Sunday, May 10, 2015

1857 स्वतंत्रता संग्राम: आजादी के लिए उठाया गया पहला कदम

आज का दिन हमें हमेशा १८५ ७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की याद दिलाता है. उन सब वीरों को और देशवासिओं को श्रद्धा सुमन जो शहीद हो गये

इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतवासियों ने एक दिन के लिए भी पराधीनता स्वीकार नहीं की। आक्रमणकारी चाहे जो हो; भारतीय वीरों ने संघर्ष की ज्योति को सदा प्रदीप्त रखा। कभी वे सफल हुए, तो कभी अहंकार, अनुशासनहीनता या जातीय दुरभिमान के कारण विफलता हाथ लगी। अंग्रेजों को भगाने का पहला संगठित प्रयास 1857 में हुआ। इसके लिए 31 मई को देश की सब छावनियों में एक साथ धावा बोलने की योजना बनी थी; पर दुर्भाग्यवश यह विस्फोट मेरठ में 10 मई को ही हो गया। अतः यह योजना सफल नहीं हो सकी और स्वतन्त्रता 90 साल पीछे खिसक गयी।
1856 के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों को गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूस दिये, जिन्हें मुंह से खोलना पड़ता था। हिन्दू गाय को पूज्य मानते थे और मुसलमान सुअर को घृणित। इस प्रकार अंग्रेज दोनों को ही धर्मभ्रष्ट कर रहे थे। सैनिकों को इसके बारे में कुछ पता नहीं था। दिल्ली से 70 कि.मी. दूर स्थित मेरठ उन दिनों सेना का एक प्रमुख केन्द्र था। वहां छावनी में बाबा औघड़नाथ का प्रसिद्ध शिवमन्दिर था। इसका शिवलिंग स्वयंभू है अर्थात वह स्वाभाविक रूप से धरती से ही प्रकट हुआ है। इस कारण मन्दिर की सैनिकों तथा दूर-दूर तक हिन्दू जनता में बड़ी मान्यता थी।
मन्दिर के शान्त एवं सुरम्य वातावरण को देखकर अंग्रेजों ने यहां सैनिक प्रशिक्षण केन्द्र बनाया। भारतीयों का रंग अपेक्षाकृत सांवला होता है, इसी कारण यहां स्थित पल्टन को ‘काली पल्टन’ और इस मन्दिर को ‘काली पल्टन का मन्दिर’ कहा जाने लगा। मराठों के अभ्युदय काल में अनेक प्रमुख पेशवाओं ने अपनी विजय यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व यहां पूजा-अर्चना की थी। इस मन्दिर में क्रान्तिकारी लोग दर्शन के बहाने आकर सैनिकों से मिलते और योजना बनाते थे। कहते हैं कि नानासाहब पेशवा भी साधु वेश में हाथी पर बैठकर यहां आते थे, इसलिए लोग उन्हें ‘हाथी वाले बाबा’ कहते थे।
नानासाहब, अजीमुल्ला खाँ, रंगो बापूजी गुप्ते आदि ने 31 मई को क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना बनाई थी। छावनियों व गांवों में रोटी और कमल द्वारा सन्देश भेजे जा रहे थे; पर अचानक एक दुर्घटना हो गयी। 29 मार्च को बंगाल की बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे के नेतृत्व में कुछ सैनिकों ने समय से पूर्व ही विद्रोह का बिगुल बजाकर कई अंग्रेज अधिकारियों का वध कर दिया। इसकी सूचना मेरठ पहुंचते ही अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों से शस्त्र रखवा लिये। सैनिकों को यह बहुत खराब लगा। वे स्वयं को पहले ही अपमानित अनुभव कर रहे थे क्योंकि मेरठ के बाजार में घूमते समय अनेक वेश्याओं ने उन पर चूडि़यां फेंककर उन्हें कायरता के लिए धिक्कारा था।
गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने से इनकार के बाद से ही न सिर्फ निर्मम कोर्ट मार्शल, बल्कि गम्भीर मानमर्दन झेल रहे अपने 85 साथियों को जेल तोड़कर छुड़ाने, इसमें बाधक बने अंग्रेज अफसरों को मारने और उनके बंगले फूंकने के बाद इसी क्रोध में ये देसी सिपाही अपनी जीत का बिगुल बजाते हुए अगले दिन दिल्ली आ पहुंचे । फिर तो अपदस्थ सम्राट बहादुरशाह जफर को फिर से गद्दी पर बैठाये जाने के बाद यह अभियान देश के बड़े हिस्से में फैल गया था। कुछ इस तरह कि अंग्रेज अगले दो साल तक पश्चिम में पंजाब, सिंध व बलूचिस्तान से लेकर पूर्व में अरुणाचल व मणिपुर और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में केरल व कर्नाटक तक, अलबत्ता अलग-अलग वक्त पर खुले अलग-अलग मोर्चों पर, कभी मुंह की खाते और कभी छल प्रपंच से बढ़त हासिल करते रहे।
यह अभियान अंग्रेजों की कुटिलताओं से पार नहीं पा सका। इसने ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन का अंत तो किया लेकिन देश की ब्रिटिश उपनिवेश वाली नियति नहीं बदल सका। ब्रिटिश शासकों ने इसका दमन कर 90 सालों बाद तक अपनी सत्ता बनाये रखी और उसके सहारे इसके नायकों को खलनायक सिद्ध करने के बहुविध षड‍्यंत्र करते रहे। उनके षड‍्यंत्रों का सबसे बड़ा कुफल यह हुआ कि आधी शताब्दी तक इसे स्वतंत्रता संग्राम के रूप में पहचाना ही नहीं गया और तिरस्कारपूर्वक ‘सिपाही विद्रोह’ अथवा ‘गदर’ ही कहा जाता रहा।
10 मई के अच्छे दिन 1907 में आये, जब विजयोन्माद में अंधे अंग्रेज इस संग्राम और इसके नायकों पर तमाम लानतें भेजते हुए इंग्लैंड में जश्न मनाने पर उतरे। तब विनायक दामोदर सावरकर ने नहले का जवाब दहले से देने के लिए वहां रह रहे हिन्दुस्तानी नौजवानों व छात्रों को ‘अभिनव भारत’ के बैनर पर संगठित करके 1857 के शहीदों की इज्जत और लोगों को उसका सच्चा हाल बताने के लिए अभियान शुरू किया। 1909 में उन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘दि हिस्ट्री आफ इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस’ लिखी, जिसमें 1857 को ‘भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम’ बताया तो उसे जब्त कर लिया गया।
दुर्भाग्य से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस जब्ती के खिलाफ मुंह तक नहीं खोला। 23 दिसम्बर, 1929 को दिल्ली-आगरा रेल लाइन पर वायसराय लार्ड इरविन की स्पेशल ट्रेन उड़ाने के क्रांतिकारियों के प्रयास में वायसराय के बाल-बाल बच जाने के बाद गांधी जी ने ‘बम की पूजा’ शीर्षक लेख लिखकर क्रांतिकारियों को कोसा था। तब हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन व नौजवान भारत सभा के प्रख्यात क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा ने, जिनका 28 मई, 1930 को लाहौर में रावी के तट पर बम का परीक्षण करते हुए निधन हो गया, चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह से सलाह मशवरा करके ‘बम का दर्शन’ लिखा था। इसमें 1857 की उस लड़ाई के सेनानियों को विनम्रतापूर्वक याद किया गया था। इसे पढ़ना अलग ही अनुभव देता है। यहाँ उसे प्रस्तुत किया जा रहा है।
दस मई वह शुभ दिन है जिस दिन कि ‘आजादी की जंग’ शुरू हुई थी। भारतवासियों का गुलामी की जंजीरं तोड़ने के लिए यह प्रथम प्रयास था। यह प्रयास भारत के दुर्भाग्य से सफल नहीं हुआ, इसीलिए हमारे दुश्मन इस ‘आजादी की जंग’ को ‘गदर’ और बगावत के नाम से याद करते हैं और इस ‘आजादी की जंग’ में लड़ने वाले नायकों को कई तरह की गालियाँ देते हैं। विश्व के इतिहास में ऐसी कई घटनाएँ मिलती हैं, जहाँ आजादी की जंग को कई बुरे शब्दों में याद किया जाता है। कारण यही है कि वह जंग जीती न जा सकी। यदि विजय हासिल होती तो उन जंगों के नायकों को बुरा-भला न कहा जाता, बल्कि वे विश्व के महापुरुषों में माने जाते और संसार उनकी पूजा करता। आज दुनिया गैरीबाल्डी और वाशिंगटन की क्यों बढ़ाई व इज्जत करती है, इसलिए कि उन्होंने आजादी की जंग लड़ी और उसमें सफल हुए। यदि वे सफल न होते तो वे भी ‘बागी’ और ‘गदरी’ आदि भद्दे शब्दों में याद किए जाते। लेकिन वे सफल हुए, इसलिए वे महापुरुषों में माने जाने लगे। इसी तात्या टोपे, नाना साहिब, झाँसी की महारानी, कुँवर सिंह, और मौलवी अहमद साहिब वीर जीत हासिल कर लेते तो आज हिन्दुस्तान की आजादी के देवता माने जाते और सारे हिन्दुस्तान में उनके सम्मान में राष्ट्रीय त्योहार मनाया जाता।
हिन्दुस्तान के मौजूदा इतिहास को, जो कि हमारे हाथों में दिए जाता है, पढ़कर हिन्दुस्तानियों के दिलों में उन शूरवीरों के लिए कोई अच्छी भावनाएं पैदा नहीं होतीं, क्योंकि उनमें ‘आजादी की जंग’ के नायकों को कातिल, डाकू, खूनी, धार्मिक जनूनी व अन्य कई बुरे-बुरे शब्दों में याद किया गया है और उनके विरोधियों को राष्ट्रीय नायक बनाया गया है। कारण यह है कि 1857 की ‘आजादी की जंग’ के जितने इतिहास लिखे गए हैं, वे सारे के सारे ही या तो अंग्रेजों ने लिखे हैं या अंग्रेजों के चाटुकारों ने। जहाँ तक हमें पता है। इस आजादी की जंग का एकमात्र स्वतंत्र इतिहास बैरिस्टर सावरकर ने लिखा था और जिसका नाम ‘1857 की आजादी की जंग का इतिहास’ था। यह इतिहास बड़े परिश्रम से लिखा गया था और इण्डिया ऑफिस की लाइब्रेरी से छान-बीन कर, कई उद्धरण दे-देकर सिद्ध किया गया था कि यह राष्ट्रीय संग्राम था और अंग्रेजों के राज से आजाद होने के लिए लड़ा गया था। लेकिन अत्याचारी सरकार ने इसे छपने ही नहीं दिया और अग्रिम रूप से जब्त कर लिया। इस तरह लोग सच्चे हालात पढ़ने से वंचित रह गए।
इस जंग की असफलता के बाद जो जुल्म और अत्याचार निर्दोष हिन्दुस्तानियों पर किया गया, उसे लिखने की न तो हमारे में हिम्मत है और न ही किसी और में। यह सब कुछ हिन्दुस्तान के आजाद होने पर ही लिखा जाएगा। हाँ, यदि किसी को इस जुल्म, अत्याचार और अन्याय का थोड़ा-सा नमूना देखना हो तो उन्हें एडवर्ड थामसन की पुस्तक, ‘तस्वीर का दूसरा पहलू’ पढ़नी चाहिए, जिसमें उसने क्रूर अंग्रेजों की करतूतों को उघाड़ा है और जिसमें बताया गया है कि किस तरह नील हेवलाक, हडसन कूपर और लारन्स ने निर्दोष हिन्दुस्तानी स्त्री-बच्चों तक पर ऐसे-ऐसे कहर ढाए थे कि सुनकर रोएं खड़े हो जाते हैं और शरीर काँपने लगता है! लेकिन इस बात का खयाल करके स्वतंत्र व्यक्तियों को शर्म आएगी कि वे लोग भी, जिनके बुजुर्ग इस जंग में लड़े थे, जिन्होंने हिदुस्तान की आजादी की बाजी पर सब कुछ लगा दिया था और जिन्हें इस पर गर्व होना चाहिए था, वे भी, इस जंग को आजादी की जंग कहने से डरते हैं। कारण यह कि अंग्रेजी अत्याचार ने उन्हें इस कदर दबा दिया था कि वे सर छुपाकर ही दिन काटते थे। इसलिए उन बुजुर्गो की यादगार मनानी या स्थापित करनी तो दूर, उनका नाम लेना भी गुनाह समझा जाता था।
लेकिन हालात कुछ ऐसे बन गए कि जिनसे विदेशों में बसे हिन्दुस्तानी नौजवान 10 मई के दिन को राष्ट्रीय त्योहार बनाकर मनाने लगे। और कुछ हिन्दी (हिन्दुस्तानी) नौजवान यहाँ भारत में भी यही त्योहार मनाने की कुछ कोशिशें करते रहे हैं। सबसे पहले यह त्योहार इंग्लैण्ड में ‘अभिनव भारत’ ने बैरिस्टर सावरकर के नेतृत्व में सन 1907 में मनाया। गुलामों में खुद तो ऐसे यादगारी दिन मनाने के ख्याल कम ही पैदा होते हैं। वो तो 1907 में अंग्रेजों ने विचार किया कि 1857 के गदरियों पर जीत हासिल करने की पचासवीं वर्षगाँठ मनानी चाहिए। 1857 की याद ताजा करने के लिए हिन्दुस्तान और इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध अंग्रेजों के अखबारों ने अपने-अपने विशेषांक निकाले, ड्रामे किए गए और लैक्चर दिए गए और हर तरह से इन कथित गदरियों को बुरी तरह कोसा गया। यहाँ तक कि जो कुछ भी इनके मन में आया, सब ऊल-जुलूल इन्होंने गदरियों के खिलाफ कहा। इन गालियों और बदनाम करने वाली कार्रवाई के विपरीत सावरकर ने 1857 के हिन्दुस्तानी नेताओं- नाना साहिब, महारानी झाँसी, ताँत्या टोपे, कुँवर सिंह, मौलवी अहमद साहिब की याद मनाने के लिए काम शुरू कर दिया, ताकि राष्ट्रीय जंग के सच्चे-सच्चे हालात बताए जाएं। यह बड़ी बहादुरी का काम था जो अंग्रेजी राजधानी लन्दन में किया गया। इंडिया हाउस में एक बड़ी यादगारी मीटिंग बुलाई गयी, उपवास किये गये ओर कसमें ली गयीं कि एक हफ्ते तक विलासिता की कोई चीज इस्तेमाल नहीं की जायेगी। छोटे-छोटे पैम्फलेट ‘ओह शहीदों’ के नाम से इंग्लैण्ड और हिन्दुस्तान में बाँटे गए। छात्रों ने आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और उच्चकोटि के कॉलेजों में छातियों पर बड़े-बड़े, सुन्दर-सुन्दर बैज लगाए जिन पर लिखा था, ‘1857 के शहीदों की इज्जत के लिए।’
एक कॉलेज में एक प्रोफेसर आपे से बाहर हो गया और हिन्दुस्तानी विद्यार्थियों ने माँग की कि वह माफी माँगे, क्योंकि उसने उन विद्यार्थियों के राष्ट्रीय नेताओं का अपमान किया है और विरोध में सार के सार विद्यार्थी कॉलेज से निकल आए। कई की छात्रवृत्तियाँ मारी गईं, कइयों ने इन्हें खुद ही छोड़ दिया। कइयों को उनके माँ-बाप ने बुलवा लिया। इन हालात की खबर जहाँ भी पहुँची, विदेशों में, वहाँ-वहाँ दस मई का दिन बउ़ी सज-धज से मनाया गया और लोगों में बड़ा जोश आ गया कि अंग्रेज किस प्रकार हमार राष्ट्रीय वीरों को बदनाम करते हैं। उन्होंने रोष के रूप में बैठकें कीं और उनकी याद में 10 मई का दिन हर वर्ष मनाना शुरू कर दिया। काफी समय बाद अभिनव भारत सोसायटी टूट गई और इंग्लैण्ड में यह दिन मनाना बन्द हो गया, लेकिन कुछ समय बाद अमेरिका में हिन्दुस्तान गदर पार्टी स्थापित हो गई और उसने उसे हर बरस मनाना शुरू कर दिया।
आज, जब 1857 के डेढ़ सौ साल पूरे होने के अवसर पर हुए रस्मी आयोजन भी पुराने पड़ गये हैं, जरूरत है कि उस 10 मई की यादों को धुंधलाने न दिया जाये। वह एक ऐसी तारीख है, जिसकी याद हमें भविष्य की लड़ाइयों के लिए बल देती है। अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सभी नाम अनाम हुतात्माओं को कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।

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