Thursday, May 28, 2015

केजरीवाल की राजनीति देश को तोड़ने की साजिश है

दिल्ली विधानसभा में जो हुआ, वह शर्मनाक है. जो लोग आज चुप हैं, केजरीवाल के साथ खड़े हैं, वे भारत में तानाशाही को निमंत्रण दे रहे हैं. ऐसे लोग देश को तोड़ने की साजिश में शामिल हैं. केजरीवाल ने राज्य सरकारों से केंद्र के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसाने का पाप किया है. दरअसल, केजरीवाल सरकार प्रजातंत्र की सबसे खतरनाक बीमारी से ग्रसित है. इस बीमारी का नाम है बहुमत की तानाशाही. ठीक वैसा ही, जैसा कि प्रजातंत्र के नाम पर कम्युनिस्ट पार्टियों की तानाशाही सोवियत रूस में थी. चीन और दक्षिण कोरिया में है. आम आदमी पार्टी के नेताओं के बयानों को सुनकर लगता है कि उन्हें भारत के प्रजातंत्र की समझ नहीं है. वे हर बात पर जनता द्वारा चुनी सरकार...जनता द्वारा चुनी सरकार की रट लगाते हैं और कहते हैं कि विधानसभा Sovereign है यानी संप्रभु है. मतलब यह कि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि कुछ भी कर सकते हैं. अब इन्हें कौन बताए कि डेमोक्रेसी और मोबोक्रेसी में फर्क होता है. आम आदमी पार्टी जो दलील दे रही है, वो प्रजातंत्र को भीड़तंत्र की ओर लेकर जाता है. यहीं से अराजकता यानी एनार्की की शुरुआत होती है.

दो दिन के विशेष सत्र में आप के विधायकों ने अशिष्टता की सारी सीमाएं लांघ दी हैं. कांग्रेस से आम आदमी पार्टी में आई अलका लांबा ने यहां तक कह दिया कि लेफ्टिनेंट गवर्नर केंद्र के नेताओं को मोटा माल पहुंचाते हैं. बीजेपी के एक विधायक ने जब इसका विरोध किया, तो उसे मार्शल के जरिए सदन से बाहर कर दिया गया. ठीक वैसे ही, जैसे योगेंद्र यादव के लोगों को पार्टी की मीटिंग से बाहर किया गया था. एक और महाशय हैं. लाल बहादुर शास्त्री के पोते आदर्श शास्त्री...उन्होंने तो हद ही कर दी. संविधान के अनुच्छेद 155 में संशोधन किए जाने और उप राज्यपाल के खिलाफ महाभियोग चलाए जाने का प्रस्ताव रख दिया. केजरीवाल भी पीछे नहीं थे. अजीब बात है. केजरीवाल को इस बात की ग्लानि भी नहीं है कि दस दिन के लिए एक अस्थाई कैबिनेट सेक्रेटरी की नियुक्ति जैसे छोटे से मामले को संवैधानिक संकट में तब्दील कर दिया. दरअसल, यह राजनीति नहीं, नौटंकी है.
एक सवाल यह उठता है कि जो असेंबली में हुआ, वह सही है या गलत? दिल्ली विधानसभा में जो प्रस्ताव पास हुए हैं, वह न सिर्फ महत्वहीन हैं, बल्कि संविधान-विरोधी भी हैं. केंद्र के नोटिफिकेशन को असेंबली में फाड़ने से वह खत्म नहीं हो जाता है. मामला अगर राज्य और केंद्र के अधिकार क्षेत्र का है, तो फैसला करने का हक सिर्फ और सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के पास है. किसी असेंबली या हाईकोर्ट के पास यह अधिकार नहीं है कि वह राज्यों और केंद्र के बीच के विवाद को सुलझा सके.
आम आदमी पार्टी ने सदन के अंदर गवर्नर पर आरोप लगा कर मर्यादा और परंपरा का उल्लंघन किया है. पहली बात तो यह कि सदन के अंदर अगर कोई व्यक्ति मौजूद न हो, तो उस पर आरोप लगाना गलत है. लोकसभा, राज्यसभा और देश के अलग-अलग विधानसभाओं में इस नियम का कड़ाई से पालन होता है, लेकिन ऐसा लगता है कि दिल्ली विधानसभा भारत की जनता द्वारा चुनी गई एकमात्र विधानसभा है, जहां केजरीवाल जो चाहे कर सकते हैं. बिना सबूत के आरोप लगा सकते हैं. किसी को भी दलाल बता सकते हैं. दिल्ली में 67 सीटों का दंभ ऐसा है कि केजरीवाल ये भी भूल गए हैं कि लोकसभा चुनाव में जनता ने उनका सूपड़ा साफ कर दिया था. मीडिया भी इस बात को भूल गई है कि आम आदमी पार्टी जमानत जब्त कराने में विश्व रिकॉर्ड बना कर बैठी है. सब ये भी भूल गए हैं कि दिल्ली की जनता ने ही लोकसभा चुनाव में शुन्य यानी जीरो थमाया था. बावजूद इसके अगर आम आदमी पार्टी “जनता द्वारा चुनी सरकार” की दलीलें देती है, तो यह मान लेना चाहिए कि उन्हें संविधान की जरा भी जानकारी नहीं है.

आम आदमी पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत एक प्रजातांत्रिक गणराज्य है. प्रजातंत्र और गणराज्य का फर्क समझना जरूरी है. यूरोप के कई देश जैसे इंग्लैंड, स्पेन, स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क, नीदरलैंड, मलेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और जापान जैसे देशों में प्रजातंत्र है, लेकिन ये गणराज्य नहीं हैं. ये रिपब्लिक नहीं हैं. वहीं, रूस, चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया जैसे कई देश ऐसे हैं, जो गणतांत्रिक तो हैं, पर प्रजातान्त्रिक नहीं हैं. भारत गणतांत्रिक भी है और प्रजातान्त्रिक भी. इसके फर्क को समझना जरूरी है. वरना केजरीवाल जैसे जनोत्तेजक नेताओं के झांसे में आने का खतरा बना रहेगा. दोनों में यह फर्क है कि गणतंत्र में संविधान सर्वोच्च होता है और प्रजातंत्र में जनता. प्रजातंत्र में बहुमत निरंकुश और सर्वशक्तिमान बन जाता है. बहुमत के विरुद्ध अल्पमत को कोई संरक्षण नहीं होता. ऐसी स्थिति में तानाशाही और प्रजातंत्र में फर्क खत्म हो जाता है. केजरीवाल इसी किस्म के प्रजातंत्र के प्रवर्तक हैं.
भारत के संविधान निर्माताओं ने इसी आशंका के चलते हमारे संविधान में मूलभूत अधिकारों को परिभाषित किया और इन मूलभूत अधिकारों की सीमा के बाहर से प्रजातंत्र की शुरुआत की. वहीं... गणतंत्र में विधि का विधान यानी कानून का राज होता है. गणतंत्र में निर्वाचित सरकार के अधिकार संविधान की सीमाओं में बंधे होते हैं. बहुमत का शासन बहुसंख्यक के शासन में न बदल जाये, इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रजातंत्र पर थोड़ा लगाम लगाकर संविधान को सर्वोपरि बनाया था. यही वजह है कि भारत में हम प्रजातंत्र दिवस नहीं, बल्कि गणतंत्र दिवस मनाते हैं. केजरीवाल की बातों से यही लगता है कि उन्हें गणतंत्र और प्रजातंत्र का फर्क समझ में नहीं आया है. केजरीवाल जिस प्रजातंत्र के प्रवर्तक हैं, वह दरअसल भीड़तंत्र है. वह तानाशाही और अराजकता की ओर ले जाने वाला रास्ता है.
जिन लोगों को लगता है कि दिल्ली से उठा विवाद सिर्फ भारत के संघीय ढांचे का सवाल हैं, उन्हें सचेत हो जाना चाहिए. यह मसला अब गणतंत्र के खिलाफ एक विद्रोह का बनता जा रहा है. केजरीवाल ने देश भर के गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों को केंद्र सरकार के खिलाफ उकसाने और विद्रोह करने का आमंत्रण देकर उन शक्तियों को ताकत दी है, जो भारत को टुकड़े-टुकड़े करना चाहती हैं. भारत की व्यवस्था को चकनाचूर करना चाहती है. ऐसी शक्तियों का विरोध करना हर देशभक्त का दायित्व है. भारत माता की जय का नारा लगाने वालों यह पता होना चाहिए कि जब भारत के ही टुकड़े हो जाएंगे तो किसकी जय करोगो.
केजरीवाल शायद अपनी धुन में हैं. उन्हें दुनिया भर की शक्ति चाहिए...पावर चाहिए.. तब उनकी भूख मिटेगी. अगर आप में से कोई बता सकता हो, तो ये बात उन्हें जरूर बताएं कि महात्मा गांधी के पास कभी कोई सत्ता नहीं थी...पावर नहीं था...कुर्सी नहीं थी...लेकिन भारत के सबसे शक्तिशाली नेता रहे. अगर यह नहीं बता सकते, तो कम से कम ये जरूर पूछिएगा कि केजरीवाल साहब, क्या नमक के कर्ज अदायगी का वक्त आ गया है? क्या फोर्ड फाउंडेशन के एजेंडे को लागू किया जा रहा है?

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