Saturday, May 16, 2015

सिकन्दर ने नहीं महाराज पुरु ने सिकन्दर को हराया था

सिकन्दर ने नहीं महाराज पुरु ने सिकन्दर को हराया था
झेलम और चेनाब नदियों के बिच पुरु का राज्य था. सिकन्दर के साथ हुई मुठभेड़ में पुरु परास्त हुआ किन्तु सिकन्दर ने उसका प्रदेश उसे लौटा दिया-झा एंड श्रीमाली, पृष्ठ १७१ 

सिविल सेवा की तयारी के दौरान दुर्भाग्यवश झा एंड श्रीमाली जैसे नीच और मुर्ख वामपंथी इतिहासकारों द्वारा लिखित ये मानक इतिहास हमें बार बार पढ़ना पढ़ा जो अपनी शौर्य और वीरता के लिए जगत प्रसिद्द महान राजा पुरु का इतिहास सिकन्दर महान का गुणगान करते हुए महज उपर्युक्त दो वाक्यों में सिमटा दिया है और हर बार उसके इस दो वाक्यों के पास अपना पेन्सिल और कलम तोड़ कर भड़ास निकालने को बाध्य होता क्योंकि हर बार मुझे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के इतिहासकार रोबिन लेन फोक्स के द्वारा सिकन्दर पर लिखित इतिहास की पुस्तक “अलेक्जेंडर द ग्रेट” पर आधारित २००४ में बनी ओलिवर स्टोन की फिल्म “अलेक्जेंडर” मुझे याद आ जाता जिसमे इन धूर्त वामपंथी इतिहासकारों के इतिहास के विपरीत यह दिखाया गया की सिकन्दर की सेना पुरु सेना की वीरता और उसके गज सेना के आतंक से पस्त हो गयी और जब गुस्से में सिकन्दर खुद पुरु से द्वंद करने के लिए बढ़ा तो पुरु का पुत्र ने उसके घोड़े का अंत कर दिया तथा पुरु का तीर सीधे उसके पेट में जा धंसा और वह जमीन पर गिरकर बेहोश हो गया. यूनानी सैनिक उसे युद्ध भूमि से किसी प्रकार उठा ले भागे. सिकन्दर स्वस्थ हुआ परन्तु काफी कमजोर था और उसी हालात में वह वापस लौटने को बाध्य हो गया.
दूसरी तरफ १९५० के दशक में बनी सोहराब मोदी का फिल्म “सिकन्दर” भी इसी प्रकार युद्ध की घटना चित्रित किया है, परन्तु वह इन धूर्त वामपंथियों के मिथ्याचार का शिकार हो इसे एक टर्निंग पॉइंट दे देता है. सोहराब मोदी के फिल्म में सिकन्दर के घोड़ा को तीर लगने और उसके जमीन पर गिरने के बाद जब महाराज पुरु भाला से बार करने लगते हैं तो उन्हें सिकन्दर की ईरानी प्रेमिका को दिए वो वचन याद आ जाता है जो महाराज पुरु की वीरता से भयभीत सिकन्दर के प्राणों की भीख मांगने पुरु के पास आई थी और पुरु ने उसे वचन दिया था की वह सिकन्दर की हत्या नहीं करेगा. उस वक्त युद्ध से भागने के पश्चात सिकन्दर रात्रि में पुरु के सोते हुए सैनिकों पर हमला करता है और पुरु को बंदी बना लेता है.
सवाल है भारत के नीच और मक्कार वामपंथी इतिहासकार सिकंदर को महान और महाराज पुरु को पराजित क्यों घोषित करता है? इतिहास पर महान शोधकर्ता स्वर्गीय पुरुषोत्तम नागेश ओक कहते हैं की “असत्य का यह घोर इतिहास भारतीय इतिहास में इसलिए पैठ गया है क्योंकि हमको उस महान संघर्ष के जितने भी वर्णन मिले हैं, वे सबके सब यूनानी इतिहासकारों के किए हुए हैं”. वे आगे लिखते हैं, “ऐसा कहा जाता है की सिकन्दर ने झेलम नदी को सेना सहित घनी अँधेरी रात में नावों द्वारा पार कर पुरु की सेना पर आक्रमण किया था. उस दिन बारिस हो रही थी और पोरस के विशालकाय हाथी दलदल में फंस गए. किन्तु यूनानियों के इन वर्णनों की भी यदि ठीक से सूक्ष्म विवेचना करें तो स्पष्ट हो जायेगा की पोरस की गज सेना ने शत्रु शिविर में प्रलय मचा दिया था और सिकन्दर के शक्तिशाली फ़ौज को तहस-नहस कर डाला था”.
एरियन लिखता है भारतीय युवराज ने सिकन्दर को घायल कर दिया और उसके घोड़े बुक फेलस् को मार डाला.
जस्टिन लिखता है की ज्यों ही युद्ध प्रारम्भ हुआ पोरस ने महानाश करने का आदेश दे दिया.
कर्टियस लिखता है की “सिकन्दर की सेना झेलम नदी पर पड़ाव डाले था. पुरु की सेना नदी तैर कर उस पार पहुंचकर सिकन्दर की सेना के अग्रिम पंक्ति पर जोरदार हमला किया. उन्होंने अनेक यूनानी सैनिकों को मार डाला. मृत्यु से बचने के लिए अनेक यूनानी नदी में कूद पड़े, किन्तु वे सब उसी में डूब गए”.
कर्टियस हाथियों के आतंक का वर्णन करते हुए आगे लिखता है, “इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था, और उनकी चिग्घार ने घोड़ों को न केवल भयातुर कर दिया जिससे वे बिगडकर भाग उठते बल्कि घुडसवारों के ह्रदय भी दहला देते. उन्होंने इतनी भगदड़ मचाई की अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थान की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके. अब सिकन्दर ने छोटे छोटे टुकड़ों में हाथियों पर हमले का आदेश दिया जिससे आहत पशुओं ने क्रुद्ध हो, आक्रमणकारियों पर भीषण हमला कर दिया, उन्हें पैरों तले रौंद देते, सूंड से पकड़कर हवा में उछल देते, अपने सैनिकों के पास फेंक देते और सैनिक तत्काल उनका सर काट देते.”
डीयोडोरस ने भी पुरु के हस्ती सेना का ऐसा ही वर्णन किया है. ओलिवर स्टोन ने अपने फिल्म में इस घटना को बारीकी से दर्शाया है. अस्तु, यह सब वर्णन स्पष्तः प्रदर्शित करता है की युद्ध या तो सुखी भूमि पर ही लड़ा गया था या भूमि के गीले पन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था और यूनानियों ने सिर्फ अपनी हार का गम मिटाने के लिए हाईडेस्पिस् (झेलम) की लड़ाई के बारे में मिथ्या फैलाया. रात्रि के अंधकार में छिप कर हमला कर पुरु को परास्त करने और दल दल में पुरु के हस्ती सेना के फंस जाने के सच्चे झूठे यूनानियों के लिखित इतिहास से इतना तो स्पष्ट हो जाता है की भारत के सीमावर्ती जंगलों में महीनों से सांप बिच्छू का दंश और हैजा मलेरिया आदि बिमारियों को झेलकर पहले से आक्रांत सिकन्दर की सेना पुरु की सेना से आमने सामने लड़ाई में जितने में सक्षम नहीं था इसलिए रात्रि के अंधकार और बारिस का सहारा लिया.
इथोपियाई महाकाव्यों का सम्पादन करने वाले श्री ई ए डव्लू बेंज ने अपनी रचना में सिकन्दर के जीवन और उसके विजय अभियानों का वर्णन सम्मिलित किया है. उनका कहना है की , “झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व सेना का अधिकांश भाग मारा गया था. सिकन्दर ने अनुभव कर लिया था की यदि मैं लड़ाई जारी रखूंगा, तो पूर्ण रूप से अपना नाश कर लूँगा. अतः उसने युद्ध बंद कर देने के लिए पोरस से प्रार्थना की. भारतीय परम्परा के अनुरूप ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया. इसके बाद दोनों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए. अन्य प्रदेशों को अपने सम्राज्यधीन करने में, फिर, पोरस की सहायता सिकन्दर ने की.”
मुझे बेंज की बातों में सच्चाई मालूम पड़ती है. भला एक साम्राज्यवादी विजेता अथक प्रयास और अपूरणीय क्षति के बाद विजित राजा को उसके राज्य के साथ साथ अपने द्वारा विजित अन्य प्रदेश भी दे सकता है ताकि वह और शक्तिशाली हो जाए? इसके अतिरिक्त इतिहास में इसप्रकार का कोई और उद्धरण तो मैंने नहीं देखा है, परन्तु विदेशियों के गुलाम वामपंथी इतिहासकार हमे यूनानियों की यही बात मानने को बाध्य करते हैं की सिकन्दर ने पुरु को परास्त किया फिर उदारता दिखाते हुए उसके राज्य लौटा दिए और फिर अपने विजित राज्य का एक हस्सा भी उसे दे दिया. यही तथ्य की पोरस ने सिकन्दर से अपना प्रदेश खोने की अपेक्षा कुछ जीता ही था, प्रदर्शित करता है की वास्तविक विजेता सिकन्दर नहीं महाराज पुरु थे और सिकन्दर को अपना विजित प्रदेश देकर संधि करनी पड़ी थी. हमे जो इतिहास पढाया जाता है वो मुर्ख वामपंथी इतिहासकारों का प्रपंच मात्र है. यह लिखित तथ्य भी की बाद में अभिसार ने सिकन्दर से मिलने से इंकार कर दिया था, सिकन्दर की पराजय का संकेतक हैं. यदि सिकन्दर विजेता होता तो उसकी अधीनता स्वीकार कर चूका अभिसार कभी भी उसकी अवहेलना करने की हिम्मत नहीं करता. लौटते वक्त सिकन्दर अपने ही द्वारा विजित क्षेत्रों से वापस लौटने की हिम्मत नहीं जूटा सका. नियार्कास के नेतृत्व में कुछ लोग समुद्र के रास्ते गए तो बाकी सिकन्दर के नेतृत्व में जेड्रोसिया के रेगिस्तान के रास्ते. उस पर भी रास्ते में छोटे छोटे कबीले वालों ने उसकी सेना पर भयंकर आक्रमण कर अपने जन धन और अपमान का बदला लिया. मलावी नामक जनजातियों के बिच तो सिकन्दर मरते मरते बचा था. प्लूटार्क लिखता है की “भारत में सबसे अधिक खूंखार लड़ाकू जाती मलावी लोगों के द्वारा सिकन्दर की देह के टुकड़े-टुकड़े होने ही वाले थे.....” बेबिलोनिया पहुँचते पहुँचते रास्ते में उसके काफी सेना नष्ट हो चुके थे. सिकन्दर का न सिर्फ अहंकार और युद्धपिपासा बुरी तरह दमित हुई थी बल्कि हार, अपमान और सामरिक नुकसान से वह बुरी तरह टूट चूका था और शायद यही कारण है की वह बहुत अधिक शराब पीकर नशे में धुत रहने लगा था और अधिक शराब पिने की वजह से ही वह सिर्फ २८ जून ३२३ BC में मर गया.
जरा सोचिये, यूनानी तो सिकन्दर की हार को जीत बताकर अपने देश की गौरवगाथा और अपना माथा ऊँचा रखने का प्रयास कर रहे थे, परन्तु नीच वामपंथी इतिहासकार अपने ही देश की गौरवगाथा को मिटटी में मिलाकर किसका भला कर रहे हैं? आपको यह भी बता दूँ की सिकन्दर की मौत पश्चात उसकी पत्नी ने ऑगस नामक एक पुत्र को जन्म दिया था, किन्तु कुछ महीनों के भीतर ही सिकन्दर की पत्नी एवं अबोध शिशु मार डाले गए. यदि सिकन्दर विजेता होता तो उसके मरणोंपरांत उसकी पत्नी और बच्चे की यह दुर्दशा नहीं होता.

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