Friday, September 25, 2015

पंडित दीनदयाल उपाध्याय: मातृभूमि का सच्चा सपूत

ये 1942 की बात है, जब एल. टी. की परीक्षा उतीर्ण करने के पश्चात एक मेधावी युवा ने अपने परिवारीजनों की विवाह करने और नौकरी करने की इच्छाओं को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करने के बाद स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उत्तर प्रदेश में संगठन करने में जुटे भाउराव देवरस के समक्ष प्रस्तुत किया और कहा कि मैंने संघ कार्य हेतु पूरा जीवन देने का निश्चय किया है और मैं कहीं भी भेजे जाने हेतु प्रस्तुत हूँ।
उस युवा को प्रचारक के रूप में सबसे पहले उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले के गोल गोकर्णनाथ भेजा गया। यहाँ पहुंचकर उस युवा को बहुत कसाले झेलने पड़े। ना रहने का ठिकाना, ना खाने की व्यवस्था। एक भड़भूजे के यहाँ से दो चार पैसे के चने लेकर और लोटा भर पानी पीकर किसी प्रकार पेट की ज्वाला शांत की जाती। यह क्रम कई दिन तक चलता रहा।

संयोगवश कसबे का एक धनीमानी व्यक्ति अपने कार्यालय से इस होनहार युवा की ये दिनचर्या लगातार देख रहा था। इस युवक की चमकीली आँखों में एक विलक्षण सपना पलते देख उस धनाढ्य वकील ने एक दिन कौतुहलवश उससे पूछा कि उसके यहाँ आने और इस प्रकार कष्ट सहते रहने का क्या कारण है।
उस युवा ने जब संघ का महान ध्येय और हिन्दू संगठन की व्यवहारिक कल्पना उन सज्जन के सामने रखी तो उनकी आँखें छलछला आयीं। वो उस युवा को तुरंत अपने घर ले गए, भोजन कराया और आगे हमेशा के लिए अपना घर और भोजनालय ही नहीं, अपितु हृदय भी उस युवा और संघ के लिए खोल दिया।
वो सज्जन थे गोला गोकर्णनाथ के प्रसिद्द वकील श्री कुंजबिहारीलाल राठी, जो आगे चलकर भारतीय जनसंघ उत्तर प्रदेश के मंत्री बने और आजीवन उस युवा और संगठन दोनों से पूर्ण समर्पित भाव से जुड़े रहे। पर कष्टों में तप कर भी संगठन को गति देने वाला वो युवा कौन था?
वो थे अजातशत्रु पंडित दीनदयाल उपाध्याय, जो आगे चलकर भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष पद तक पहुंचे और जिनके द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद आज भी विद्वानों को विश्व की समस्यायों को पूंजीवाद और साम्यवाद की विदेशी जमीनों पर पनपी विचारधाराओं से भिन्न एक अलग ही दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित करता है।
'राजनीति में अनेक नेता आयेंगे, पर यह अभागा राष्ट्र दीनदयाल के लिए तरसेगा|'
दीनदयाल जी की आकस्मिक मृत्यु के बाद दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादक श्री रतनलाल जोशी द्वारा उनके प्रति श्रद्धांजलि स्वरुप कहे गए ये शब्द आज भी कितने सटीक हैं| समय बढ़ता गया, अनेक नेता आये और चले गए पर कोई भी सादा जीवन उच्च विचार के प्रतीक, भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करने वाले एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा के प्रणेता, प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता , समाजसेवक, साहित्यकार पंडित दीनदयाल उपाध्याय का स्थान नहीं ले सका|
25 सितंबर, 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में भगवती प्रसाद उपाध्याय और रामप्यारी के घर जन्में दीनदयाल जी ७ वर्ष की आयु तक आते आते माता पिता दोनों के स्नेह से वंचित हो गए और उनका लालन पालन उनके मामा ने किया| प्रारंभ से ही मेधावी छात्र रहे पंडित जी ने बी.एस-सी., बी.टी. करने के बाद भी नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गए थे, अत: कालेज छोड़ने के तुरंत बाद वे संघ के प्रति पूर्ण रूप से गए और एकनिष्ठ भाव से संगठन का कार्य करने लगे।
राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन हेतु उन्होंने लखनऊ में ''राष्ट्र धर्म प्रकाशन'' नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका ''राष्ट्र धर्म'' शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरूआत की।
सन् 1950 में नेहरु मंत्रिमंडल में मंत्री डा0 श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डा0 मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में संघ के तत्कालीन सरसंघचालाक श्री गुरूजी से मदद मांगी। श्री गुरुजी ने अत्यंत सोच विचार कर जो युवा डाक्टर मुखर्जी को दिए , उसमें पंडित दीनदयालजी अग्रगण्य हैं|
उन्होंने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और इसमें एक नए दल भारतीय जनसंघ की राज्य इकाई की नींव डाली गयी। प्रारंभ में वे दल के प्रदेश मंत्री बनाये गए और दो वर्ष बाद सन्‌ १९५३ ई. में वे अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग १५ वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। कालीकट अधिवेशन (दिसंबर, १९६७ ई.) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
वे इतने कुशल संगठनकर्ता थे कि डा. श्यामप्रसाद मुखर्जी उनके लिए कहा करते थे कि अगर भारत के पास दो दीनदयाल होते तो भारत का राजनैतिक परिदृश्य ही अलग होता| अजातशत्रु दीनदयाल प्रसिद्धि की नयी ऊंचाइयों को छू ही रहे थे कि 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनका मृत शरीर मिलने से सारे देश में शोक की लहर दौड़ गई|
उनकी इस तरह हुई मृत्यु सदैव संदेह के घेरे में रही और आज तक हम घटना की वास्तविकता से परिचित नहीं हो सके हैं| भले ही उनका पार्थिव शरीर बरसों पहले हमसे दूर हो गया हो पर वो आज भी हर उस व्यक्ति के हृदय में जीवित हैं जिसकी आँखों में भारतमाता को परम वैभव पर पहुंचाने का सपना पलता है| इस महामानव को उनके जन्मदिवस पर कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|
नवयुग के चाणक्य, तुम्हारा इच्छित भारत
अभिनव चन्द्रगुप्त की आँखों का सपना है |
जिन आदर्शों के हित थे तुम देव समर्पित,
लक्षाधिक प्राणों को, उनके हित तपना है

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