता है। प्रतिष्ठित लेखक डॉ विजय सोनकर शास्त्री ने इस विषय पर गहन शोध कर चर्ममारी राजवंश के इतिहास पर लिखा है। इसी तरह चमार शब्द से मिलते-जुलते शब्द चंवर वंश के क्षत्रियों के बारे में कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक 'राजस्थान का इतिहास' में लिखा है। चंवर राजवंश का शासन पश्चिमी भारत पर रहा है। इसकी शाखाएं मेवाड़ के प्रतापी सम्राट महाराज बाप्पा रावल के वंश से मिलती हैं। आज जाटव या चमार माने-समझे जाने वाले संत रविदास जी महाराज इसी वंश में हुए हैं जो राणा सांगा और उनकी पत्नी के गुरू थे। संत रविदास जी महाराज लम्बे समय तक चित्तौड़ के दुर्ग में महाराणा सांगा के गुरू के रूप में रहे हैं। संत रविदास जी महाराज के महान, प्रभावी व्यक्तित्व के कारण बड़ी संख्या में लोग इनके शिष्य बने। आज भी इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में रविदासी पाये जाते हैं।
उस काल का मुस्लिम सुल्तान सिकंदर लोधी अन्य किसी भी सामान्य मुस्लिम शासक की तरह भारत के हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की उधेड़बुन में लगा रहता था। इन सभी आक्रमणकारियों की दृष्टि ग़ाज़ी उपाधि पर रहती थी। सुल्तान सिकंदर लोधी ने संत रविदास जी महाराज मुसलमान बनाने की जुगत में अपने मुल्लाओं को लगाया। जनश्रुति है कि वो मुल्ला संत रविदास जी महाराज से प्रभावित हो कर स्वयं उनके शिष्य बन गए और एक तो रामदास नाम रख कर हिन्दू हो गया।
सिकंदर लोदी अपने षड्यंत्र की यह दुर्गति होने पर चिढ गया और उसने संत रविदास जी को बंदी बना लिया और उनके अनुयायियों को हिन्दुओं में सदैव से निषिद्ध खाल उतारने, चमड़ा कमाने, जूते बनाने के काम में लगाया। इसी दुष्ट ने चंवर वंश के क्षत्रियों को अपमानित करने के लिये नाम बिगाड़ कर चमार सम्बोधित किया। चमार शब्‍द का पहला प्रयोग यहीं से शुरू हुआ। संत रविदास जी महाराज की ये पंक्तियाँ सिकंदर लोधी के अत्याचार का वर्णन करती हैं।
वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान 
फिर मैं क्यों छोड़ूँ इसे पढ़ लूँ झूट क़ुरान 
वेद धर्म छोड़ूँ नहीं कोसिस करो हजार 
तिल-तिल काटो चाही गोदो अंग कटार
चंवर वंश के क्षत्रिय संत रविदास जी के बंदी बनाने का समाचार मिलने पर दिल्ली पर चढ़ दौड़े और दिल्‍ली की नाक़ाबंदी कर ली। विवश हो कर सुल्तान सिकंदर लोदी को संत रविदास जी को छोड़ना पड़ा । इस झपट का ज़िक्र इतिहास की पुस्तकों में नहीं है मगर संत रविदास जी के ग्रन्थ रविदास रामायण की यह पंक्तियाँ सत्य उद्घाटित करती हैं
बादशाह ने वचन उचारा । मत प्‍यारा इसलाम हमारा ।।
खंडन करै उसे रविदासा । उसे करौ प्राण कौ नाशा ।। 
जब तक राम नाम रट लावे । दाना पानी यह नहीं पावे ।।
जब इसलाम धर्म स्‍वीकारे । मुख से कलमा आप उचारै ।।
पढे नमाज जभी चितलाई । दाना पानी तब यह पाई ।।
भारतीय वांग्मय में आर्थिक विभाजन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के रूप में मिलता है। मगर प्राचीन काल में इन समाजों में छुआछूत बिल्कुल नहीं थी। कारण सीधा सा था ये विभाजन आर्थिक था। इसमें लोग अपनी रूचि के अनुसार वर्ण बदल सकते थे। कुछ संदर्भ इस बात के प्रमाण के लिये देने उपयुक्त रहेंगे। मैं अनुवाद दे रहा हूँ। संस्कृत में आवश्यकता होने पर संदर्भ मिलाये जा सकते हैं।
मनु स्मृति 10:65 ब्राह्मण शूद्र बन सकता है और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपना वर्ण बदल सकते हैं।
मनु स्मृति 4:245 ब्राह्मण वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ, अति-श्रेष्ठ व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़ कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित हो कर वह शूद्र बन जाता है।
मनु स्मृति 2:168 जो ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़ कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है। उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है।
आप देख सकते हैं ये समाज के चलने के लिए काम बंटाने और उसके इसके अनुरूप विभाजन की बात हैं और इसमें जन्मना कुछ नहीं है। एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाना संभव था। महर्षि विश्वामित्र का जगत-प्रसिद्ध उदाहरण क्षत्रिय से ब्राह्मण बनने का है। सत्यकेतु, जाबालि ऋषि, सम्राट नहुष के उदाहरण वर्ण बदलने के हैं। एक गणिका के पुत्र जाबालि, जिनकी माँ वृत्ति करती थीं और जिसके कारण उन्हें अपने पिता का नाम पता नहीं था, ऋषि कहलाये। तब ब्राह्मण भी आज की तरह केवल शिक्षा देने-लेने, यज्ञ करने-कराने, दान लेने-देने तक सीमित नहीं थे। वेदों में रथ बनाने वाले को, लकड़ी का काम करने वाले बढ़ई को, मिटटी का काम करने वाले कुम्हार को ऋषि की संज्ञा दी गयी है। सभी वो काम जिनमें नया कुछ खोजा गया ऋषि के काम थे।
यहाँ एक वैदिक ऋषि की चर्चा करना उपयुक्त होगा। वेद सृष्टि के उषा काल के ग्रन्थ हैं। भोले-भाले, सीधे-साधे लोग जो देखते हैं उसे छंदबद्ध करते हैं। ऋषि कवष ऐलूष ने वेद में अक्ष-सूक्त जोड़ा है। अक्ष जुए खेलने के पाँसे को कहते हैं। इस सूक्त में ऋषि कवष ऐलूष ने अपनी आत्मकथा और जुए से जुड़े सामाजिक आख्यान, उपेक्षा, बदनामी की बात करुणापूर्ण स्वर में लिखी है। कवष इलूष के पुत्र थे जो शूद्र थे। ऐतरेय ब्राह्मण बताता है कि सरस्वती नदी के तट पर ऋषि यज्ञ कर रहे थे कि शूद्र कवष ऐलूष वहां पहुंचे।
यज्ञ में सामाजिक रूप से प्रताड़ित जुआरी के भाग लेने के लिये ऋषियों ने कवष ऐलूष को अपमानित कर निष्काषित कर दिया और उन्हें ऐसी भूमि पर छोड़ा गया जो जलविहीन थी। कवष ऐलूष ने उस जलविहीन क्षेत्र में देवताओं की स्तुति में सूक्त की रचना की और कहते हैं सरस्वती नदी अपना स्वाभाविक मार्ग बदल कर शूद्र कवष ऐलूष के पास आ गयीं। सरस्वती की धारा ने कवष ऐलूष की परिक्रमा की, उन्हें घेर लिया। यज्ञकर्ता ऋषि दौड़े-दौड़े आये और शूद्र कवष ऐलूष की अभ्यर्थना की। उन्हें ऋषि कह कर पुकारा। उनके ये सूक्त ऋग्वेद के दसवें मंडल में मिलते हैं।
इस घटना से ही पता चलता है कि शूद्र का ब्राह्मण वर्ण में आना सामान्य घटना ही थी। ध्यान रहे कि वर्ण और जातियों में अंतर है। वर्णों में एक-दूसरे में आना-जाना चलता था और इसे उन्नति या अवनति नहीं समझा जाता था। ये केवल स्वभाव के अनुसार आर्थिक विभाजन था। भारत में वर्ण जन्म से नहीं थे और इनमें व्यक्ति की इच्छा के अनुसार बदलाव होता था। कई बार ये पेशे थे और इन पेशों के कारण ही मूलतः जातियां बनीं। कई बार ये घुमंतू क़बीले थे, उनसे भी कई जातियों की पहचान बनी। वर्ण-व्यवस्था समाज को चलाने की एक व्यवस्था थी मगर वो व्यवस्था हज़ारों साल पहले ही समाप्त हो गयी। वर्णों में एक-दूसरे में आना-जाना चलता था ये भी सच है कि कालांतर में ये आवागमन बंद हो गया।
उसका कारण भारत पर लगातार आक्रमण और उससे बचने लिये समाज का अपने में सिमट जाना था। समाज ने इस आक्रमण और ज़बरदस्ती किये जाने वाले धर्मांतरण से बचाव के लिये अपनी जकड़बन्दियों की व्यवस्था बना ली। अपनी जाति से बाहर जाने की बात सोचना पाप बना दिया गया। रोटी-बेटी का व्यवहार बंद करना ऐसी ही व्यवस्था थी। इन जकड़बन्दियों का ख़राब परिणाम यह हुआ कि सारी जातियों के लोग स्वयं में सिमट गए और अपने अतिरिक्त सभी को स्वयं से हल्का, कम मानने लगे। वो दूरी जो एक वैश्य समाज जाटव वर्ग से रखता था वही जाटव समाज भी बाल्मीकि समाज से बरतने लगा। आपमें से कोई भी जांच-पड़ताल कर सकता है। केवल 5 उदाहरण भी भारत भर में जाटव लड़की के बाल्मीकि लड़के से विवाह के नहीं मिलेंगे। अब महानगरों में समाज बदल गया है और अंतर्जातीय विवाह समय बात हो गयी है मगर आज से 30 वर्ष पूर्व ऐसी घटना लगभग असंभव थी।
आज बदलते समाज में शायद ये कुछ न दिखाई दे मगर आज से सौ साल पहले पंचों द्वारा व्यक्ति या परिवार से समाज का रोटी-बेटी का, हुक्का-पानी का व्यवहार बंद करना, उसका जीवन असंभव बना देता था। इसका अर्थ अंतिम संस्कार के लिये चार कंधे भी न मिलना होता था। इसका लक्ष्य अपने लोगों का धर्मांतरण न होने देना था। ये बंधन इतने कठोर थे कि अकबर के मंत्री बीरबल, टोडरमल तक उसका सारा ज़ोर लगा देने के बाद भी उसके चलाये धर्म दीने-इलाही और उसके पुराने धर्म इस्लाम में दीक्षित नहीं हुए।
प्राचीन भारत में भारत में शौचालय घर के अंदर नहीं होते थे। लोग इसके लिये घर से दूर जाते थे। समाज के लोगों में ये भाव कभी था ही नहीं कि उनका अकेले-दुकेले बाहर निकलना जीवन को संकट में डाल सकता है। मगर ये विदेशी आक्रमणकारी हर समय आशंकित रहते थे। उन्हें स्थानीय समाज से ही नहीं अपने साथियों से प्राणघाती आक्रमण की आशंका सताती थी। इसलिए उन्होंने क़िलों में सुरक्षित शौचालय बनवाये और मल-मूत्र त्यागने के बाद उन पात्रों को उठाने के लिये पराजित स्थानीय लोगों को लगाया। भारत में इस घृणित पेशे की शुरुआत यहीं से हुई है। इन विदेशी आक्रमणकारियों में इसके कारण अपनी उच्चता का आभास भी होता था और ऐसा घोर निंदनीय कृत्य उन्हें अपने पराजित को पूर्णरूपेण ध्वस्त हो जाने की आश्वस्ति देता था।
इन आक्रमणकारियों ने पराजित समाज के योद्धाओं को मार डाला और उनके बचे परिवार को इस्लाम या घृणित कार्यों को करने का विकल्प दिया। जो लोग डर कर, दबाव सहन न कर पाने के कारण मुसलमान बन गए, उन्हीं के वंशज आज के मुसलमान हैं। जो लोग मुसलमान नहीं बने, उन्होंने अपने प्राणों से प्रिय शिखा-सूत्र काट दिये और अपने धर्म को न छोड़ने के कारण भंगी-चमार संज्ञा स्वीकार की। यहाँ ये बात आवश्यक रूप से ध्यान रखने की है कि इन प्रतिष्ठित योद्धा जाति के लोगों ने पराजित हो कर भी धर्म नहीं छोड़ा।
इस्लाम के भयानक अत्याचार सहे, आत्मा तक को तोड़ देने वाला सिर पर मल-मूत्र ढोने का अत्याचार सहा, पशुओं की खाल उतारने कार्य किया, चमड़ा कमाने-जूते बनाने का कार्य किया मगर मुसलमान नहीं हुए। ये जाटव, बाल्मीकि समाज के लोग हमारे उन महान वीर पूर्वजों की संतानें हैं। आज भी इन योद्धा जातियों के वंशजों के बड़े हिस्से में अपने नाम के साथ सिंह लगाने की परम्परा है। अपने सिर पर मल-मूत्र ढोने वाले, जूते बनाने वाले कहीं सिंह होते हैं ? ये वस्तुतः सिंह ही हैं जिन्हें गीदड़ बनने पर विवश करने के लिये इस तरह अपमानित किया गया।
बाबा साहब अम्बेडकर ने भी अपने लेखों में लिखा है कि हम योद्धा जातियों के लोग हैं। यही कारण है कि 1921 की जनगणना के समय चमार जाति के नेताओं ने वायसराय को प्रतिवेदन दिया था कि हमें राजपूतों में गिना जाये। हम राजपूत हैं। अँगरेज़ अधिकारियों ने ही ये नहीं माना बल्कि हिन्दू समाज भी इस बात को काल के प्रवाह में भूल गया और स्वयं भी इस महान योद्धाओं की संतानों से वही घृणित दूरी रखने लगा जो आक्रमणकारी रखते थे। होना यह चाहिए था कि इनकी स्तुति करता, नमन करता, इनको गले लगता मगर शेष हिन्दू समाज स्वयं आक्रमणकारियों के वैचारिक फंदे में फंस गया।
भारत में विदेशी मूल के मुसलमान सैयद, पठान, तुर्क आज भी स्थानीय धर्मांतरितों को नीची निगाह से देखते हैं। स्वयं को अशराफ़ { शरीफ़ का बहुवचन } और उनको रज़ील, कमीन , कमज़ात, हक़ीर कहते हैं। रिश्ता-नाता तो बहुत दूर की बात है, ऐसी भनक भी लग जाये तो मार-काट हो जाती है मगर सामने इस्लामी एकता का ड्रामा किया जाता है। ये समाज अपने ही मज़हब के लोगों के लिए कैसी हीनभावना रखता है इसका अनुमान इन सामान्य व्यवहार होने वाली पंक्तियों से लगाया जा सकता है।
ग़लत को ते से लिख मारा जुलाहा फिर जुलाहा है
तरक़्क़ी ख़ाक अब उर्दू करेगी 
जुलाहे शायरी करने लगे हैं
अपने मज़हब के लोगों के लिए घटिया सोच रखने वाला समूह इन दलित भाइयों का धर्मांतरण करने के लिये गिद्ध जैसी टकटकी बाँध कर नज़र गड़ाए हुए रहता है। वो हिंदू समाज के इन योद्धा-वर्ग के वंशजों को अब भी अपने पाले में लाना चाहता है। दलित समाज के राजनेताओं ने भी इस शिकंजे में फंस जाने को अपने हित का काम समझ लिया है। ऐसे राजनेता जिनका काम ही समाज के छोटे-छोटे खंड बाँट कर अपनी दुकान चलाना है, इस दूरी को बढ़ाने में लगे रहते हैं। जिस समाज के लोगों ने सब कुछ सहा मगर राम-कृष्ण, शंकर-पार्वती, भगवती दुर्गा को नहीं त्यागा अब उन्हीं के बीच के राजनैतिक लोग समाज के अपने हित के लिए टुकड़े-टुकड़े करने का प्रयास कर रहे हैं। लक्ष्य वही ग़ज़वा-ए-हिन्द है और तकनीक शेर के छोटे-छोटे हज़ार घाव देने की है। जिससे धीरे-धीरे ख़ून बहने से शेर की मौत हो जाये।
तुफ़ैल चतुर्वेदी

Saturday, July 18, 2015

|| 'पहाड़ से ऊँचा आदमी' : माउंटेन मैन 'दशरथ मांझी' ||


|| हिम्मत, लगन , साहस और जज्बे की प्रेरणादायी कथा; सिर्फ छेनी और हथोडी और बहुत सारे आत्मबल के सहारे बिहार के दशरथ मांझी नाम के एक बहुत ही गरीब आदमी ने एक पहाड़ का सीना चीर कर सड़क का निर्माण किया . उसने पहाड़ी के घूम कर जाने वाले 70 किलोमीटर वाले रास्ते को एक किलोमीटर में बदल दिया . २२ साल की लगातार मेहनत से उसने ये काम कर दिखाया ||
ऐसे महान व्यक्ति की कथा जिसके बारे मे सुन कर यकीं नहीं होता कि इस धरती पर ऐसे इंसान भी जन्म लेते हैं.ऐसा साहस, ऐसी दृढ इच्छा शक्ति, ऐसा संयम जो आपने शायद ही पहले किसी और व्यक्ति में देखा होगा.तो आइये मिलते हैं इस महान REAL HERO से.


आपने कई बार लोगों को यह कहते सुना होगा कि “अगर इंसान चाहे तो वह पहाड़ को भी हिला कर दिखा सकता है” .और आज हम आपको ऐसे ही व्यक्ति से रूबरू करा रहे हैं जिन्होंने अकेले दम पर सच-मुच पहाड़ को हिला कर दिखा दिया है.
मैं बात कर रहा हूँ गया (Gaya) जिले के एक अति पिछड़े गांव गहलौर(Gahlaur) में रहनेवाले Dashrath Manjhi ( दशरथ मांझी) की। गहलौर एक ऐसी जगह है जहाँ पानी के लिए भी लोगों को तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था. वहीँ अपने परिवार के साथ एक छोटे से झोपड़े में रहने वाले
पेशे से मजदूर श्री Dasrath Manjhi ने गहलौर पहाड़ को अकेले दम पर चीर कर 360 फीट लंबा और 30 फीट चौड़ा रास्ता बना दिया. इसकी वजह से गया जिले के अत्री और वजीरगंज ब्लाक के बीच कि दूरी 80 किलोमीटर से घट कर मात्र 3 किलोमीटर रह गयी. ज़ाहिर है इससे उनके गांव वालों को काफी सहूलियत हो गयी.
और इस पहाड़ जैसे काम को करने के लिए उन्होंने किसी dynamite या मशीन का इस्तेमाल नहीं किया, उन्होंने तो सिर्फ अपनी छेनी-हथौड़ी से ही ये कारनामा कर दिखाया. इस काम को करने के लिए उन्होंने ना जाने कितनी ही दिक्कतों का सामना किया, कभी लोग उन्हें पागल कहते तो कभी सनकी, यहाँ तक कि घर वालों ने भी शुरू में उनका काफी विरोध किया पर अपनी धुन के पक्के Dasrath Manjhi ने किसी की न सुनी और एक बार जो छेनी-हथौड़ी उठाई तो बाईस साल बाद ही उसे छोड़ा.जी हाँ सन 1960 जब वो 25 साल के भी नहीं थे, तबसे हाथ मेंछेनी-हथौड़ी लिये वे बाइस साल पहाड़ काटते रहे। रात-दिन,आंधी-पानी कीचिंता किये बिना Dashrath Manjhi नामुमकिन को मुमकिन करने में जुटे रहे. अंतत: पहाड़ को झुकना ही पड़ा. 22 साल (1960-1982) के अथक परिश्रम के बाद ही उनका यह कार्य पूर्ण हुआ. पर उन्हें हमेशा यह अफ़सोस रहा कि जिस पत्नी कि परेशानियों को देखकर उनके मन में यह काम करने का जज्बा आया अब वही उनके बनाये इस रस्ते पर चलने के लिए जीवित नहीं थी.
दशरथ जी के इस कारनामे के बाद दुनिया उन्हें Mountain Cutter और Mountain Man के नाम से भी जानने लगी. वैसे पहले भी रेल पटरी केसहारे गया से पैदल दिल्ली यात्रा कर जगजीवन राम औरतत्कालीन प्रधानमंत्रीइंदिरा गांधी से मिलनेका अद्भुत कार्य भी दशरथ मांझी ने किया था. पर पहाड़ चीरने के आश्चर्यजनक काम के बाद इन कामों का क्या महत्व रह जाता है?

पढ़िए राजीव गाँधी पर सनसनीखेज खुलासे ?? गाँधी खानदान की परम्परा को इसने खूब निभाया


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ब्रिटेन के नेशनल आर्काइव्ज में में रखे दस्तावेजों से एक नया खुलासा हुआ है। दस्तावेजों के अनुसार मार्गरेट थैचर सरकार के सदस्यों को डर था कि पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा समर्थित समझौते को लेकर भारत का रख बदल सकता है। थैचर के विशेष सलाहकारों में शामिल पीटर वैरी ने इंदिरा गांधी की हत्या के एक दिन बाद एक नवंबर 1984 को जारी एक पत्र में कहा था, "इस सौदे को इंदिरा गांधी का समर्थन हासिल था और ऎसा संभव है कि उच्च स्तर पर यह समर्थन नहीं मिलने की स्थिति में फ्रांस हस्तक्षेप कर सकता है और करार हमारे हाथों से निकल सकता है। यह बात सार्वजनिक किए गए ब्रिटेन की सरकारी दस्तावेजों में सामने आई है। 
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नई दिल्ली में ब्रिटेन के उच्चायोग के साथ मिलकर ब्रिटेन के विदेश एवं राष्ट्रमंडल कार्यालय (एफसीओ) द्वारा तैयार किए गए पृष्ठभूमि का विवरण देने वाले दस्तावेजों में कहा गया है कि वेस्टलैंड डब्ल्यू 30 हेलीकॉप्टरों की बिक्री संबंधी करार वार्ता के अंतिम चरणों में है। भारत सबसे ब़डे संभावित बिक्री बाजारों में शामिल है जहां 1975 से 1.28 अरब पाउंड की रक्षा बिक्री हुई है। भारत में ब्रिटेन के तत्कालीन उच्चायुक्त रोबर्ट वेड ग्रे ने एक चेतावनी जारी की थी कि इंदिरा गांधी के निधन के बाद ब्रिटेन में ब्रिटिश सिखों द्वारा खुशियां मनाने का करार पर सीधा असर हो सकता है। 
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उन्होंने तत्कालीन विदेश सचिव जेफ्री होवे को लिखा था, "मौजूदा रक्षा करारों को रद्द करने समेत व्यापारिक बहिष्कार की भी बात चल रही है।" उन्होंने कहा था कि इसका असर वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर करार पर भी प़ड सकता है। नयी दिल्ली में ब्रिटेन के उच्चायोग द्वारा तैयार गोपनीय प्रोफाइल में राजीव गांधी के बारे में भी कई दिलचस्प बातें सामने आई है। उसमें कहा गया था, "राजीव धीमे बात करने वाले, विनम्र और शर्मीले स्वभाव के इंसान हैं। वह बुद्धिजीवी नहीं है और न ही आवेश में आकर काम करते हैं। वह मानसिक रूप से मजबूत हैं और दिखाते हैं कि उनकी एक स्वतंत्र सोच है। इस तरह वह कई तरह से अपनी मां की तरह है जैसी वह प्रधानमंत्री बनने से पूर्व थीं।"
इस प्रोफाइल में कहा गया है, "राजीव ने एक इतालवी ल़डकी (जिसने 1983 में भारतीय नागरिकता ली) सोनिया से विवाह किया जिनसे वह 1968 में कैब्रिज में मिले थे। सोनिया सुंदर एवं शांत हैं और राजनीति में उनकी रूचि नहीं है और वह स्पष्ट रूप से राजीव को घर पर सुरक्षा की भावना देती हैं। एमसीओ के रिकॉडोंü में कहा गया है, "एक नए ब़डे तोपखाने संबंधी करार पर निर्णय निकट है। ब्रिटिश एफएच70 मजबूत दावेदार हैं। करार का कुल मूल्य 80 करो़ड पाउंड है। हालांकि भारतीय सेना को जिन गुणवत्ताओं की आवश्यकता है वह एफएच 70 के पास हैं लेकिन प्रतियोगिता क़डी है और इसके समर्थन में राजनीतिक हस्तक्षेप की आवश्यकता हो सकती है।" उसमें कहा गया है, "11 सी हैरियर खरीदने में भारतीयों की दिलचस्पी है। यहां हमारे सामने कोई मुकाबला नहीं है।" 
हालांकि संदेहास्पद वस्टलैंड समझौता अंतत: आगे बढ़ा लेकिन इसे बाद में इसमें शामिल अधिकारियों ने "धन की भयानक बर्बादी" करार दिया। भारत ने 21 वेस्टलैंड 30 हेलीकॉप्टर खरीदे थे और इसके लिए धन ब्रिटेन के सहायता बजट से आया था और हेलीकॉप्टर खरीदने की शर्त पर इसे भारत को दिया गया था। 14 सीटों वाले वेस्टलैंड 30 हेलीकॉप्टर अत्यधिक अविश्वसनीय और वाणिज्यिक बर्बादी साबित हुए। भारत ने मशीनों में तकनीकी ग़डब़डी पाए जाने पर सभी हेलीकॉप्टर ब्रिटेन को नौ लाख पाउंड में कबाड के दाम बेच दिए थे।

Wednesday, July 15, 2015

आखिर कौन होते हैं नागा साधू???? जाने उनका रहस्य........


अक्सर मुस्लिम और अंबेडकर वादी नागा साधूओं की तस्वीर दिखा कर हिन्दु धर्म के साधूओं का अपमान करने की और हिन्दुओं को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं उन लोगों को नागा साधूओं का गौरवशाली इतिहास पता नहीं होता जानें नागा साधूओं का गौरवशाली इतिहास और उसकी महानता।
नागा साधूओं का इतिहास
नागा साधु हिन्दू धर्मावलम्बी साधु हैं जो कि नग्न रहने तथा युद्ध कला में माहिर होने के लिये प्रसिद्ध हैं। ये विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं जिनकी परम्परा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा की गयी थी।
नागा साधूओं का इतिहास
भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। शंकर का जन्म ८वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब भारतीय जनमानस की दशा और दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। भारत की धन संपदा से खिंचे तमाम आक्रमणकारी यहाँ आ रहे थे। कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए, लेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। यह थीं गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ। इसके अलावा आदिगुरू ने मठों-मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरूआत की।


नागा साधूओं का इतिहास 

आदिगुरू शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें ४० हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।
नागा साधू
नागा साधुओं की लोकप्रियता है। संन्यासी संप्रदाय से जुड़े साधुओं का संसार और गृहस्थ जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता। गृहस्थ जीवन जितना कठिन होता है उससे सौ गुना ज्यादा कठिन नागाओं का जीवन है। यहां प्रस्तुत है नागा से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी।
1.
नागा अभिवादन मंत्र : ॐ नमो नारायण
2.
नागा का ईश्वर : शिव के भक्त नागा साधु शिव के अलावा किसी को भी नहीं मानते।
*नागा वस्तुएं : त्रिशूल, डमरू, रुद्राक्ष, तलवार, शंख, कुंडल, कमंडल, कड़ा, चिमटा, कमरबंध या कोपीन, चिलम, धुनी के अलावा भभूत आदि।
3.
नागा का कार्य : गुरु की सेवा, आश्रम का कार्य, प्रार्थना, तपस्या और योग क्रियाएं करना।
4.
नागा दिनचर्या : नागा साधु सुबह चार बजे बिस्तर छोडऩे के बाद नित्य क्रिया व स्नान के बाद श्रृंगार पहला काम करते हैं। इसके बाद हवन, ध्यान, बज्रोली, प्राणायाम, कपाल क्रिया व नौली क्रिया करते हैं। पूरे दिन में एक बार शाम को भोजन करने के बाद ये फिर से बिस्तर पर चले जाते हैं।
5.
सात अखाड़े ही बनाते हैं नागा : संतों के तेरह अखाड़ों में सात संन्यासी अखाड़े ही नागा साधु बनाते हैं:- ये हैं जूना, महानिर्वणी, निरंजनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा।
6.
नागा इतिहास : सबसे पहले वेद व्यास ने संगठित रूप से वनवासी संन्यासी परंपरा शुरू की। उनके बाद शुकदेव ने, फिर अनेक ऋषि और संतों ने इस परंपरा को अपने-अपने तरीके से नया आकार दिया। बाद में शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित कर दसनामी संप्रदाय का गठन किया। बाद में अखाड़ों की परंपरा शुरू हुई। पहला अखाड़ा अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में बना।
7.
नाथ परंपरा : माना जाता है कि नाग, नाथ और नागा परंपरा गुरु दत्तात्रेय की परंपरा की शाखाएं है। नवनाथ की परंपरा को सिद्धों की बहुत ही महत्वपूर्ण परंपरा माना जाता है। गुरु मत्स्येंद्र नाथ, गुरु गोरखनाथ साईनाथ बाबा, गजानन महाराज, कनीफनाथ, बाबा रामदेव, तेजाजी महाराज, चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। घुमक्कड़ी नाथों में ज्यादा रही।
8.
नागा उपाधियां : चार जगहों पर होने वाले कुंभ में नागा साधु बनने पर उन्हें अलग अलग नाम दिए जाते हैं। इलाहाबाद के कुंभ में उपाधि पाने वाले को 1.नागा, उज्जैन में 2.खूनी नागा, हरिद्वार में 3.बर्फानी नागा तथा नासिक में उपाधि पाने वाले को 4.खिचडिया नागा कहा जाता है। इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कुंभ में नागा बनाया गया है।
उनकी वरीयता के आधार पर पद भी दिए जाते हैं। कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव उनके पद होते हैं। सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पद सचिव का होता है।
10.
कठिन परीक्षा : नागा साधु बनने के लिए लग जाते हैं 12 वर्ष। नागा पंथ में शामिल होने के लिए जरूरी जानकारी हासिल करने में छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूं ही रहते हैं।
11.
नागाओं की शिक्षा और ‍दीक्षा : नागा साधुओं को सबसे पहले ब्रह्मचारी बनने की शिक्षा दी जाती है। इस परीक्षा को पास करने के बाद महापुरुष दीक्षा होती है। बाद की परीक्षा खुद के यज्ञोपवीत और पिंडदान की होती है जिसे बिजवान कहा जाता है।
अंतिम परीक्षा दिगम्बर और फिर श्रीदिगम्बर की होती है। दिगम्बर नागा एक लंगोटी धारण कर सकता है, लेकिन श्रीदिगम्बर को बिना कपड़े के रहना होता है। श्रीदिगम्बर नागा की इन्द्री तोड़ दी जाती है।
12.
कहां रहते हैं नागा साधु : नाना साधु अखाड़े के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं। कुछ तप के लिए हिमालय या ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं। अखाड़े के आदेशानुसार यह पैदल भ्रमण भी करते हैं। इसी दौरान किसी गांव की मेर पर झोपड़ी बनाकर धुनी रमाते हैं।
नागा साधू बनने की प्रक्रिया.
नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लम्बी होती है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूँ ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर योग्य व्यक्ति को ही प्रवेश देता है। पहले उसे लम्बे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है, फिर उसे महापुरुष तथा फिर अवधूत बनाया जाता है। अन्तिम प्रक्रिया महाकुम्भ के दौरान होती है जिसमें उसका स्वयं का पिण्डदान तथा दण्डी संस्कार आदि शामिल होता है।[2]

ऐसे होते हैं 17 श्रृंगार(नागा साधू)

बातचीत के दौरान नागा संत ने कहा कि शाही स्नान से पहले नागा साधु पूरी तरह सज-धज कर तैयार होते हैं और फिर अपने ईष्ट की प्रार्थना करते हैं। नागाओं के सत्रह श्रृंगार के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि लंगोट, भभूत, चंदन, पैरों में लोहे या फिर चांदी का कड़ा, अंगूठी, पंचकेश, कमर में फूलों की माला, माथे पर रोली का लेप, कुंडल, हाथों में चिमटा, डमरू या कमंडल, गुथी हुई जटाएं और तिलक, काजल, हाथों में कड़ा, बदन में विभूति का लेप और बाहों पर रूद्राक्ष की माला 17 श्रृंगार में शामिल होते हैं।
नागा साधू
सन्यासियों की इस परंपरा मे शामील होना बड़ा कठिन होता है और अखाड़े किसी को आसानी से नागा रूप मे स्वीकार नहीं करते। वर्षो बकायदे परीक्षा ली जाती है जिसमे तप , ब्रहमचर्य , वैराग्य , ध्यान ,सन्यास और धर्म का अनुसासन तथा निस्ठा आदि प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं। फिर ये अपना श्रध्या , मुंडन और पिंडदान करते हैं तथा गुरु मंत्र लेकर सन्यास धर्म मे दीक्षित होते है इसके बाद इनका जीवन अखाड़ों , संत परम्पराओं और समाज के लिए समर्पित हो जाता है,
अपना श्रध्या कर देने का मतलब होता है सांसरिक जीवन से पूरी तरह विरक्त हो जाना , इंद्रियों मे नियंत्रण करना और हर प्रकार की कामना का अंत कर देना होता है कहते हैं की नागा जीवन एक इतर जीवन का साक्षात ब्यौरा है और निस्सारता , नश्वरता को समझ लेने की एक प्रकट झांकी है । नागा साधुओं के बारे मे ये भी कहा जाता है की वे पूरी तरह निर्वस्त्र रह कर गुफाओं , कन्दराओं मे कठोर ताप करते हैं । प्राच्य विद्या सोसाइटी के अनुसार “नागा साधुओं के अनेक विशिष्ट संस्कारों मे ये भी शामिल है की इनकी कामेन्द्रियन भंग कर दी जाती हैं”। इस प्रकार से शारीरिक रूप से तो सभी नागा साधू विरक्त हो जाते हैं लेकिन उनकी मानसिक अवस्था उनके अपने तप बल निर्भर करती है ।
विदेशी नागा साधू
सनातन धर्म योग, ध्यान और समाधि के कारण हमेशा विदेशियों को आकर्षित करता रहा है लेकिन अब बडी तेजी से विदेशी खासकर यूरोप की महिलाओं के बीच नागा साधु बनने का आकर्षण बढ़ता जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर चल रहे महाकुंभ मेले में विदेशी महिला नागा साधू आकर्षण के केन्द्र में हैं। यह जानते हुए भी कि नागा बनने के लिए कई कठिन प्रक्रिया और तपस्या से गुजरना होता है विदेशी महिलाओं ने इसे अपनाया है।
आमतौर पर अब तक नेपाल से साधू बनने वाली महिलाए ही नागा बनती थी। इसका कारण यह कि नेपाल में विधवाओं के फिर से विवाह को अच्छा नहीं माना जाता। ऐसा करने वाली महिलाओं को वहां का समाज भी अच्छी नजरों से भी नहीं देखता लिहाजा विधवा होने वाली नेपाली महिलाएं पहले तो साधू बनती थीं और बाद में नागा साधु बनने की कठिन प्रक्रिया से जुड़ जाती थी।
नागा साधू
कालांतर मे सन्यासियों के सबसे बड़े जूना आखाठे मे सन्यासियों के एक वर्ग को विशेष रूप से शस्त्र और शास्त्र दोनों मे पारंगत करके संस्थागत रूप प्रदान किया । उद्देश्य यह था की जो शास्त्र से न माने उन्हे शस्त्र से मनाया जाय । ये नग्ना अवस्था मे रहते थे , इन्हे त्रिशूल , भाला ,तलवार,मल्ल और छापा मार युद्ध मे प्रशिक्षिण दिया जाता था । इस तरह के भी उल्लेख मिलते हैं की औरंगजेब के खिलाफ युद्ध मे नागा लोगो ने शिवाजी का साथ दिया था
नागा साधू
जूना के अखाड़े के संतों द्वारा तीनों योगों- ध्यान योग , क्रिया योग , और मंत्र योग का पालन किया जाता है यही कारण है की नागा साधू हिमालय के ऊंचे शिखरों पर शून्य से काफी नीचे के तापमान पर भी जीवित रह लेते हैं, इनके जीवन का मूल मंत्र है आत्मनियंत्रण, चाहे वह भोजन मे हो या फिर विचारों मे
नागा साधू
बात 1857 की है। पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बज चुका था। यहां पर तो क्रांति की ज्वाला की पहली लपट 57 के 13 साल पहले 6 जून को मऊ कस्बे में छह अंग्रेज अफसरों के खून से आहुति ले चुकी थी।
एक अप्रैल 1858 को मप्र के रीवा जिले की मनकेहरी रियासत के जागीरदार ठाकुर रणमत सिंह बाघेल ने लगभग तीन सौ साथियों को लेकर नागौद में अंग्रेजों की छावनी में आक्रमण कर दिया। मेजर केलिस को मारने के साथ वहां पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद 23 मई को सीधे अंग्रेजों की तत्कालीन बड़ी छावनी नौगांव का रुख किया। पर मेजर कर्क की तगड़ी व्यूह रचना के कारण यहां पर वे सफल न हो सके। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता को झांसी जाना चाहते थे पर उन्हें चित्रकूट का रुख करना पड़ा। यहां पर पिंडरा के जागीरदार ठाकुर दलगंजन सिंह ने भी अपनी 1500 सिपाहियों की सेना को लेकर 11 जून को 1958 को दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर उनका सामान लूटकर चित्रकूट का रुख किया। यहां के हनुमान धारा के पहाड़ पर उन्होंने डेरा डाल रखा था, जहां उनकी सहायता नागा साधु-संत कर रहे थे। लगभग तीन सौ से ज्यादा नागा साधु क्रांतिकारियों के साथ अगली रणनीति पर काम कर रहे थे। तभी नौगांव से वापसी करती ठाकुर रणमत सिंह बाघेल भी अपनी सेना लेकर आ गये। इसी समय पन्ना और अजयगढ़ के नरेशों ने अंग्रेजों की फौज के साथ हनुमान धारा पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन रियासतदारों ने भी अंग्रेजों की मदद की। सैकड़ों साधुओं ने क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लिया। तीन दिनों तक चले इस युद्ध में क्रांतिकारियों को मुंह की खानी पड़ी। ठाकुर दलगंजन सिंह यहां पर वीरगति को प्राप्त हुये जबकि ठाकुर रणमत सिंह गंभीर रूप से घायल हो गये।
करीब तीन सौ साधुओं के साथ क्रांतिकारियों के खून से हनुमानधारा का पहाड़ लाल हो गया।
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के अधिष्ठाता डा. कमलेश थापक कहते हैं कि वास्तव में चित्रकूट में हुई क्रांति असफल क्रांति थी। यहां पर तीन सौ से ज्यादा साधु शहीद हो गये थे। साक्ष्यों में जहां ठाकुर रणमतिसह बाघेल के साथ ही ठाकुर दलगंजन सिंह के अलावा वीर सिंह, राम प्रताप सिंह, श्याम शाह, भवानी सिंह बाघेल (भगवान् सिंह बाघेल ), सहामत खां, लाला लोचन सिंह, भोला बारी, कामता लोहार, तालिब बेग आदि के नामों को उल्लेख मिलता है वहीं साधुओं की मूल पहचान उनके निवास स्थान के नाम से अलग हो जाने के कारण मिलती नहीं है। उन्होंने कहा कि वैसे इस घटना का पूरा जिक्र आनंद पुस्तक भवन कोठी से विक्रमी संवत 1914 में राम प्यारे अग्निहोत्री द्वारा लिखी गई पुस्तक 'ठाकुर रणमत सिंह' में मिलता है। इस प्रकार मैं दावे के साथ कह सकता हु की नागा साधू सनातन के साथ साथ देश रक्षा के लिए भी अपने प्राणों की आहुति देते आये है और समय आने पर फिर से देश और धर्म के लिए अपने प्राणों की आहुति दे सकते है ...पर कुछ पुराव्ग्राही बन्धुओ को नागाओ का यह त्याग और बलिदान क्यों नहीं दिखाई देता है ?

Sunday, July 12, 2015

रामायण के बजरंग बली

जब छोटे थे तब नहीं जानते थे कि भगवान कैसे दिखते हैं पर एक भगवान के बारे में ऐसा बिलकुल नहीं था| बजरंग बली कैसे दिखते हैं, कैसे बोलते हैं, कैसे चलते हैं और कैसे राक्षसों का वध करते हैं, सब कुछ पता चल गया था हम लोगों को| कारण थे महाबली दारा सिंह जिन्होंने जय बजरंग बली फिल्म और रामायण धारावाहिक में हनुमान की वो भूमिका अदा की कि ऐसा लगा कि साक्षात् बजरंग बली ही सामने हैं|


दारा सिंह रन्धावा का जन्म 19 नवम्बर 1928 को अमृतसर (पंजाब) के गाँव धरमूचक में श्रीमती बलवन्त कौर और श्री सूरत सिंह रन्धावा के यहाँ हुआ था। कम आयु में ही घर वालों ने उनकी मर्जी के बिना उनसे आयु में बहुत बड़ी लड़की से शादी कर दी। माँ ने इस उद्देश्य से कि पट्ठा जल्दी जवान हो जाये, उसे सौ बादाम की गिरियों को खाँड और मक्खन में कूटकर खिलाना व ऊपर से भैंस का दूध पिलाना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि सत्रह साल की नाबालिग उम्र में ही दारा सिंह प्रद्युम्न नामक बेटे के बाप बन गये। दारा सिंह का एक छोटा भाई सरदारा सिंह भी था जिसे लोग रन्धावा के नाम से ही जानते थे। दारा सिंह और रन्धावा - दोनों ने मिलकर पहलवानी करनी शुरू कर दी और धीरे-धीरे गाँव के दंगलों से लेकर शहरों तक में ताबड़तोड़ कुश्तियाँ जीतकर अपने गाँव का नाम रोशन किया।
1947 में दारा सिंह सिंगापुर चले गये और वहाँ रहते हुए उन्होंने भारतीय स्टाइल की कुश्ती में मलेशियाई चैम्पियन तरलोक सिंह को पराजित कर कुआलालंपुर में मलेशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप जीती। उसके बाद उनका विजय रथ अन्य देशों की चल पड़ा और एक पेशेवर पहलवान के रूप में सभी देशों में अपनी धाक जमाकर वे 1952 में भारत लौट आये। भारत आकर सन 1954 में वे भारतीय कुश्ती चैम्पियन बने।
उसके बाद उन्होंने कामनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैम्पियन किंगकांग को परास्त कर दिया। बाद में उन्हें कनाडा और न्यूजीलैण्ड के पहलवानों से खुली चुनौती मिली। अन्ततः 1959 में उन्होंने.कलकत्ता में हुई कामनवेल्थ कुश्ती चैम्पियनशिप में कनाडा के चैम्पियन जार्ज गार्डियान्को एवं न्यूजीलैण्ड के जान डिसिल्वा को धूल चटाकर यह चैम्पियनशिप भी अपने नाम कर ली।
दारा सिंह ने उन सभी देशों का एक-एक करके दौरा किया जहाँ फ्रीस्टाइल कुश्तियाँ लड़ी जाती थीं। आखिरकार अमरीका के विश्व चैम्पियन लाऊ थेज को 29 मई 1968 को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैम्पियन बन गये। 1983 में उन्होंने अपराजेय पहलवान के रूप में कुश्ती से सन्यास ले लिया।
जिन दिनों दारा सिंह पहलवानी के क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त कर चुके थे उन्हीं दिनों उन्होंने अपनी पसन्द से दूसरा और असली विवाह सुरजीत कौर से किया, जिनसे उन्हें तीन बेटियाँ और दो बेटे प्राप्त हुए। किंग-कांग, जॉर्ज जॉरडिएंको, जॉन डिसिल्वा, माजिद अकरा, शेन अली जैसे महारथियों को दारा सिंह ने जब धूल चटा दी तो उनके नाम डंका चारों ओर बजने लगा। इस रियल हीरो के दरवाजे पर सिल्वर स्क्रीन पर हीरो बनने के प्रस्ताव जब लगातार दस्तक देने लगे तो वे अपने आपको नहीं रोक पाए और अखाड़े से स्टुडियो में फैली चकाचौंध रोशनी की दुनिया में आ गए।
जवानी के दिनों में दारासिंह बेहद हैंडसम थे। ऊंचा कद, चौड़ा सीना, मजबूत बांहे और मुस्कान से सजा चेहरा। फिल्म वालों को तो अपना हीरो मिल गया। उस दौर में तलवार बाजी, स्टंट्सम और फाइटिंग वाली फिल्मों का एक अलग ही दर्शक वर्ग था। बड़े सितारे इस तरह की फिल्मों में काम करने से कतराते थे। इन दिनों हर स्टार जिम में ज्यादा वक्त बिताता है, लेकिन उस वक्त छुईमुई से हीरो का चलन था और कई हीरो तो लिपस्टिक का उपयोग भी करते थे। मारधाड़ वाली फिल्म बनाने वालों को ऐसा हीरो चाहिए था जो उनकी फिल्मों में फिट बैठ सके। दारा सिंह के बारे में सबसे अहम बात यह थी कि वे ऐसी भूमिकाओं में विश्वसनीय लगते थे क्योंकि रियल लाइफ में भी वे इस तरह की फाइटिंग करते थे। निर्देशकों को उनके किरदार को स्थापित करने में ज्यादा फुटेज खर्च नहीं करना पड़ते थे।
दारासिंह की शुरुआती फिल्मों के नाम भी ऐसे हैं कि सुनकर लगता है ‍जैसे किसी कुश्ती की स्पर्धा के नाम हो, जैसे- रुस्तम-ए-रोम, रुस्तम-ए-बगदाद, फौलाद। इन फिल्मों की कहानी बड़ी सामान्य होती थी और इनमें अच्छाई बनाम बुराई को दिखाया जाता था। दारा सिंह अच्छाई के साथ होते थे और विलेन को मजा चखाते थे। स्क्रिप्ट इस तरह लिखी जाती थी कि ज्यादा से ज्यादा फाइट सीन की गुंजाइश हो और इन दृश्यों में दारा सिंह जब दुश्मनों को धूल चटाते थे ‍तो थिएटर में बैठे दर्शक खूब शोर मचाते थे। जंग और अमन, बेकसूर, जालसाज, थीफ ऑफ बगदाद, किंग ऑफ कार्निवल, शंकर खान, किलर्स जैसी कई फिल्में दारा सिंह ने की और दर्शकों को रोमांचित किया। शर्टलेस होकर उन्होंने अपना फौलादी जिस्म का खूब प्रदर्शन किया।
हीरो के रूप में दारा सिंह लंबी पारी इसलिए खेलने में सफल रहे क्योंकि लोग उनसे बहुत प्यार करते थे। वे बीस गुंडों की एक साथ पिटाई करते थे तो दर्शकों को यह यकीन रहता था कि यह आदमी रियल लाइफ में भी ऐसा कर सकता है। अभिनय की दृष्टि से देखा जाए तो दारा सिंह को हम बेहतर अभिनेता नहीं कह सकते हैं। रोमांटिक सीन में हीरोइन के साथ रोमांस करते वक्त उनका हाल बहुत बुरा रहता था। उनके उच्चारण भी खराब थे। दारा सिंह भी इन बातों से अच्छी तरह परिचित थे और उन्होंने कभी दावा भी नहीं किया कि वे महान कलाकार है। मुमताज के साथ दारा सिंह की जोड़ी खूब जमी। दोनों ने लगभग 16 फिल्मों में काम किया। उस दौरान बॉलीवुड की हर फिल्म में गाने मधुर हुआ करते थे, इसलिए दारा सिंह पर भी कई हिट नगमें फिल्माए गए।
ऐसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं जब एक ही व्यक्ति ने खेल और फिल्म में एक साथ सफलता हासिल की हो। हिंदी फिल्मों के साथ-साथ दारा सिंह ने कई पंजाबी फिल्मों में भी काम किया। फिल्में निर्देशित भी की और मोहाली में एक स्टुडियो भी खोला। जब हीरो बनने की उम्र निकल गई तो दारा सिंह ने चरित्र भूमिकाएं निभाना शुरू कर दी और 2007 में रिलीज हुई ‘जब वी मेट’ तक वे सिनेमा में नजर आते रहे।
कोई एक किरदार कैसे किसी की मुकम्मल पहचान बदल देता है, इसकी मिसाल हैं दारा सिंह। रामानंद सागर के टीवी धारावाहिक ‘रामायण’ में हनुमान के किरदार ने उन्हें घर-घर में ऐसी पहचान दी कि अब किसी को याद भी नहीं कि दारा सिंह अपने ज़माने के 'वर्ल्ड चैंपियन पहलवान' थे। ये वो किरदार है, जिसने पहलवान से अभिनेता बने दारा सिंह की पूरी पहचान बदल दी। सागर का कहना था कि हनुमान के रोल में किसी और कलाकार की कल्पना नहीं की जा सकती थी। दारा सिंह हनुमान के रोल में ऐसे रच-बस गए कि इसके बाद कभी किसी ने किसी दूसरे कलाकार को हनुमान बनाने के बारे में सोचा ही नहीं और बहुत बाद में जो कलाकार हनुमान बने भी, वो अपनी कोई छाप नहीं छोड़ पाये और दर्शकों के मन में दारा सिंह ही छाये रहे। रामायण सीरियल के बाद आए दूसरे पौराणिक धारावाहिक महाभारत में भी हनुमान के रूप में दारा सिंह ही नज़र आए। 1989 में जब 'लव कुश' की पौराणिक कथा छोटे परदे पर उतारी गई, तो उसमें भी हनुमान का रोल दारा सिंह ने ही किया। 1997 में आई फ़िल्म 'लव कुश' में भी हनुमान बने दारा सिंह।
उन्होंने पंजाबी में अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जो 1993 में हिन्दी में भी प्रकाशित हुई। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया और वे अगस्त 2003 से अगस्त 2009 तक पूरे छ: वर्ष राज्य सभा के सांसद रहे।एक छोटे-से गांव से निकल कर दारासिंह ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया। वे अक्सर अपने बेटों से कहते थे कि तुम यदि मेरे नाम को आगे नहीं बढ़ा सकते हो तो कोई बात नहीं पर ध्यान रखना कि इस पर कोई आंच न आए। दारा सिंह ने इतना नाम कमाया कि वे पहलवान शब्द के पयार्यवाची बन गए। हट्टे-कट्टे शख्स को देख लोग कहते हैं कि देखो दारा सिंह आ रहा है।
7 जुलाई 2012 को दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्हें कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी अस्पताल मुम्बई में भर्ती कराया गया किन्तु पाँच दिनों तक कोई लाभ न होता देख उन्हें उनके मुम्बई स्थित निवास पर वापस ले आया गया जहाँ 12 जुलाई 2012 को सुबह साढ़े सात बजे उनका निधन हो गया। विश्व भर में भारतीय पहलवानों की धाक ज़माने वाले ऐसे दारा सिंह को आज उनके निर्वाण दिवस पर विनम्र एवं भावभीनी श्रद्धांजलि |

Friday, July 10, 2015

देश के पहले प्रधन्मन्त्री चचा नेहरू के खानदान का सच जिसको जानना हर देशवासी के लिए जरूरी हैं.....



1. संलग्न पहली तस्वीर में बायीं तरफ उपर नेहरु के दादा जी का तस्वीर है जो आनंद भवन में लगा है और जिसपर लिखा है जवाहर लाल नेहरु के दादा गंगाधर नेहरु”. ये १८५७ के विप्लव के पूर्व दिल्ली के कोतवाल थे. नेहरु ने अपने जीवनी में इनके बारे में लिखा है,


“My grandfather, Ganga Dhar Nehru, was Kotwal of Delhi for some time before the great revolt of 1857.” (pg.2)
मुगल रिकॉर्ड से पता चलता है की १८५७ के विप्लव के समय और उससे पहले कोई भी हिंदू दिल्ली का कोतवाल नही था. उस समय दिल्ली का कोतवाल था गयासुद्दीन गाजी. यह दिल्ली में मुगलों का अंतिम कोतवाल था. तत्कालीन इतिहास से जानकारी मिलती है की अंग्रेज सैनिक इसे ढूढ रहे थे और यह अपनी जान बचाने के लिए सपरिवार आगरा की ओर भाग गया था.

नेहरु ने अपनी जीवनी में लिखा है, “The Revolt of 1857 put an end to our family’s connection with Delhi…The family, having lost nearly all it possessed, joined the numerous fugitives who were leaving the old imperial city and went to Agra. He (Gangadhar) died at the early age of 34 in 1861” (pg.2)
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है की गियासुद्दीन गाजी और गंगाधर नेहरु दोनों एक ही व्यक्ति हो सकता है. १८५७ में विप्लव के समय जब अंग्रेज सैनिक इन्हें ढूंड रहे थे तो अपनी जान बचाने के लिए आगरा की ओर भाग गए साथ ही अपना पहचान छुपाने के लिए अपना नाम भी बदल लिए और पहचान भी क्योंकि बाद में इनके परिवार का और कोई भी सदस्य गंगाधर के जैसा लिवास पहने नहीं दीखता है. यह वैसा ही है जैसे की १९८४ के सिक्ख दंगे के समय अल्पसंख्यक क्षेत्रों में सिक्खों ने अपने बाल मुंडवा लिए और पगड़ी बांधना छोड़ दिए थे. परन्तु देखनेवाली बात यह है की गियासुद्दीन ने छद्म नाम गंगाधर हिन्दुवाला तो रख लिया परन्तु सर नेम किसी हिंदू का नही रखा शायद इसलिए की सर नेम खानदान को व्यक्त करता है. इसलिए एक नया सर नेम नेहरुरख लिया ताकि जरुरत पड़ने पर यथापरिस्थिति लोगों को संशय में डाल सके और अपनी वास्तविक पहचान छुपा सकें. नेहरु सर नेम की उत्पति पर नेहरु ने अपनी जीवनी में लिखा है, “A jagir with a house situated on the banks of canal had been granted …and, from the fact of this residence, ‘Nehru’ (from nahar, a canal) came to be attached to his name.” (pg.1)

2. नेहरु ने अपने पिता मोतीलाल नेहरु के शिक्षा के बारे में लिखा है, “His early education was confined entirely to Persian and Arabic and he only began learning English in his early teens.” (pg.3)
प्रश्न उठता है की जब नेहरु पंडित थे तो उन्हें संस्कृत की शिक्षा तो अवश्य दी जानी चाहिए थी भले ही उन्हें अरबी फारसी भी पढाया जाता. परन्तु उन्हें संस्कृत की शिक्षा ही नही दी गयी. इतना ही नही नेहरु ने अपने जीवनी में कई ऐसे घटनाओं का उल्लेख किया है जो दर्शाता है की पिता मोतीलाल या उनके चाचा और चचेरे भाईओं के दिल में हिंदू धर्म, हिंदुओं के भगवान और हिंदू कर्मकांड में कोई दिलचस्पी नही थी. इससे स्पष्ट होता है की नेहरुपंडित तो क्या हिंदू भी नही थे. एक स्थान पर नेहरु लिखते है, “Of religion I had very hazy notions. It seemed to be a woman’s affair. Father and my older cousins treated the religious question humorously and refused to take it seriously.”

३. नेहरु ने अपने जीवनी में लिखा है मेरा जन्म १४ नवम्बर, १८८९ को इलाहाबाद में हुआ, पर उन्होंने यह नही बताया की इलाहबाद में किस जगह हुआ था. मैं जब इलाहबाद में था तो हिंदुस्तान दैनिक में एक लेख छपा था और उससे पता चला की नेहरु का जन्म इलाहबाद के मीरगंज इलाके में हुआ था. लेख में उनके घर की तस्वीर भी दी हुई थी जो एक सामान्य सा दो मंजिला घर था. मुझे लगा मुझे यहाँ से कुछ बेहतर जानकारी मिल सकती है इसलिए मैं वहाँ जाने को उत्सुक हुआ, पर यह जानकर हैरान रह गया की मीरगंज इलाका रेड लाईट एरिया था. मुझे आश्चर्य हुआ की इतने बड़े व्यक्ति का जन्मस्थान वेश्यालय कैसे बन गया, परन्तु जब मैंने इस बाबत जानकारी इकट्ठी करनी शुरू की तो पता चला की वो बहुत पहले से रेड लाईट एरिया था और मोतीलाल रेड लाईट एरिया में ही रहते थे.
इसी दौरान मुझे एक नई जानकारी मिली की जवाहर लाल नेहरु के असली पिता मुबारक अली था. मेरे पास इस बात के कोई सबूत नही है और हो भी नही सकता है, परन्तु मैं निम्नलिखित कारणों से इस बात से इतिफाक रखती हु:
मुबारक अली एक वकील था और वह मोतीलाल के घर आया करता था.
१८५७ के विप्लव में सबकुछ गंवाने के बाद नेहरु परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी, शायद इसीलिए वे रेड लाईट एरिया में भी रह रहे थे.
मुबारक अली एक अय्याश किस्म का व्यक्ति था. मोतीलाल का रेड लाईट एरिया में रहना और खराब आर्थिक स्थिति में कुछ भी असम्भव नही है.
मोतीलाल को इशरत मंजिलमुबारक अली से मिला था जिसका नाम मोतीलाल ने आनंद भवनरखा था
नेहरु लिखते है की जब वे दशवें वर्ष में थे तो वे पुराने मकान से नए मकान आनंद भवनमें आये थे. मुबारक अली से नेहरु आनंद भवन आने से पूर्व परिचित थे और मुबारक अली आनंद भवन आता जाता रहता था और नेहरु को बेटे जैसा प्यार करता था.
नेहरु ने मुबारक अली के बारे में अपने जीवनी में लिखा है, “He came from a well-to-do family of Badaun….and for me he was a sure haven of refuge whenever I was unhappy or in trouble. I used to snuggle up to him and listen, wide-eyed, by the hour to his innumerable stories……and the memory of him still remains with me as a dear and precious possession.”
नेहरु ने खुद स्वीकार किया है की उनका हिंदु होना महज एक दुर्घटना है और उनके संस्कार मुस्लिम के हैं.
जवाहर अरबी शब्द है जो एक कीमती पत्थर को व्यक्त करता है. कोई हिंदू और वो भी पंडित अपने पुत्र का नाम अरबी क्यों रखेगा.
४. हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति के विषय में नेहरु के विचार कितने निम्न स्तर के थे और हिंदू धर्म के प्रति उनके दिल में कितना विद्वेष था यह उनके निम्नलिखित कथन से झलकता है:
“Hindu culture would injure India’s interests. By education I am an Englishman, by views an internationalist, by culture a Muslim, and I am a Hindu only by accident of birth. The ideology of Hindu Dharma is completely out of tune with the present times and if it took root in India, it would smash the country to pieces. [Source:Violation of Hindu HR-Need for a Hindu nation-III by V Sunderam (Retd. IAS Officer), originally in “Reminiscences of the Nehru Age” by M.O. Mathai]
भारतीय सभ्यता, संस्कृति और सनातन धर्म जो विश्व की प्राचीनतम और महानतम सभ्यता, संस्कृति और धर्मों में से एक है, जो जियो और जीने दो, वसुधैव कुटुम्बकम और सत्यमेव जयते जैसे आदर्शों पर आधारित है, के विषय में कोई हिंदू तो क्या इसे समझने वाला कोई भी इस प्रकार की सोच नही रख सकता है. इन्हें इस बात का डर था की यदि हिंदू धर्म ने अपनी जड़े जमा ली तो देश के टुकड़े हो जायेंगे. ये ठीक वैसा ही जैसे आज राहुल गाँधी कहता है की भारत को लश्कर ऐ तोइबा से ज्यादा हिंदू कट्टरवाद से खतरा है. सवाल है देश के टुकड़े होने से उनका तात्पर्य क्या था? मेरा मानना है, उन्हें लगता था की यदि हिंदू धर्म अपनी जड़ें मजबूती से जमा लेती है तो भारत अखंड मुस्लिम राज्य नही बन सकेगा और हिंदू अपने लिए हिंदुस्तान ले लेगा और भारत के टुकड़े हो जायेंगे. शायद आपको मेरी सोच पर तरस आ रही होगी, लेकिन मेरे इस सोच का पर्याप्त आधार है और आप भी देख लीजिए....
५. नेहरु का कहना है की उनका खानदान फर्रुखशियर का कृपा प्राप्त कर उसी के समय (१७१६ ईस्वी) कश्मीर छोडकर मुगलों की सेवा के लिए दिल्ली आ बसे थे. वे अपनी जीवनी में खुद को कश्मीरी पंडित साबित करने के लिए नाना प्रकार के अनर्गल प्रलाप किये है जो की महत्वहीन और असम्बद्ध भी है, परन्तु उन्होंने कहीं भी कश्मीर के उस भू-भाग का जिक्र नही किया है जहाँ के वे खुद को खानदानी बताते है. परन्तु विडम्बना देखिये, खुद को कश्मीर पंडित साबित करने के लिए अनर्गल प्रलाप करनेवाला नेहरु की राय कश्मीरी पंडितों के सम्बन्ध में कितना घिनौना और निम्नस्तरीय है. नेहरु ने अपनी पुस्तक Glimses of World history में लिखा है:
“The treatment of men was sometimes worse than that of animals (some of the animals like cows were actually revered because they were Gods).
Lower caste Hindus had a miserable life. Other historians have commented that the treatment of women was even worse, specially women of lower castes, they were considered the property of the upper caste Hindus, to be molested and/or raped at will.
In many cases the new bride had to stay a night with the village Brahman before she was married off. Kashmir converted to Islam during this time period. It was cruelty like this that led to the whole sale conversion to Islam. The new religion offered them equality and saved them from the Brahmans.”
जरा तीसरे पैरा पर ध्यान दीजिए. नेहरु का मानना है की कश्मीर की सामाजिक धार्मिक स्थिति बहुत ही खराब थी और वे ब्राह्मणों के अत्याचार से त्रस्त थे. और इन्ही अत्याचार के परिस्थितियों में कश्मीर के लोगों ने सामूहिक रूप से इस्लाम धर्म कबूल कर लिया. कश्मीर के इतिहास लेखक कल्हण, विल्हण या अन्य किसी ने भी इसप्रकार की बातें नही लिखी है. दूसरी बात कश्मीर १४ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही मुस्लिम अत्याचार से त्रस्त था. (मैं कश्मीर के इतिहास पर जाना नही चाहता हूँ, पर मैं बता दूँ की नेहरु को भारतीय इतिहास की वास्तविक जानकारी बिलकुल नही थी.) शायद नेहरु को यह पता नही था की सिकन्दर शाह जैसे मुस्लिम शासकों ने कश्मीरी पंडितों के लिए तीन ही विकल्प दिए थे-इस्लाम कबूल करो, घाटी छोड़ो या मरो और उसने लाखों की संख्या में ब्राह्मणों का कत्ल करवाया था और यह की १८४६ में जब कश्मीर के महाराज गुलाब सिंह हुए तो १८४८ में हजारों की संख्या में धर्मान्तरित मुस्लिम उनके दरबार में उपस्थित हुए थे और अपने उपर मुस्लिम अत्याचार और जबरन धर्मान्तरण का हवाला देकर वापस हिंदू धर्म में शामिल करने की प्रार्थना की थी. गुलाब सिंह इसके लिए आश्वाशन भी दिए थे पर उनके पुरोहित की धर्मान्धता के कारण यह शुभ कार्य पूरा नही हो सका (My Frozen Turbulence of Kashmir- by Jagmohan).
यह उस कश्मीरी पंडित का विचार है जो खुद को कश्मीरी कहते नही अघाता है और खुद को कश्मीरी पंडित साबित करने के लिए मरता दिखाई देता है. कोई भी कश्मीरी पंडित इस प्रकार की सोच नही रख सकता है. इससे स्पष्ट होता है की नेहरु पंडित तो क्या हिंदू भी नही थे बल्कि कट्टर मुस्लिम थे. और यह उनके अगले वाक्य से स्पष्ट होता है की नए धर्म ने उन्हें समानता का अवसर दिया और उन्हें ब्राह्मणों से बचाया.सवाल है यदि इस्लाम उसे इतना ही महान जान पडता था तो वे फिर खुद को कश्मीरी पंडित साबित करने के लिए क्यों मरे जा रहे थे? वे मुसलमान क्यों नही हो गये? और यदि कश्मीरी पंडितों का कश्मीर में उतना ही धाक था तो वो छोड़कर मुगलों के तलुवे चाटने क्यों आ गए थे?
उपर्युक्त से स्पष्ट है की नेहरु के लिए हिंदुओं और हिंदू धर्म के लिए वैसे ही घृणा थी जैसे एक कट्टर मुस्लिम में होता था और उसके नजर में दार-उल-इस्लाम और इस्लाम में धर्मान्तरण ही हिंदुओं के अत्याचार से मुक्ति का मार्ग था. कश्मीर दार-उल-इस्लाम के मार्ग पर अग्रसर था जबकि हिंदू धर्म की मजबूत जड़ें शेष भारत में इस मार्ग की बाधाएं थी और जिसके कारण उन्हें भारत के टुकड़े होने का खतरा दिखाई पडता था.
६. नेहरु के उपर्युक्त निष्कर्ष कांग्रेस-वामपंथी इतिहास लेखकों की प्रेरणा स्रोत बन गयी है और ये भडूवे इतिहासकार अपने आका को खुश करने के लिए हर जगह हिंदुओं और हिंदू संस्कृति को बदनाम करने के लिए ऐसे ही निष्कर्षों का सहारा लेते है. वास्तविकता यह है की ये बुराइयां मध्यकालीन मुस्लिम अत्याचार और भोगवाद को व्यक्त करती है जो कालांतर में उन्ही से प्रेरित होकर कुछ हिंदू रजवाड़े और जमींदार तक पहुच गए थे.
७. किसी भी सभ्यता संकृति और धर्म को नष्ट करना हो तो सबसे पहले वहाँ की शिक्षा व्यवस्था को विकृत कर देना चाहिए ये नेहरु ने अंग्रेजों से अच्छी तरह सीख लिया था. प्रधानमंत्री बनने के बाद उसने अबुल कलाम आजाद को शिक्षा मंत्री बनाकर अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु लगा दिया. इसमें हिंदुओं के गौरवशाली इतिहास को विकृत और घृणित रूप में पेश किया गया और आक्रमणकारी मुस्लिमों का महिमा मंडन किया गया जिसे पढकर लोगों में हीन भावना उत्पन्न होती है और यही उसका उद्देश्य भी था. विश्व में एकमात्र भारत ऐसा देश है जहाँ की इतिहास में आक्रमणकारियों को हीरो और अपने देश, अपनी सभ्यता और संस्कृति, धर्म और मर्यादा की रक्षा हेतू लड़नेवाले वीरों को विलेन के रूप में पेश किया गया है. कांग्रेस-वामपंथी इतिहासकार हमे यह पढ़ने और मानने के लिए विवश करते है की मुस्लिमों के भारत आने के पहले भारत की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक स्थिति बहुत ही खराब थी और उसमे व्यापक सुधार और विकास मुस्लिमों के आगमन पश्चात ही हुआ है जबकि सच्चाई ठीक इसके विपरीत है. इन बातों से भी स्पष्ट है की नेहरु वास्तव में मुसलमान थे.
८. जिन्ना और मुस्लिम लीग ने जब हिंदुओं के विरुद्ध प्रत्यक्ष कार्यवाही की घोषण की और हिंदुओं की हत्या, लूट और हिंदू स्त्रियों के बलात्कार होने लगे उस समय नेहरु भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री थे, पर उन्होंने इसे रोकने का कोई प्रयत्न नही किया, परन्तु बिहार में जैसे ही कोलकाता में मारे गए लोगों के परिजनों ने इसके विरोध में प्रतिक्रिया व्यक्त की इन्होने तत्काल सेना भेजकर उन्हें गोलियों से भुनवा दिया.
९. शेख अब्दुल्ला १९३१ से ही घाटी में उत्पात मचा रहा था, महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध आन्दोलन चला रहा था और हिंदुओं का खुले आम कत्ल और लूटमार कर रहा था, पर जब महाराजा ने शेखअब्दुल्ला को नजरबंद कर शांति स्थापना का प्रयास किया तो नेहरु शेख अब्दुल्ला के समर्थन में कश्मीर में दंगे फ़ैलाने पहुँच गए. नेहरु ने शेख अब्दुल्ला को शेर-ए-कश्मीर एवं लोगो का प्रिय हीरो बताते हुए अपने भाषण में कहा, “यह बड़े दुःख की बात है की कश्मीर प्रशासन अपने ही आदमियों का खून बहां रही है. मैं कहूँगा की उसका यह कृत्य प्रशासन को कलंकित कर रही है और अब यह ज्यादा दिन तक नही टिक सकती. मै कहता हू की कश्मीर की जनता को अब और अपनी आजादी पर हमला एक पल भी बर्दाश्त नही करना चाहिए. यदि हम अपने शासक पर काबू पाना चाहते है तो हमे पूरी शक्ति के साथ उसका विरोध करना चाहिए. (Sardar Patel’s Correspondence- by Durga Sinh)
ज्ञातव्य है की एक तरफ हरिसिंह जब अपने अल्पसंख्यक हिंदुओं, बौधों और सिक्खों को बचाने का प्रयास कर रहे थे उसी समय हैदराबाद में निजाम हिंदुओं पर भयानक अत्याचार कर रहे थे ताकि हैदराबाद से हिंदू पलायन कर जाये और हैदराबाद मुस्लिम बहुल हो जाये ताकि वह भारत में विलय करने को बाध्य न हो, पर नेहरु ने उस क्रूर निजाम को कुछ भी नही कहा जबकि हरिसिंह के पीछे पडकर शेख अब्दुल को गद्दी पर बिठाकर उन्हें राज्य से भी बाहर कर दिया. ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे न केवल संस्कार से मुस्लिम थे बल्कि विचार से भी मुस्लिम ही थे और हम सहमत है की उनका हिंदू होना महज एक दुर्घटना मात्र था.
१०. जब महाराज हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में कर दिया तो नेहरु ने उसे अस्थायी घोषित कर प्लेबीसाईट के माध्यम से अंतिम निर्णय की घोषणा की. जम्मू-कश्मीर के सर्वेक्षण करनेवाले शिवन लाल सक्सेना ने अपने रिपोर्ट में बताया की ७८% मुस्लिम आबादी वाला जम्मू-कश्मीर में प्लेबीसाईट का परिणाम भारत के पक्ष में होने की उम्मीद करना महा पागलपन है’. पर नेहरु ने उनकी बातों पर ध्यान नही दिया. इतना ही नही शेख अब्दुल्ला के साथ मिलकर गुपचुप धारा ३७० तैयार कर लिया और संसद में दबाव डालकर पास भी करवा लिया जो आजतक भारत की गले की हड्डी बनी हुई है. कश्मीरी आतंकवाद और भारत में मुस्लिम आतंकवाद की जड़ नेहरु की यही तुष्टिकरण नीति थी. (कश्मीर समस्या पर विशेष जानकारी के लिए मेरा लेख अखंडता पर सवाल: धारा ३७०पढ़ें)
११. जब हमारी सेना जीत के करीब पहुँच गयी थी तब इन्होने अकारण एक तरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी जिसके कारण आज भी जम्मू-कश्मीर का बहुत बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के पास है.
१२. जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया और हमारी सेना उससे लोहा ले रही थी उस समय पाकिस्तान को ५५ करोड़ रूपया देने में गाँधी के साथ इनका भी हाथ था.
१३. नेहरु को राष्ट्रवाद से घृणा था. वह उसे बूकहते थे (भारत गाँधी नेहरु की छाया में- लेखक गुरु दत्त) पर वास्तविकता यह थी की उसकी नजर में राष्ट्रवाद का मतलब हिंदू राष्ट्रवाद से था और वे तो हिंदुओं से घृणा करते थे. हिंदू और हिंदुत्व की बात करनेवाले उनके नजर में देशद्रोही था (भारत गाँधी नेहरु की छाया में).
१४. जब धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ तो कायदे से इस्लाम के सभी अनुयायी को पाकिस्तान और बंगलादेश में चले जाना चाहिए था और हिन्द सभ्यता और संस्कृति के समर्थक को भारत आ जाना चाहिए था परन्तु गाँधी और नेहरु के कारण यह नही हो सका जिसका परिणाम यह हुआ है की नेहरु गाँधी के छलावे में फंसकर बंगलादेश और पाकिस्तान में रह जानेवाले लाखों करोड़ों गैर मुस्लिम आज महज कुछ हजारों में सिमट गए है और मौत से भी बत्तर जिंदगी जीने को बाध्य है. वे आज भी लूट, हिंसा, बलात्कार और धर्मान्तरण के शिकार हो रहे है और अपना अस्तित्व बचाने के लिए भारत से शरण की मांग कर रहे है. इतना ही नही हिंदुस्तान के हिंदुओं के सीने पर आज भी मुसलमान मुंग दल रहे है तथा कट्टरवादी मुस्लिमों और नेहरु गाँधी के उपज छद्मधर्मनिरपेक्षवादी राजनेताओं के षड्यंत्र से हिंदुस्तान की अखंडता एकबार फिर संकट में पड़ती जान पर रही है.
१५. नेहरु खुद को नास्तिक कहते थे. पर वास्तविकता यह है की वे राजनितिक कारणों से खुद को मुस्लिम या इस्लाम समर्थक नही कह पाते थे और इसीलिए वे नास्तिकता का चोला ओढ़े रहते थे और इस नास्तिकता की आड़ में हिंदुओं और हिंदू धर्म के विरुद्ध अपने मुस्लिम संस्कार, विचार और कार्यों को संरक्षण दे रहे थे.
१६. नेहरु ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण को संगठित रूप दिया जिसका दुष्परिणाम पूरा देश भुगत रहा है.
१७. नेहरु खुद तो यह स्वीकार करते ही थे की उनके संस्कार मुस्लिम के है, उपर्युक्त तथ्यों और उनके कार्यों के आधार पर मेरा मानना है की वे अपने विचार और कार्य से भी मुस्लिम ही थे. उनके साथ जुड़ा हिंदू शब्द उनके लिए कष्टकारी था जिसकी अभिव्यक्ति वे यदा कदा और हिंदू होने को महज एक दुर्घटना कहकर व्यक्त करते थे. उनका नास्तिक होना ठीक वैसे ही था जैसे आज रोमन कैथोलिक ईसाई सोनिया और उसकी संताने जनता को धोखा देने के लिए हर जगह अपना धर्म ‘Religious Humanity’ लिखते है.
इंदिरा गाँधी के जीवन और कार्य भी इस ओर संकेत करता है की नेहरु मुस्लिम थे:
मैमून बेगम उर्फ इंदिरा गाँधी फिरोज खान वल्द जहाँगीर नवाब खान से निकाह की थी.
मैमून बेगम उर्फ इंदिरा गाँधी के दोनों पुत्र राजीव खान गाँधी और संजय खान गाँधी के पिता मुस्लिम ही थे.
इंटरनेट से प्राप्त जानकारी के अनुसार इनके दोनों पुत्रों का आवश्यक मुस्लिम संस्कार भी हुआ था.
फिरोज खान का मकबरा इस बात का प्रमाण है की इंदिरा गाँधी अपने मुस्लिम संस्कारों को नही त्यागी थी.
१९७१ की लड़ाई में ९२ हजार से उपर पाकिस्तानी सैनिक बंदी बनाये गए थे जिसे इंदिरा गाँधी ने बिना शर्त छोड़ दिया. वे चाहते तो इसके बदले पाक अधिकृत कश्मीर का सौदा कर सकती थी. कुछ नही तो बदले में पाकिस्तान द्वारा बंदी बनाये गए भारतीय सैनिकों को तो रिहा करवा ही सकती थी पर उन्होंने ऐसा कुछ नही किया.
जनसंख्या नियंत्रण की नीति के तहत इनके द्वारा चलाये गए नशबंदी अभियान के बारे में तत्कालीन इतिहासकार लिखते है, “हिंदुओं को उनके घरों, दुकानों यहाँ तक की मंदिरों से भी खिंच खिंच कर नशबंदी किया जाने लगा, परन्तु इस सरकार की कभी हिम्मत नही हुई की वे एक मस्जिद से किसी मुसलमान को खिंच ले या एक ईसाई को किसी गिरजाघर से खिंच लें.इस घटना का जिक्र होने पर बचपन में मेरी बुआ बताई थी की इंदिरा गाँधी हिंदू और मुसलमान की जनसंख्या बराबर करना चाहती थी.
इंदिरा गाँधी अफगानिस्तान बाबर के मजार पर सिजदा करने गयी थी
अरब के प्रिंस ने इंदिरा गाँधी को मक्का आने का निमंत्रण दिया था जहाँ गैर मुस्लिमों को जाना वर्जित है.

इंदिरा कहती थी मैं हिंदू से विवाह नहीं करुँगी. मुझे हिंदुओं से बेहद घृणा है: ओ एम् मुथैया