Monday, September 21, 2015

1965 का युद्ध: एक नज़र भारतीय सेना के शौर्य पर

26 दिसंबर 1963 की सुबह कश्मीर में अचानक ये खबर फैली कि हजरत बल दरगाह में रखा पैगबंर हजरत मोहम्मद का पवित्र बाल गायब हो गया. इसके कुछ ही घंटे बाद श्रीनगर में आगजनी, हंगामा और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया. सैकड़ों लोग सड़कों पर उतर आए.
इधऱ हजरत बल दरगाह की खबर से कश्मीर में कोहराम मचा था और उधर सरहद के पार पाकिस्तान के विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो घुसपैठियों के जरिए कश्मीर विद्रोह और उपद्रव की साजिश रच रहे थे.
प्रोफेट मोहम्मद का हजरतबल में एक बाल है वो गायब हो गया था. और ऐसा लग रहा था कि वहां अपराइजिंग होगी. पाकिस्तान के विदेश मंत्री जुल्लीफाकर अली भुट्टो को लगा कि ये अच्छा मौका है कि कश्मीर में अगर हम घुसपैठ कराएं, सेना भेजें तो रिवोल्ट बढ़ेगा और कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा. कश्मीर में जो अनरेस्ट चल रहा था उसका फायदा उठाने की कोशिश की पाकिस्तान ने. और जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो पता चलता है कि कश्मरियों ने उनका साथ नहीं दिया.

हजरत बल दरगाह से गायब हुआ पैगम्बर मोहम्मद का पवित्र निशान हफ्ते भर बाद ही मिल गया. कश्मीर में उठा बवंडर थम गया. साथ ही पाकिस्तान की एक बड़ी साजिश भी नाकाम हो गई. लेकिन पाकिस्तान खामोश नहीं बैठा था. पाकिस्तान के विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को बस मौके का इंतजार था. वह राष्ट्रपति अयूब खान को भारत के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए उकसा रहे थे. वजह ये थी कि भारत अकाल और आर्थिक संकट से जूझ रहा था. 62 की जंग में चीन से हार के बाद सेना का मनोबल गिरा हुआ था. पंडित जवाहर लाल नेहरू के देहांत के बाद प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री एक साथ कई कई चुनौतियों का सामना कर रहे थे. जुल्फिकार अली को लगा कि ये भारत के खिलाफ जंग छेड़ेने का सबसे अच्छा मौका है.
रक्षा मामले के जानकार नितिन गोखले बताते हैं कि मेरे हिसाब से ये वॉर जुल्फिकार अली भुट्टो का था. ये उनकी लड़ाई थी. वो हार्ड लाइनर थे और उन्होंने अयूब खान को बाध्य किया कि आप युद्ध कीजिए. इससे अच्छा मौका आपको नहीं मिलेगा. ये लास्ट चांस है हमारे लिए क्योंकि इसके बाद भारत की सेनाएं एक्सपेंड करेगी. 3 लाख से 8 लाख सेना की संख्या हो जाएगी. थल सेना को जो स्ट्रेंथ है उतना हो जाएगा और उसके बाद हमको कोई मौका नहीं मिलेगा. इसलिए आप इस युद्ध को करिए.
जुल्फिकार की योजना कश्मीर पर हमला करने की थी. लेकिन राष्ट्रपति अयूब खान हिचक रहे थे. वहीं पाकिस्तानी सेना के कमांडर इन चीफ जनरल मोहम्मद मूसा को लग रहा था कि कश्मीर पर हमला करने के बाद पाकिस्तान एक लंबी लड़ाई में फंस सकता है.
वास्तव में जिन्होंने युद्ध को अपोज किया उनका नाम था जनरल मुहम्मद मूसा जो पाकिस्तान के कमांडर इन चीफ थे. उन्होंने कहा था कि ये मिलिट्री रणनीति के हिसाब से ये प्रैक्टिल प्लान नहीं हैं. क्योंकि जब युद्ध बढ़ जाता है तो हमें इसे संभालना मुश्किल होगा. और आखिरकार वही हुआ. लेकिन भुट्टो ने अयूब को कहा कि आप डरिए मत लाल बहादुर शास्त्री लाहौर में दूसरा फ्रंट नहीं खोलेंगे वो कश्मीर ही तक सीमित रहेंगे.
जुल्फिकार अली जंग के लिए आमादा थे. और आखिर में वही हुआ. राष्ट्रपति अयूब खान और पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल मूसा ने जुल्फिकार की योजना को हरी झंडी दे दी. पाकिस्तान को लग रहा था कि उसकी सामरिक क्षमता भारत से कहीं ज्यादा मजबूत है.
दरअसल पाकिस्तान को हाल ही में अमेरिका से आधुनिक पैटन टैंक मिला था. जबकि भारत के पास ब्रिटेन में बने सेंचुरिअन टैंक (Centurion Tank) और द्तिय विश्व युद्ध के शरमन (Sherman) और फ्रेंच AMX टैंक थे. भारतीय टैंक रात में उपयोगी नहीं थे जबकि पाकिस्तान के पैटन टैंक में ये खूबी थी. पाकिस्तान ने रेंज आर्टलरी, आधुनिक रडार भी हासिल कर लिया था.
पाकिस्तान के पास रात के अंधेरे में लड़ने की क्षमता रखनेवाले सुपरसोनिक स्टार फाइटर विमान और उस समय का बेहतरीन लड़ाकू विमान F-86 SABRE ( सेबर) था जो खतरनाक एयर टू एयर मिसाइल दागने की क्षमता रखते थे.
पाकिस्तान के इन विमानों के मुकाबले भारतीय वायुसेना के पास हंटर ( HUNTER), मिस्टेयर (MYSTERE),  नेट्स ( NATS) , केनबरा ( CANBERRA) के अलावा बहुत पुराने वैंपायर ( VAMPIRE ) जहाज थे जिनके पास रात में लड़ने की क्षमता नहीं थी.  पाकिस्तान अपने आधुनिक टैंक, आर्टलरी और विमानों को आजमा कर भारतीय सेना के दमखम को परखना चाहता था. और इसी मकसद पाकिस्तान ने सबसे पहले हमला बोला कच्छ के रण में.
रक्षा मामलों के जानकार नितिन गोखले बताते हैं कि जुल्फिकार अली भुट्टो ने जब जोर डाला कि अब युद्ध कीजिए तो अयूब ने कहा कि हमारा जो नया हथियार आया हुआ है- पैटन टैंक, आर्टलरी, जो अमेरिका से मिली हुई है उसको टेस्ट करते हैं. इन्होंने युद्ध में जो क्लासिकल डाइवरजनरी टेकटिस्ट होता है उसके तहत कश्मीर में हमला करने के बजाय दूर कच्छ में हमला किया कि भारत के डिफेंस को टेस्ट करें. और ऐसे जगह किया जहां भारत के डिफेंस थे ही नहीं. कच्छ में भारत की सेना और वायु सेना की उपस्थिति बिल्कुल नहीं थी.
रणनीति के मुताबिक पाकिस्तान भारत के खिलाफ हमले को तीन चरणों में आगे बढ़ाना चाहता था और इस रणनीति के तहत पाकिस्तानी सेना 1965 के मार्च महीने से ही कच्छ के रण में छिटपुट हमले कर रहा था. और फिर अप्रैल महीने में पाकिस्तान ने यहां ऑपरेशन डेजर्ट हॉक शुरू कर दिया. पाकिस्तान की तरफ से जानबूझ शुरू गई इस लड़ाई में पहले सीमा सुरक्षा बल को शामिल होना पड़ा. बाद में दोनों देशों की फौज आमने-सामने आ गईं. 
65 की लड़ाई में हिस्सा ले चुके अफसर बताते हैं कि रण ऑफ कच्छ में अयूब खान ने टेस्ट लिया था कि हिंदुस्तान की फौज में दम है या नहीं है. उस वक्त उन्होंने एक हमला किया उस वक्त हमारी फौज कम थी और तैयार भी नहीं थी उस इलाके में.
9 अप्रैल 1965 को पाकिस्तानी सेना ने कच्छ में सीआरपीएफ की सरदार चौकी पर भारी गोलीबारी की जिसका भारतीय जवानों ने मुंहतोड़ जबाव दिया. शालीमार चौकी और कंजरकोट में भारत और पाकिस्तान के सैनिकों के बीच जमकर गोलीबारी हुई. मई और जून महीने मे पाकिस्तान ने हमले और तेज कर दिए और उसने कच्छ के रण में टैंक और तोपखाने उतार दिए.
पाकिस्तान हद से बाहर जा रहा था. वो कच्छ के रण के एक बड़े इलाके पर अपना हक जता रहा था. सीमा पर बिगड़े हालात पर प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने सेना अध्यक्ष जनरल जे एन चौधरी से बात की. शास्त्री जी ने संसद में चर्चा के दौरान पाकिस्तान को चेतावनी देते हुए कहा कि वो बड़ी जंग के लिए भारत को न उकसाए लेकिन पाकिस्तान पर इसका असर नहीं हुआ. कच्छ के रण में पाकिस्तान के हमले जारी थे.
कच्छ के रण में लड़ाई तेज होती जा रही थी. जंग को कच्छ के रण में छिडी रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ने लगा. खासकर ब्रिटेन और अमेरिका इस लड़ाई को जल्द रोकना चाहते थे. दोनों देश ने भारत और पाकिस्तान को इस बात के लिए राजी किया कि वो कच्छ के रण में जमीन बंटवारा कर विवाद को खत्म करें. इसके बाद 30 जून 1965 को भारत पाकिस्तान के बीच कच्छ सिंध समझौता हुआ.
समझौता क्या था ? इसके बाद पाकिस्तान का हौसला क्यों बढ़ा और इसके बाद पाकिस्तान ने क्या रणनीति अपनाई ?
कच्छ सिंध समझौते के बाद पाकिस्तान का हौसला बढ़ गया. वो इसे अपनी जीत समझ बैठे. कच्छ के रण में हुई लड़ाई के बाद पाकिस्तान को लगने लगा कि उनके आक्रमण के सामने भारतीय सेना टिक नहीं सकती. लेकिन ये पाकिस्तान की बहुत बड़ी गलतफहमी थी. अयूब खान और जुल्फिकार अली भुट्टो भारतीय सेना की ताकत का अंदाजा लगाने में चूक गए और फिर सिर्फ दो महीने बाद ही पाकिस्तान ने एक दूसरी रणनीति अपनाई. पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसपैठियों को भेजना शुरू कर दिया. ये पाकिस्तान का ऑपरेशन जिब्राल्टर था.
रक्षा मामलों के जानकार नितिन गोखले बताते हैं कि ऑपरेशन जिब्राल्टर का उद्द्देश्य ये था कि आप घुसपैठियों को कश्मीर में घुसाइए और लोकल जनता को उकसा कर उन्हें कहिए कि भारत की सेना को वहां से खदेड़ दे और कश्मीर फिर अलग हो जाए. 30 हजार घुसपैठियों को और पाकिस्तान सेना और अफसरों को ( एक्रॉस द सिएफएल तब एलोसी को सीएफएल कहते थे ) हाजी पीर के रास्ते घुसपैठ कराई.
65 की लड़ाई में हिस्सा ले चुके अफसर बताते हैं कि जैसा कि 1947 में उन्होने किया- कहा कि कबीले वाले आए. उन्होंने अपनी फौज को घुसपैठिया बना कर भेजा. उनका ये ख्याल था कि उधर जाकर हम विद्रोह करेंगे. दस बारह हजार की फौज थी सात आठ जगहों से. वो जगह जगह जाएंगे और जो कश्मीरी हैं वो उनके साथ मिल जाएंगे. फिर बॉर्डर पर लड़ाई शुरू करेंगे. उस समय फौज दुश्मन को देखती या अंदर देखती.
5 अगस्त 1965 को शुरू हुआ ऑपरेशन जिब्राल्टर असल में पाकिस्तान का गुप्त सैनिक अभियान था. पाकिस्तान ने 30 हजार से भी घुसपैठियों कश्मीर की घाटी में भेजना शुरू कर दिया. उनमें बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिक भी थे जो स्थानीय लोगों की वेश भूषा घुसपैठ के लिए भेजे गए. पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान को भरोसा था कि ये हथियारबंद घुसपैठिये जब कश्मीर पहुंचेंगे तो वहां के लोग भारत के खिलाफ उठ खड़े होंगे. और फिर आजादी की लडाई के नाम पर कश्मीर से सेना और सरकार को उखाड़ फेंका जाएगा. इस खुफिया ऑपरेशन के लिए पाकिस्तान के 12 वीं डिविजन के जीओसी मेजर जनरल अख्तर हुसैन मलिक को लगाया गया था.
योजना के मुताबिक भेष बदले हुए पाकिस्तानी फौजियों की अलग अलग करीब 10 टुकरियां बनाई गई थीं. हर टुकडी का एक कोड नेम था जैसे सलाहुद्दीन, गजनबी, तारिक, बाबर, कासिम, सिकंदर. हर ग्रुप को अलग अलग इलाकों में भेजा जाना था. जैसे सलाहुद्दीन ग्रप को श्रीनगर की घाटी में पहंचना था. तारिक नाम की टुकड़ी को करिगल में. गजनवी ग्रुप को मेंधार रजौरी को भेजा जाना था. पाकिस्तान ने इन्हें जिब्राल्टर फोर्स नाम दिया था जिसकी संख्या 30 हजार से भी ज्यादा थी.
जिब्राल्टर फोर्स में पहाड़ी इलाके के बंजारों को भी शामिल किया गया था जो स्थानीय लोगों में आसानी से घुलमिल जाते थे। उन्हीं दिनों कैप्टन मोहम्मद सज्जाद और कैप्टन गुलाम हुसैन नाम के ये दो पाकिस्तानी अफसर पकड़े गए जो कश्मीरी लिबास पहनकर स्थानीय लोगों के बीच छिपे थे. ये कश्मीर में पाकिस्तान की साजिश का बड़ा सबूत था. हाजी पीर दर्रे से आए पाकिस्तानी घुसपैठिये कभी बमबारी करते थे तो कभी हाइवे को बंद कर देते थे. पुलों को तोड़ना, लूटपाट करना, रसद पर कब्जा करना सबकुछ साथ चल रहा था. घुसपैठिया बने पाकिस्तानी सैनिक हमले के बाद छिप जाया करते थे. आखिर में उन्हें श्रीनगर पहुंचना था.
रक्षा मामलों के जानकार नितिन गोखले के मुताबिक जैसा कि हमने 1999 में देखा कि कारगील में घुसपैठ की थी उन्होंने  वैसे ही कारगील में बमबारी करते थे. नेशनल हाइवे पर बमबारी करते थे टेस्ट करने के लिए. भारत ने उनपर पलटवार किया और 1320 एक पीक है उसको कैप्चर किया. मई में किया और फिर अगस्त में किया. 5 अगस्त से 28 अगस्त तक लुकाछिपी चलती रही. कभी घुसपैठियों को पकड़ते थे कभी मारते थे. कभी घुसपैठिये पाकिस्तान की तरफ भाग जाते थे.
करीब साढ़े आठ हजार फुट उंचाई से गुजरनेवाला हाजी पीर दर्रा पाकिस्तान के घुसपैठियों के लिए सबसे मददगार साबित हो रहा था. वो हाजी पीर के रास्ते आ रहे थे और जबावी हमला होने पर वहीं से वापस भी भाग जाते थे. इस रास्ते से ही घुसपैठियों तक रसद और हथियार भी भेजा जा रहा था. ऐसे में हाजी पीर पास पर कब्जा करना सबसे जरूरी था लेकिन ये सबसे चुनौतीपूर्ण भी था.
हाजी पीर कब्जे के लिए भारत ने इसपर दो तरफ से हमला करने की योजना बनाई. पूर्व की ओर से पंजाब रेजिमेंट को हमला करने के लिए कहा गया और पश्चिम से 1 पैरा रेजिमेंट को चोटियों पर कब्ज़ा करने का आदेश मिला. उस वक्त 1 पैरा रेजिमेंट की अगुवाई कर रहे थे मेजर रंजित सिंह दयाल.

रणजीत सिंह दयाल असाधरण बहादुर इंसान थे. नेक दिल के थे. एक कपंनी कमांडर को शादी के लिए जाना था इसलिए रणजीत सिंह दयाल ने तय किया ने खुद तय किया कि वो खुद कंपनी कमांडर बनेंगे. हमने उसे टेलिग्राम किया कि वो शादी करके पूरी छुट्टी बिताकर ही वापस लौंटे. उन्होंने खुद कंपनी कमांडर का जिम्मा संभाल लिया. उन्होंने बड़ी टास्क ले लिया था अपने से कम ओहदे के लिए. वो खुद फौज के साथ हाजी पीर गए.
इस चुनौतीपूर्ण अभियान में मेजर दयाल के साथ बिग्रेडियर अरविंदर सिंह भी थे. ये उनदिनों मेजर के रैंक पर थे. बिग्रेडियर अरविंद सिंह बताते हैं कि मेजर दयाल की अगुवाई में उनका पहला लक्ष्य संक के ढलानों पर कब्जा करना था. उन्होंने दुश्मन पर जबर्दस्त तरीके से हमला बोला और संक के ढलानों पर कब्जा कर लिया. इसके बाद वो हाजी पीर दर्रे की तरफ बढ़े. रात का वक्त था. तेज बारिश हो रही थी. पीठ पर गोला बारूद का बोझ था और सामने करीब डेढ़ हजार फुट की चढाई थी. सुबह होने से पहले अगर हाजी पीर की चोटी पर नही पहुंचते तो वो खुद दुश्मन के आसान शिकार बन जाते. इस मुश्किल हालात में मेजर दयाल ने सैनिकों का हौसला बढाया और वो आगे बढते रहे.
बिग्रेडियर अरविंदर सिंह बताते हैं कि मैं सैकेंड सीनयर मोस्ट कंपनी कमांडर था और मेरी सर्विस उस वक्त चार साल थी. मैं मेजर रैंक के मेडल पहनता था लेकिन मेरी भूमिका एक्टिंग कैप्टन की थी. हमारे पास उतना अनुभव नहीं था. हम जवान थे जोश था लेकिन हमारे पास रणजीत सिंह दयाल इतना अनुभव नहीं था.
सुबह साढ़े चार बजे मेजर दयाल की टुकड़ी उड़ी-पुंछ हाईवे पर पहुंच चुकी थी. और फिर सुबह का सूरज निकलते ही सैनिकों ने हाजी पीर दर्रे पर हमला बोल दिया. रणनीति के मुताबिक कुछ भारतीय जवानों पाकिस्तानी फौजियों को गोलीबारी में उलझाए रखा और इस बीच मेजर दयाल दूसरी तरफ से वो सैनिकों के साथ अचानक दुश्मन के सामने पहुंच गए. पाकिस्तानी सिपाही चौंक पड़े. उन्हें संभलने का मौका नहीं मिला. कुछ तो हमले में मारे गए. कुछ हथियार छोड़ कर भाग खड़े हुए. और कई पाकिस्तानी घुसपैठिये ऐसे भी थे जो वहीं पकड़े गए. हाजी पीर दर्रे के पास की चोटियों पर हमले के दौरान दुश्मनों ने एक ग्रनेड अरविंदर सिंह पर फेंका था. धमाके से अरविंदर सिंह के पैर का एक हिस्सा उड़ गया.
बिग्रेडियर अरविंदर सिंह बताते हैं कि 28 तारीख तक हमने उसको अपने कब्जे में कर लिया था. ये अलग बात है कि हमने उसे रिटेन करने के लिए दर्रे से ज्यादा उनके बगल वाली चोटी पर कब्जा करना ज्यादा जरूरी होता है. अगर वो हम कब्जा करें तो दर्रे को हम इस्तेमाल कर सकते हैं. वो काम हमने 30 तारीख को किया जिसमें कि मैं कंपनी कमांडर के तौर पर इनवाल्व था. जिसमें मैं बहुत बुरी तरह जख्मी हुआ और अगले छह महीने तक मैं अस्पताल में था.
28 अगस्त सुबह दस बजे तक हाजी पीर दर्रे पर भारत का कब्जा हो चुका था. भारतीय जवानों ने हाजी पीर पर तिरंगा फहरा कर विजय जश्न मनाया. इस जीत के हीरो मेजर रंजित सिंह दयाल और जोरावर चंद बख्शी थे.
हाजी पीर दर्रे पर भारत का कब्जा पाकिस्तान के लिए करारा झटका था. पाकिस्तान के जो घुसपैठिये सैनिक कश्मीर पहुंच गए उनके लौटने का रास्ता अब बंद हो चुका था. वो कश्मीर में ही फंस गए. वो स्थानीय लोगों को भारत के खिलाफ भड़काने आए थे लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया. दूसरी तरफ पाकिस्तानी घुसपैठियों के लिए हाजी पीर दर्रे के रास्ते आने वाली रसद और हथियार की सप्लाई भी ठप पड़ गई.
ये उनका मकसद था जो बुरी तरह फेल हुआ. एक अगस्त को उन्होंने शुरू किया था और 28 अगस्त तक उन्हें पीछे हटना पड़ा. शुरू में उन्हें कुछ कामयाबी मिली लेकिन धीरे धीरे वो हारने लगे. और कश्मीर के लोगों ने उनका साथ नहीं दिया.
पाकिस्तान का ऑपरेशन जिब्राल्टर फेल हो चुका था. इसके बाद हताश पाकिस्तान ने जंग की तीसरी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया. ये था ऑपरेशन ग्रैंड स्लेम. इस ऑपरेशन के तहत पाकिस्तान सीधे छंब जोहरियां पर सेक्टर पर हमला कर अखनूर के पुल पर कब्जा करना चाहता था ताकि पुंछ, राजौरी, नौशेरा में तैनात भारतीय सेना का संपर्क टूट जाए. इससे कश्मीर तक रसद भी नहीं पहुंच सकता था. अखनूर पर अगर पाकिस्तान का कब्जा हो जाता तो पूरा कश्मीर भारत के हाथ से निकल सकता था.
 छंब का महत्व यही था कि वो एक डोमिनेट करती है उस मतलब आपका जो मेन रूट है आगे जम्मु कश्मीर को वहां से उसको आप एक बारी अंदर जाते हैं तो आप वो चैकिनेक के जरीए सप्लाय रूट को बेद कर सकते हैं.
12 डिवीजन के जेओसी पाकिस्तान के अख्तर हुसैन मलिक उन्होंने इस प्लान को बनाया था. प्लान ये था कि छंब जोहरियां से एक बड़ा हमला करें टैंक्स और आर्टलरी के साथ. जम्मू डिवीजन में छंब जोहरियां एक ऐसी जगह है जहां सीएफएल ( एलोओसी ) इंटरनेशनल बॉर्डर से मिलती है. वहां एक छोटा सा गैप है जहां मुनव्वर तवी नदी के जरिए आ सकते हैं. ऑपरेशन ग्रैंड स्लेम का टारगेट था कि अखनूर ब्रिज को कैप्चर किया जाय जिससे नवसेरा, पुंछ और रजोरी को कटऑफ किया जाय- उसके बाद जम्मू की तरफ आगे बढ़ा जाय जिससे कि पूरा कश्मीर भारत से अलग हो सकता है.

1 सितम्बर 1965 की सुबह चार बजे पाकिस्तान की दो इनफेंट्री डिवीजन करीब 70 टैंकों की अगुवाई में छंब जोहरियां सेक्टर में बॉर्डर क्रास करते हुए अचानक हमला कर दिया. वो भारी गोलाबारी करते हुए अखनूर पुल की तरफ आगे बढ़ने लगे. उनका मकसद अखनूर पुल पर कब्जा कर कश्मीर को भारत से काट देना था. अब बड़े फैसले का समय था. जम्मू कश्मीर को बचाने के लिये हवाई हमले करने की जरुरत थी. पाकिस्तान पर हवाई हमला ही उस वक्त जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे में जाने से रोक सकता था. हालात को देखते हुए सेना अध्यक्ष जनरल जे एन चौधरी ने वायुसेना अध्यक्ष एयर मार्शल अर्जन सिंह से एयरफोर्स की मांग की. इसके बाद दोनों रक्षा मंत्री वाई.बी चव्हाण से मिलने पहुंचे. वाई.बी चव्हाण ने बगैर देरी किए कैबिनेट की मंजूरी के बगैर वायुसेना के इस्तेमाल का आदेश दे दिया.
रक्षा मंत्री वाई बी चव्हाण से मिलने के बाद एक घंटे से भी कम समय में छंब जोहरियां से निकटतम सेक्टर पठानकोट एयरबेस पर वायुसेना का वैंपायर विमान उड़ान भरने के लिए तैयार था. जब हमले का आदेश मिला शाम ढल रही थी. शुरुआती हमले में पाकिस्तान ने भारत के दो वैंपायर्स को मार गिराया.
3 सितंबर की सुबह भारतीय वायुसेना के 3 मिस्टेयर विमान और 8 नेटस विमान ने उड़ान भरी. और बेहद चालाकी से अचानक पाकिस्तान के सेबर विमानों पर हमला कर उन्हें धराशायी कर दिया.
भारतीय वायुसेना ने तकरीबन डेढ़ घंटे में पाकिस्तानी फौज के 13 टैंक, दो भारी तोप और करीब 62 गाड़ियों को तबाह कर दिया गया. मैदाने जंग में मैदाने जंग में दुश्मनों के जलती हुई टैंक और गाड़ियां नजर आ रही थी. 
छंब में लड़ाई चल ही रही थी कि पाकिस्तान ने अख्तर हुसैन को हटाकर ऑपरेशन ग्रैंड स्लेम की कमान मेजर जनरल याहया खान को सौंप दी. याहया खान को ऑपरेशन ग्रैंड स्लेम की रणनीति समझने में 24 घंटे लग गए. इस बीच पाकिस्तान की सेना भ्रमित हो गई और 24 घंटों तक वो आगे नहीं बढ़ पाई. एयरफोर्स के  इस्तेमाल से भारतीय फौज के पांव उखड़ने से बच गये. और अखनूर पाकिस्तान के हाथों में जाते जाते बच गया.
रक्षा मामलो के जानकार नितिन गोखले के मुताबिक एक तो पाकिस्तान ने अपना एडवांस स्लो डाउन कर दिया. हमारे 20 लेंसर का जो स्कॉवड्रन था मेजर भाष्कर रॉय जो उसका नेतृत्व कर रहे थे. उन्होंने उसको स्लो डाउन कर दिया. दूसरी तरफ पाकिस्तान में जो इगो फाइट थी याहया खान और अख्तर हुसैन मलिक के बीच. पहले ही दिन जब वो अखनूर तक नहीं पहुंच पाए तो अख्तर हुसैन मलिक को हटा कर याहया खान को उसका जिम्मा सौंपा गया. याहया खान उस वक्त 7 डिवीजन के जीओसी थे. और उसके बाद उन्होंने इतना स्लो डाउन कर दिया कि उस वक्त तक भारत की सेना आ गई और भारत नेहवाई हमला भी शुरू कर दिया.
छंब में पाकिस्तान की सेना को रोकने के बाद भी जम्मू कश्मीर को बचाना नामुमकिन लग रहा था. पाकिस्तान को करारा जबाव देने के लिए अब कोई बड़ा फैसला लेना जरूरी हो गया था. भारत के सेनाध्यक्ष जनरज जेएन चौधरी ने अचानक आधी रात को प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से मुलाकात का समय मांगा. आधी रात को ही शास्त्री जी और जनरज चौधरी की मुलाकात हुई.
लाल बहादूर शास्त्री के बेटे अनिल शास्त्री के मुताबिक सेना प्रमुख आए हुए हैं. एयर मार्शल अर्जन सिंह जो अभी जीवित हैं मार्शल एयर फोर्स हैं जनरल चौधरी और नेवी के सोमन ये तीन लोग आए थे. और शास्त्री जी को उन्होंने ये गंभीरता बताई कि इस तरह से बहुत ही गंभीर मसला है और शास्त्री ने तुरंत कहा कि हमें और फ्रंट खोलने चाहिए आपको मेरी तरफ से पूरी इजाजत है आप नए मोर्चें खोलिए और उसमें लाहौर को भी शामिल करिए.
प्रधामंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लड़ाई बढाने का फैसला ले लिया. ये एक अहम फैसला था. पंजाब और राजस्थान का बॉर्डर पाकिस्तान से मिलता था और लाल बहादुर शास्त्री ने सेना को दोनों जगह फ्रंट खोलने कि इजाजत दे दी.
6 सितम्बर को जंग की शुरुआत करते हुए भारतीय सेना अंतर्राष्ट्रीय सीमा को पार कर इच्छोगिल नहर तक पहुंच गई. पाकिस्तान ने इच्छोगिल कैनाल लाहौर सेक्टर के साथ साथ बनाई थी ताकि जंग के दौरान कैनाल के पानी को खोल दिया जाय और भारतीय सेना आगे न बढ़ सके. लेकिन भारतीय सेना तेजी से आक्रमण करती हुई इच्छोगिल नहर को पार कर पाकिस्तान में घुस गई.
इस आक्रमण के जबाव में पाकिस्तान की वायुसेना ने भारत के पठानकोट, आदमपुर, हलवारा और जामनगर हवाई अड्डे पर हमला किया. 6 सितंबर की रात पठानकोट, हलवारा, और आदमपुर हवाईअड्डे पर पैराशूट के जरिए कमांडो उतारा. लेकिन साठ- साठ के ग्रुप में उतरे उन पाकिस्तानी कमांडो को भारतीय जवानों ने घेर लिया. 22 कमांडो मार गिराया गया और बाकी गिरफ्तार कर लिए गए.
6 सितंबर की रात ही हलवारा और आदमपुर हवाई अड्डे से उड़ानकर भरते हुए भारत के मिस्टेयर विमान ने पेट्रोल टैंकर ले जा रही पाकिस्तान की एक मालगाड़ी को तबाह कर दिया.
पाकिस्तान के लगातार हवाई हमलों को देखते हुए वायुसेना अध्यक्ष अर्जन सिंह ने रक्षा मंत्री वाईबी चव्हाण से बात की. अर्जन सिंह को आदेश मिला को दुश्मन को करारा जबाव दिया जाय.
अबतक भारत ने पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर हमला नहीं किया था लेकिन अब जबाव देने का वक्त आ गया था. भारतीय वायुसेना से मिस्टियर विमान से एक के बाद 26 हमले करते हुए सरगोधा पर भारी बमबारी की. सरगोधा के रनवे को तहस नहस कर दिया. 7 सितंबर को वायुसेना के विमानों ने नीची उड़ान भरते हुए रनवे पर खड़े कई विमान और तेल टैंकर को तबाह कर दिया. भारतीय वायुसेना के मिस्टेयर (MYSTERE), नेट्स ( NATS) , केनबरा ( CANBERRA) और वैंपायर ( VAMPIRE ) विमान आसमान से आग उगल रहे थे. उन्होंने एक के बाद एक पाकिस्तान के कई सैबर विमान को मार गिराया.
भारतीय वायुसेना के आक्रमक हमले से घबराकर पाकिस्तान के विमानों ने भारत के आबादी वाले इलाकों पर हमले करने लगा. 19 सितंबर को पाकिस्तान ने उस विमान पर कायराना हमला कर दिया जिसमें गुजरात के मुख्यमंत्री बलवंतराय मेहता सवार थे. इस हमले में बलवंत राय मेहता समेत तीन लोगों की मौत हो गई.
इधर भारतीय थल सेना लाहौर की तरफ बढते हुए पाकिस्तान के बर्की इलाके तक पहुंच चुकी थी. यहां के सेना के जवानों ने ताबड़तोड़ हमला करते हुए ही कुछ ही घंटे में इलाके पर कब्जा कर लिया और बर्की पुलिस स्टेशन पर तिरंगा झंडा फहरा दिया.
बर्की की हार से पाकिस्तानी सेना बौखला गई और उन्होंने जबावी कार्रवाई करते हुए पंजाब के खेमकरन सेक्टर की तरफ बढ़ी. खेमकरन के असल उत्तर इलाके में पाकिस्तान ने पैटन टैंक गोले बरसाते हुए तेजी से आगे बढ़ रहे थे. उन्हें रोकना एक बडी चुनौती थी. लेकिन भारतीय सेना एक खास व्यूह रचना को अंजाम देते हुए पहले पैंटन टैंको को आगे बढ़ने दिया और फिर चारों तरफ से उन पर हमला कर दिया. खेमकरन पाकिस्तानी पैटन टैंकों को जिसने सबसे ज्यादा तबाह किया वो थे भारतीय सेना के जवान अब्दुल हमीद. 8 सितंबर की सुबह चीमा गांव अब्दुल हमीद ने जब पाकिस्तान के पैटन टैंको को आते देखा तो वो अकेले ही उनसे भिड़ गए. अब्दुल हमीद ने अपनी "गन माउनटेड जीप" से पैटन टैंको पर गोलियां दागने लगे. वो शक्तिशाली पैटन टैंकों के कमजोर हिस्से पर सटीक निशाना लगा रहे थे और हर टैंक को ध्वस्त करते जा रहे थे. अब्दुल हमीद की इस तरकीब को देखकर दूसरे भारतीय सैनिकों का भी हौसला बढ़ गया. इसके बाद तो पाकिस्तानी फ़ौज में भगदड़ मच गई. देखते ही देखते खेमकरन पाकिस्तानी टैंकों की कब्रगाह बन गया.
भारतीय सेना पाकिस्तान के सियालकोट तक पहुंच चुकी थी. यहां फिल्लौर नाम के इलाके में भारत और पाकिस्तान के बीच टैंकों की सबसे बड़ी लड़ाई हुई. कहा जाता है कि द्तिय विश्व युद्ध के बाद ये सबसे बड़ी लडाई थी. यहां लेफ्टिनेंट कर्नल एबी तारापोर दुश्मनों पर इतनी बहादुरी से हमला किया उन्हें पीछे हटना पड़ा.
पाकिस्तान के डोगराई में भारतीय सेना ने बेहद ही कठिन लड़ाई लडी. यहां जवानों ने 27 घंटे तक लगातार उन दुश्मनों से मुकाबला किया जो घरों में छिपकर हमला कर रहे थे. 27 घंटे की जंग के बाद भारतीय सेना ने डोगराई पर भी कब्जा कर लिया. इतना ही नहीं सेना ने यहां विजय जुलूस भी निकाला. 7 से 20 सितंबर तक सियालकोट में भयंकर युद्ध हुआ. चारों ओर टैंको के चलने से धूल उड़ रही थी. गोला बारुद के धमाकों से धुआं पसरा हुआ था. दोनों देशों के करीब 400 टैंक आग उगल रहे थे. भारतीय फौज ने पाकिस्तान के 97 अमरीकी पैटन टैंकों को नेस्तनाबूद कर दिया. और 28 टैंको पर कब्जा कर लिया.
सियालकोट में भारतीय सेना पाकिस्तान की कमर तोड़ कर रख दी थी. भारतीय सेना लाहौर हवाई अड्डे तक पहुंच चुकी थी.  और इधर कश्मीर के हाजी पीर दर्रे पर भी भारत का कब्जा हो गया था. जंग पाकिस्तान ने छेड़ी थी लेकिन वो खुद मात खा रहा था. इस बीच भारत और पाकिस्तान पर युद्ध विराम के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ता जा रहा था. 20 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में युद्ध विराम पर प्रस्ताव पारित किया गया. और 22 सितंबर को भारत-पाक युद्ध विराम का आदेश भी जारी कर दिया गया. अंतर्राष्ट्रीय दबाव के आगे झुकते हुए 22 सितंबर को राष्ट्रपति अयूब खान ने पाकिस्तान रेडियो पर सीजफायर की जानकारी अपनी आवाम को दी.
आज सुबह हमने पाकिस्तान कि अफवाज के नाम ये हुकुम जारी किया है कि उस 23 सितंबर को सुबह के तीन बजे से फायरिंग बंद कर दें.  युद्ध खत्म होने का एलान प्रधानमंत्री शास्त्री ने भी कर दिया.
मेरे प्रिय देशवासियों, 5 अगस्त को भारत और पाकिस्तान के बीच जो घुसपैठ और लड़ाई शुरू हुई थी. वो आज सुबह साढ़े तीन बजे रूक गई है. ब्लैक आउट हटा लिया गया है.
ABP News

No comments:

Post a Comment