Sunday, July 12, 2015

रामायण के बजरंग बली

जब छोटे थे तब नहीं जानते थे कि भगवान कैसे दिखते हैं पर एक भगवान के बारे में ऐसा बिलकुल नहीं था| बजरंग बली कैसे दिखते हैं, कैसे बोलते हैं, कैसे चलते हैं और कैसे राक्षसों का वध करते हैं, सब कुछ पता चल गया था हम लोगों को| कारण थे महाबली दारा सिंह जिन्होंने जय बजरंग बली फिल्म और रामायण धारावाहिक में हनुमान की वो भूमिका अदा की कि ऐसा लगा कि साक्षात् बजरंग बली ही सामने हैं|


दारा सिंह रन्धावा का जन्म 19 नवम्बर 1928 को अमृतसर (पंजाब) के गाँव धरमूचक में श्रीमती बलवन्त कौर और श्री सूरत सिंह रन्धावा के यहाँ हुआ था। कम आयु में ही घर वालों ने उनकी मर्जी के बिना उनसे आयु में बहुत बड़ी लड़की से शादी कर दी। माँ ने इस उद्देश्य से कि पट्ठा जल्दी जवान हो जाये, उसे सौ बादाम की गिरियों को खाँड और मक्खन में कूटकर खिलाना व ऊपर से भैंस का दूध पिलाना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि सत्रह साल की नाबालिग उम्र में ही दारा सिंह प्रद्युम्न नामक बेटे के बाप बन गये। दारा सिंह का एक छोटा भाई सरदारा सिंह भी था जिसे लोग रन्धावा के नाम से ही जानते थे। दारा सिंह और रन्धावा - दोनों ने मिलकर पहलवानी करनी शुरू कर दी और धीरे-धीरे गाँव के दंगलों से लेकर शहरों तक में ताबड़तोड़ कुश्तियाँ जीतकर अपने गाँव का नाम रोशन किया।
1947 में दारा सिंह सिंगापुर चले गये और वहाँ रहते हुए उन्होंने भारतीय स्टाइल की कुश्ती में मलेशियाई चैम्पियन तरलोक सिंह को पराजित कर कुआलालंपुर में मलेशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप जीती। उसके बाद उनका विजय रथ अन्य देशों की चल पड़ा और एक पेशेवर पहलवान के रूप में सभी देशों में अपनी धाक जमाकर वे 1952 में भारत लौट आये। भारत आकर सन 1954 में वे भारतीय कुश्ती चैम्पियन बने।
उसके बाद उन्होंने कामनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैम्पियन किंगकांग को परास्त कर दिया। बाद में उन्हें कनाडा और न्यूजीलैण्ड के पहलवानों से खुली चुनौती मिली। अन्ततः 1959 में उन्होंने.कलकत्ता में हुई कामनवेल्थ कुश्ती चैम्पियनशिप में कनाडा के चैम्पियन जार्ज गार्डियान्को एवं न्यूजीलैण्ड के जान डिसिल्वा को धूल चटाकर यह चैम्पियनशिप भी अपने नाम कर ली।
दारा सिंह ने उन सभी देशों का एक-एक करके दौरा किया जहाँ फ्रीस्टाइल कुश्तियाँ लड़ी जाती थीं। आखिरकार अमरीका के विश्व चैम्पियन लाऊ थेज को 29 मई 1968 को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैम्पियन बन गये। 1983 में उन्होंने अपराजेय पहलवान के रूप में कुश्ती से सन्यास ले लिया।
जिन दिनों दारा सिंह पहलवानी के क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त कर चुके थे उन्हीं दिनों उन्होंने अपनी पसन्द से दूसरा और असली विवाह सुरजीत कौर से किया, जिनसे उन्हें तीन बेटियाँ और दो बेटे प्राप्त हुए। किंग-कांग, जॉर्ज जॉरडिएंको, जॉन डिसिल्वा, माजिद अकरा, शेन अली जैसे महारथियों को दारा सिंह ने जब धूल चटा दी तो उनके नाम डंका चारों ओर बजने लगा। इस रियल हीरो के दरवाजे पर सिल्वर स्क्रीन पर हीरो बनने के प्रस्ताव जब लगातार दस्तक देने लगे तो वे अपने आपको नहीं रोक पाए और अखाड़े से स्टुडियो में फैली चकाचौंध रोशनी की दुनिया में आ गए।
जवानी के दिनों में दारासिंह बेहद हैंडसम थे। ऊंचा कद, चौड़ा सीना, मजबूत बांहे और मुस्कान से सजा चेहरा। फिल्म वालों को तो अपना हीरो मिल गया। उस दौर में तलवार बाजी, स्टंट्सम और फाइटिंग वाली फिल्मों का एक अलग ही दर्शक वर्ग था। बड़े सितारे इस तरह की फिल्मों में काम करने से कतराते थे। इन दिनों हर स्टार जिम में ज्यादा वक्त बिताता है, लेकिन उस वक्त छुईमुई से हीरो का चलन था और कई हीरो तो लिपस्टिक का उपयोग भी करते थे। मारधाड़ वाली फिल्म बनाने वालों को ऐसा हीरो चाहिए था जो उनकी फिल्मों में फिट बैठ सके। दारा सिंह के बारे में सबसे अहम बात यह थी कि वे ऐसी भूमिकाओं में विश्वसनीय लगते थे क्योंकि रियल लाइफ में भी वे इस तरह की फाइटिंग करते थे। निर्देशकों को उनके किरदार को स्थापित करने में ज्यादा फुटेज खर्च नहीं करना पड़ते थे।
दारासिंह की शुरुआती फिल्मों के नाम भी ऐसे हैं कि सुनकर लगता है ‍जैसे किसी कुश्ती की स्पर्धा के नाम हो, जैसे- रुस्तम-ए-रोम, रुस्तम-ए-बगदाद, फौलाद। इन फिल्मों की कहानी बड़ी सामान्य होती थी और इनमें अच्छाई बनाम बुराई को दिखाया जाता था। दारा सिंह अच्छाई के साथ होते थे और विलेन को मजा चखाते थे। स्क्रिप्ट इस तरह लिखी जाती थी कि ज्यादा से ज्यादा फाइट सीन की गुंजाइश हो और इन दृश्यों में दारा सिंह जब दुश्मनों को धूल चटाते थे ‍तो थिएटर में बैठे दर्शक खूब शोर मचाते थे। जंग और अमन, बेकसूर, जालसाज, थीफ ऑफ बगदाद, किंग ऑफ कार्निवल, शंकर खान, किलर्स जैसी कई फिल्में दारा सिंह ने की और दर्शकों को रोमांचित किया। शर्टलेस होकर उन्होंने अपना फौलादी जिस्म का खूब प्रदर्शन किया।
हीरो के रूप में दारा सिंह लंबी पारी इसलिए खेलने में सफल रहे क्योंकि लोग उनसे बहुत प्यार करते थे। वे बीस गुंडों की एक साथ पिटाई करते थे तो दर्शकों को यह यकीन रहता था कि यह आदमी रियल लाइफ में भी ऐसा कर सकता है। अभिनय की दृष्टि से देखा जाए तो दारा सिंह को हम बेहतर अभिनेता नहीं कह सकते हैं। रोमांटिक सीन में हीरोइन के साथ रोमांस करते वक्त उनका हाल बहुत बुरा रहता था। उनके उच्चारण भी खराब थे। दारा सिंह भी इन बातों से अच्छी तरह परिचित थे और उन्होंने कभी दावा भी नहीं किया कि वे महान कलाकार है। मुमताज के साथ दारा सिंह की जोड़ी खूब जमी। दोनों ने लगभग 16 फिल्मों में काम किया। उस दौरान बॉलीवुड की हर फिल्म में गाने मधुर हुआ करते थे, इसलिए दारा सिंह पर भी कई हिट नगमें फिल्माए गए।
ऐसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं जब एक ही व्यक्ति ने खेल और फिल्म में एक साथ सफलता हासिल की हो। हिंदी फिल्मों के साथ-साथ दारा सिंह ने कई पंजाबी फिल्मों में भी काम किया। फिल्में निर्देशित भी की और मोहाली में एक स्टुडियो भी खोला। जब हीरो बनने की उम्र निकल गई तो दारा सिंह ने चरित्र भूमिकाएं निभाना शुरू कर दी और 2007 में रिलीज हुई ‘जब वी मेट’ तक वे सिनेमा में नजर आते रहे।
कोई एक किरदार कैसे किसी की मुकम्मल पहचान बदल देता है, इसकी मिसाल हैं दारा सिंह। रामानंद सागर के टीवी धारावाहिक ‘रामायण’ में हनुमान के किरदार ने उन्हें घर-घर में ऐसी पहचान दी कि अब किसी को याद भी नहीं कि दारा सिंह अपने ज़माने के 'वर्ल्ड चैंपियन पहलवान' थे। ये वो किरदार है, जिसने पहलवान से अभिनेता बने दारा सिंह की पूरी पहचान बदल दी। सागर का कहना था कि हनुमान के रोल में किसी और कलाकार की कल्पना नहीं की जा सकती थी। दारा सिंह हनुमान के रोल में ऐसे रच-बस गए कि इसके बाद कभी किसी ने किसी दूसरे कलाकार को हनुमान बनाने के बारे में सोचा ही नहीं और बहुत बाद में जो कलाकार हनुमान बने भी, वो अपनी कोई छाप नहीं छोड़ पाये और दर्शकों के मन में दारा सिंह ही छाये रहे। रामायण सीरियल के बाद आए दूसरे पौराणिक धारावाहिक महाभारत में भी हनुमान के रूप में दारा सिंह ही नज़र आए। 1989 में जब 'लव कुश' की पौराणिक कथा छोटे परदे पर उतारी गई, तो उसमें भी हनुमान का रोल दारा सिंह ने ही किया। 1997 में आई फ़िल्म 'लव कुश' में भी हनुमान बने दारा सिंह।
उन्होंने पंजाबी में अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जो 1993 में हिन्दी में भी प्रकाशित हुई। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया और वे अगस्त 2003 से अगस्त 2009 तक पूरे छ: वर्ष राज्य सभा के सांसद रहे।एक छोटे-से गांव से निकल कर दारासिंह ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया। वे अक्सर अपने बेटों से कहते थे कि तुम यदि मेरे नाम को आगे नहीं बढ़ा सकते हो तो कोई बात नहीं पर ध्यान रखना कि इस पर कोई आंच न आए। दारा सिंह ने इतना नाम कमाया कि वे पहलवान शब्द के पयार्यवाची बन गए। हट्टे-कट्टे शख्स को देख लोग कहते हैं कि देखो दारा सिंह आ रहा है।
7 जुलाई 2012 को दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्हें कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी अस्पताल मुम्बई में भर्ती कराया गया किन्तु पाँच दिनों तक कोई लाभ न होता देख उन्हें उनके मुम्बई स्थित निवास पर वापस ले आया गया जहाँ 12 जुलाई 2012 को सुबह साढ़े सात बजे उनका निधन हो गया। विश्व भर में भारतीय पहलवानों की धाक ज़माने वाले ऐसे दारा सिंह को आज उनके निर्वाण दिवस पर विनम्र एवं भावभीनी श्रद्धांजलि |

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